दिलायरी : १२/०२/२०२५ || Dilaayari : 12/02/2025

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वैसे आज तो अक्षरसः वह गुजराती कहावत सिद्ध हो गई, "कुंवर, सुंवर अने कुतरुं, परभाते पोढ़े।".. अर्थात, कुंवर यानी राजकुंवर, सुंवर को हिंदी में सूअर कहते है, और कुतरुं यानी कुत्ता.. यह तीनो देर तक जागते है और सुबह को सोते है। अब कल डांडिया-रास बड़ी देर से शुरू हुए, लगभग बारह बजे के बाद..! और आज सुबह चार बजे तक हम वहीँ बैठे थे। डांडिया रास का क्रेज़ अच्छा है, बहुत पुराने यार-दोस्त कम से कम इसी बहाने इकठ्ठे तो हो जाते है। एक राउंड खेलने के बाद चार बजे तक हम बैठ गए गप्पे लड़ाने..! तो एक पुराने मित्र से वार्तालाप होते हुए बड़ा रोचक मुद्दा निकल आया..! प्रसिद्धि किसे नहीं चाहिए? ख्याति के तो सब ही चाहक है। बात कुछ यूँ हुई कि एक संशोधक है। (नाम और गाँव नहीं बता रहा हूँ, लेकिन समझने वाले तब भी पहचान जाएंगे।)



बात कुछ यूँ हुई कि एक संशोधक है, विदेश में बसा हुआ है। बड़ा जानकार है। खोजबीन करना, और पढ़ते रहना उसे पसंद है। उसे कहीं पढ़ने में आया था कि कच्छ के उस गाँव में प्राचीनतम मनुष्य के अवशेष है, फॉसिल मिलने के चांस है। वो संशोधक कच्छ में आया। यहाँ जो मित्र यह बात बता रहा है उससे कांटेक्ट किया, और दशहरा के आसपास की यह बात है। तय हुआ की अगले दिन उस गाँव में जाना है। रात को मुझे भी इस मित्र का फोन आया था कि आशा है एक बड़ी खोज की, मनुष्य की उत्पत्ति के समीकरण बदल जाएंगे, अगर यह खोज सच साबित हुई तो। वैज्ञानिको द्वारा साबित किया हुआ है कि मनुष्य की उत्पत्ति अफ्रीका खंड में हुई है, कुछ ५० लाख वर्ष पूर्व..! और यहाँ कच्छ के इस गाँव में जो फॉसिल्स है वे लगभग ५० लाख से भी ज्यादा वर्ष पुराने है। ऐसा अंदाज था। तो मुझे तो दूसरे दिन ऑफिस पर काम था इस लिए जा नहीं पाया। लेकिन मेरे मित्र सब गए थे। उस गाँव के एक व्यक्ति को अग्रिम सुचना दे दी थी, ऐसी ऐसी खोजबीन के लिए आ रहे है। तो उस गाँव वाले ने अपने अंदाजे से कुछ पत्थर इकठ्ठे कर रखे थे.. ये लोग वहां पहुंचे तो वो संशोधक तो चौंक पड़ा.. राजी होते हुए बोल पड़ा की यही तो खोजना था.. कुछ पांच-सात फॉसिल थे, जिसमे एक पैर के एंकल से ऊपर का हिस्सा, हाथ का कलाई से कोहनी के बिच का एक हिस्सा, एक थापा (नितंब की हड्डी) का, और कुछ अंगो के हड्डियों के फॉसिल थे। अब संशोधक को तो बिना मेहनत के, बिना कुछ खोजबीन के उस गाँव वाले युवक के द्वारा यह सब मिल गया। और वे सब राजी होते हुए वापिस लौटे। दूसरे दिन समाचार वालो को पता चला की कुछ खोजबीन हुई है, जो मानव उत्पत्ति से जुडी हुई है। उस संशोधक को मिडिया वाले मिलने गए, और उस संशोधक ने सारा क्रेडिट ले लिया। मेरे मित्र ने उसे वहां तक पहुँचाने की जहमत, उस गाँव वाले युवक ने कई घंटे लगाकर पहले से इकट्ठे किये हुए फॉसिल, यह सब मायने नहीं रखता, बस उस संशोधक ने अपनी सूझबूझ से यह खोज की है। यही बात मिडिया में आई..! अब मेरे उन मित्रो में खुसरपुसर हुई की कमसे कम नाम तो देना चाहिए था हमारा भी मिडिया में, मेहनत तो लगी है। फिर उस संशोधक को आंटे में लिया, और उससे तीन फॉसिल वापिस ले लिए.. वैसे वे फॉसिल मनुष्य की उत्क्रांति में शुरूआती वानर के साबित हुए थे। सिद्धांत तो यही है की वानरों से मनुष्य की उत्क्रांति हुई है। अर्थात करोड़ वर्ष पुराने वानर के वह फॉसिल थे। कच्छ में बहुत कुछ मिलता है जो इतिहास को और पुराने सिद्धांत तथा समीकरणों में बड़े बदलाव करने पर मजबूर कर देता है। पिछले वर्ष ही तो विश्व के सबसे बडे तथा पुराने सांप के फॉसिल कच्छ के पांधरो के पास मिले थे, उस सांप को 'वासुकि इंडिकस' नाम दिया गया था। लगभग ३६ से ५० फ़ीट की उस सांप की लम्बाई मानी जाती है। पौराणिक वासुकि पर से उसे यह नाम दिया गया था। खेर, इस बन्दर के विषय में अत्यधिक माहिती तो कुछ मिली नहीं। 


लगभग सुबह चार बजे तक यह सब बाते-चर्चाएं और चाय चलती रही..! फिर घर आया, निंद्रा भी तो आवश्यक है। सो गया तो जैसे कुछ ही देर में जगा भी दिया गया। लगा जैसे अभी पांच मिनिट पहले ही तो सोया था। लेकिन ऑफिस नाम की जगह है वहां प्रतिदिन सवेरे जाना पड़ता है। लगभग दस बजे ऑफिस पहुंचा..! सरदार तो कुम्भ गया है, ऐसा समाचार प्राप्त हुआ। क्योंकि सवेरे सवेरे सरदार के बड़े काम पड़ते है, और उसका फोन ही स्विचॉफ आ रहा था। फिर यहाँ वहां फोन घुमाने पर पता चला की कुम्भ से लौट रहा है। खेर, फ्लाईट्स में देर नहीं लगती..! दोपहर को उसी विवाह में भोजन करने जाना था, जहाँ रात को डांडिया रास थे। मैं मंडप में पहुंचा तो पता चला, कि एक काउंटर कम है। गुजरात में विवाह में एक प्रथा है। भोजन समारम्भ जहाँ होता है, वहां एक काउंटर पर लोग भोजन के पश्चात कुछ पैसे देते है, जिसे 'चांदलो' या 'हाथगणु' कहते है। लड़का या लड़की, दोनों के विवाह में यह होता है। लोग भोजन के पश्चात ११ रूपये से लेकर श्रद्धा और व्यवहार अनुसार पैसे लिखवाते है। मेरी आदत है, भोजन समारंभ में भोजन करने से पूर्व ही मैं उस 'चांदला' वाले काउंटर पर अपना नाम लिखवा देता हूँ। यहाँ पहुँचने पर पता चला की यह लोग काउंटर लगाना ही भूल गए विवाह की अन्य भागदौड़ में। उतने में कन्या के चाचा ने मुझसे कहा कि 'यह कमी रह गई है, जल्दी से एक बुक और लाल पेन मँगाओ, और आप ही लिखने बैठ जाओ..!' गजे को दौड़ा दिया, एक बुक, लाल पेन, और काउंटर लगाया.. लगा तो दिया, और लिखने तो बैठ गया, लेकिन सवा एक से लेकर ढाई बजे तक मैंने सर उठाकर नहीं देखा, लगातार लिखते ही रहा, कौन पैसे दे रहा है, कौन नाम लिखवा रहा है, फुर्सद ही नहीं। गजा केश इकठ्ठा करे, मैं लिखता रहूं.. ढाई बजे तक भी लिखवाने वाले कम न हुए। फिर दो लड़को को हमारी जगह पर बिठाकर मैं और गजा भोजन के लिए उठे.. ऑफिस भी तो पहुंचना था। सरदार की गैरहाजरी में कोलू का बैल मैं ही हूँ। भोजन करके उठा तो तीन बज गए थे। भागा भागा ऑफिस पहुंचा। 


फिर वही, हिसाब, बिल, और मगजमारी..! छह बजे तो सरदार भी आ गया था। साढ़े पांच को अचानक से आजकी तारीख पर कुछ सुनना था ऐसा कुछ याद आया। कैलेंडर में देखा तो पता चला आज दयानन्द सरस्वती की जन्मतिथि है। मोरबी से राजकोट हाइवे पर टंकारा गांव पड़ता है, अब तो तहसील बन चुका है। तिवारी परिवार में जन्मे मूलशंकर के विषय मे बचपन के स्कूल के समय बहुत बाते पढ़ी थी, उनमे से एक यह याद है कि जब उन्हें अनुभव हुआ कि शिवलिंग पर तो चूहे कूद रहे है तो उन्हें लगा कि यह तो शिव नही हो सकते। क्योंकि वह तो अनंत ऊर्जा है, चूहे उनके ऊपर कैसे उछल कूद कर सकते है? फिर उनकी रुचि उस विषय मे बढ़ी, और आगे चलकर उन्होंने ही नारा दिया कि 'वेदों की ओर लौटो।' एक स्नेही ने आज स्वामी दयानंद के विषय पर ही एक सुंदर ऑडियो प्रस्तुति की है। वही सुननी थी, लेकिन समय बीत गया था। शाम हो चुकी थी, और प्रसारित तो दोपहर को ही हो चुका था। लेकिन सदनसीब ही कहा जाए कि स्नेही ने रिकॉर्ड कर रखा होगा तो मुझे सुनने का सौभाग्य मिल गया। वैसे अच्छा है, दयानंद सरस्वती को शायद हम उतना याद नही करते, बस कोई आर्यसमाजी न टकरा जाए तो। एक बात मैंने अक्सर नॉट की है। जब भी मुझे कोई आर्यसमाजी मिला है, वो बड़ा वाक्पटुता का धुरंधर ही होता है। उसके तर्क भाईसाहब कान पकड़वा लेते है। मेरे कई मित्र है जो कभी न कभी आर्यसमाज से कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित किये हुए है। वेदों का सार पढ़ चुके है। और एक मैं हूँ, जो कभी भी उस विषय मे रस नही ले पाता। क्योंकि मुझे शायद प्रान्तिक इतिहास में ज्यादा रस रहा है। 


लगभग पौने नो को घर लौट आया था। तो पता चला कि शाम का भोजन भी वहीं शादी वाले घर पर ही है। अब कन्या के विवाह के पश्चात तो बस शादी वाले घर के मेहमान के लिए ही भोजनादि की व्यवस्था होती है। हम तो दोस्त हुए, भार डालना चाहते नही थे लेकिन तब भी जाना तो पड़ा ही। पहुंचा तो मैं अकेला ही बचा था। तुरंत शीघ्रातिशीघ्र गले तक ठूंस सकूं उतनी पावभाजी दबा ली। और फिर वही गप्पे लड़ाने का सिलसिला.. बातों में से बाते, उसमे से और बाते.. कहाँ तक जाती है कुछ नक्की नही..! चलो फिर लगे हाथ आप भी हमारी बातों के मजे लीजिए। तो कुलमिलाकर बातों सार पहले ही बता देता हूँ कि हमारे गांवों के लोग आज भी कुछ पुरानी सभ्यता में जीवित है। जैसे हम तो अब शहरी हो चुके है, साल में एकाध बार गांव गए तो गए वरना यहीं जीवन गुजर जाना है। देखो एक चीज गौर करने जैसी है, आपको बात रखनी आनी चाहिए, आप बात को कैसे प्रस्तुत करते है इस पर निर्भर करता है कि आपको कैसा प्रतिभाव मिलेगा। अब हम लोग ठहरे वो पुरानी रनप्रेमी प्रजा के वंशज, तो हमारी बाते भी ऐसी होती है। एक भाई ने शुरू की..


फलाने गांव की बात है। एक बापु थे, (गुजरात मे राजपूत का छोटा बालक है तो उसे भी 'बापु' कहते है। या फिर संतो को 'बापु' की उपाधि मिलती है।) बड़ी सारी जमीने थी तो और कोई कमाने की चिंता-फिक्र थी नही। वे सुबह निकल पड़ते सारी सीमाए नापने, साथ मे बंदूक रहती, कोई शिकार वगेरह खेल लेते। लेकिन घर मे बा (राजपूत पुरुष के लिए बापु, स्त्री के लिए बा शब्द प्रायोजित किया जाता है।) को यह शिकारप्रवृति जरा भी पसंद नही थी। तो बापु जब भोजन के लिए बैठते तो बा उन्हें टोकते कि 'यह सब पाप बंद कीजिए, ईश्वर रूठ जाते है, अबोल जीव की हत्या करके क्या मिलता है आपको? वगेरह वगेरह..' प्रतिदिन का हो चुका था। आसपास के लोगो को पता था, बापु चुपचाप सब सुन लेते है। बा थोड़े क्रोधी है इस विषय मे। लेकिन यही नित्यक्रम था। अब साथ मे एक और चीज होती थी। बापु भोजन के लिए बैठते तभी सामने एक पेड़ पर उल्लू भी बैठता। इधर बा के कड़वे प्रवचन शुरू होते, उधर उल्लू भी चीखना शुरू कर देता। एक दिन बापु शिकार से लौटे, भोजन के लिए बैठे, सामने पेड़ की डाल पर उल्लू भी बैठा, बा के प्रवचन भी शुरू, उधर डाल पर से उल्लू भी शुरू। और बापु का मगझ गया, भरी बंदूक पास में ही थी, उल्लू को मार गिराया। ण बंदूक फूटने की आवाज से आसपास से लोग इकट्ठा हो गए। भागे-दौड़े बापु के घर आए। अब उन्हें लगा कि हररोज बा के प्रवचन से परेशान होकर आज बापूने कर दिया काम तमाम.. रसोईघर में देखा तो बा दिखे नही, चाचा-ताऊ लगे बापु को डांटने.. कि यह क्या कर दिया, ऐसा कौन करता है? स्त्री हत्या सबसे बड़ा पाप है। काला काम कर दिया। कलंक बिठा दिया.. वगेरह वगेरह.. अब बापु भी असंमजस में कि एक उल्लू मार गिराने में ऐसा क्या हो गया? उधर परिवार वाले सोच रहे थे बापु ने बा को निपटा दिया। लेकिन घर मे से बा भी यह हो हल्ला सुनकर बाहर आए तो सब मामला शांत हुआ.. लेकिन तब से बापु को भोजन का बड़ा सुख हो गया। बा ने फिर कभी उनके शिकार पर कभी रोकटोक नही की.. क्या पता उसदिन उल्लू उनका प्राणरक्षक बना हो.. था ना मजेदार किस्सा?


फिर दूसरे ने अपनी बतानी शुरू की.. हमारी तरफ तो आज भी लोग पुराने अंदाज में जीते है। गांवों में आज भी शहरी व्यक्ति आए तो उसे नापते है, कितना जिगर है उसमे? बस ऐसे ही लड़ने को उत्सुक हो जाते है, बस शारीरिक क्षमता देखने के लिए। वैसे बात भी सही है, पूर्वी कच्छ में आज भी एक बड़ा विस्तार पुरातन विचारधारा में जीवित है। पुरातन से तात्पर्य था लड़ने को और कौशल दिखाने को आतुर, कुरीतियां तो कोई है नही उतनी। लोजी आज भी पीढ़ियों पुराने वैर को जीवंत रखे हुए है। गुजराती में उसे 'अपैयो' कहते है। होता क्या था कि कोई प्रसंगों में एक गांव से दूसरे गांव लोग जाया करते, अब छोटी मोटी बातों पर भी लड़ने वाली कौम रक्त बहा देती। छह-सात की वीरगति तो सामान्य बात थी। आज भी है उस पंथक में। 'तू' कहने पर भी ट्रेक्टर चढ़हा दिया जाता है। तो एक गांव वाले दूसरे गांव में कोई खुशी प्रसंग में गए थे, और किसी बात पर बहस हो गयी। लड़ाई छिड़ गई। छह-सात वीरगति को प्राप्त हुए। तब से एक गांव के लोग दूसरे गांव के लोगो को बुलाते नही। और वह बात आज भी निभाई जाती है। वैसे मित्राचारी है, दोनो गांवों के लोग आपस मे कोई शत्रुता नही है लेकिन वह पूर्वजो वाली बात के कारण अपैया बना हुआ है। अपैया के नियम है, एक दूसरे का पानी नही पीते, साथ नही बैठते, हाथ नही मिलाते, दूर दूर बैठते है, और पहचानते है तब भी मुंह फेर के 'जय माताजी' या 'राम राम' करते है। बस कारण उतना ही कि एक गांव के पूर्वजो ने दूसरे गांव वालों के पूर्वजो को कभी मारा था। आज पीढियां बीत चुकी है, लेकिन परंपरा बनी हुई है। और माननी पड़ती है, मैंने एक बार तोड़नी चाही। दूसरे गांव में मेरा मित्र था, एक शादी में मिलना हुआ, उसने दूर से ही मुझे जय माताजी किया। लेकिन मैं रहा शहरी, इन बातों में मानता नही। तो पास जाकर मैंने जबरजस्ती हाथ मिला लिया। और कुछ ही देर साथ बैठने पर उस मित्र ने बताया कि अब देखना कुछ न कुछ दुर्घटना होगी। और वास्तव में कुछ देर बार उसके परिवार में किसी की तबियत गम्भीरतापूर्ण बिगड़ गयी। होता होगा कुछ न कुछ विज्ञान इसके पीछे भी.. यह भी एक किस्सा सुना..


मेरा भी मौका आया, तो मैंने भी हमारे तरफ की बाते शुरू की। हमारे यहां तो सिंह को भी उतनी इज्जत नही देते जितनी सिंह को मिलनी चाहिए, आज भी उसे 'जनावर' (जानवर को गुजराती में जनावर कहते है) ही कहते है। एक तो हमारे यहां सिंगल लेन की सड़कें होती है, उसमे भी वही दबदबा वाला मामला है। सिंगल लेन सड़क पर भी अपना वाहन रोड से नही उतरता। सामने से आने वाला रोड के किनारे उतरे तो भले, वरना उसे टकराना हो तो मुझे कोई दिक्कत नही है। और यह सच है, वाहन पर गांव का नाम लिखना अनिवार्य है। और नाम पढ़कर ही कुछ लोग सामने से रास्ता छोड़ देते है यह सोचकर कि इनसे कौन उलझे? एक दिन टेकरियों में जनावर ने शिकार किया, और सिंह बैठा बैठा खा रहा था। गांव वाले देखने पहुंच गए। अब हकीकत यह है कि भोजन करते सिंह को देखना भी नही चाहिए क्योंकि उस समय वह बहुत क्रोधी होता है, और झपट्टा मार सकता है। लेकिन अपना गांव है, सिंह का नही। हमारे गांव में ऐसे ही कैसे आ जाएगा? लड़के पहुंच गए, सिंह को बेचारे को ठीक से खाने तक न दिया। एक ने तो बिल्कुल पास पहुंचकर फ़ोटो तक क्लिक करवाने वाला था। मतलब कुछ भी.. वास्तव में तो यह पागलपन है, लेकिन बहादुरी के नाम मे खपाया जाता है। मामला उस हद तक का है कि राह चलते को झापड़ मार लेते है उस कारण से कि वह कोई गलती करता ही नही है। अब उसकी गलती करने का इंतजार कौन करे.? उससे पहले ही एकाध हाथ साफ कर लो। वैसे समस्या यह है कि अब वो समय नही रहा, कभी पूर्वजो को सिर्फ मारना या मरना ही आता था। आज और बहुत कुछ सीखने को अवेलेबल है, लेकिन आज भी हमारी ओर वही दो बातें 'मारना या मरना' को प्राथमिकता दी जाती है। खुले मंच पर स्पष्टता से तो नही लिख सकता, लेकिन कोई जांच आनी हो तो वह भी पहले गांव की सीमा पर रुकी रहेगी, सरपंच से मिलेगी, सरपंच की अनुमति के बिना गांव में कोई जांच-पड़ताल भी नही कर सकता। यूँ समजिये की बस किला नही है। बाकी वही किल्लेबन्ध परंपराएं जीवंत है..!


ठीक है फिर, आज इतनी बाते बहुत है, अभी समय रात्रि के बारह दस होने आए, नींद आ रही है क्योंकि सुबह चार के बाद सोया था, आठ बजे तक जाग गया था, और उसके बाद निंद्रा तो हुई ही नही.. अभी कुछ ऑडियो और सुनने है। उसके पश्चात महादेवी निंद्रा के शरण.. 


शुभरात्रि..

(१२/०२/२०२५, १२:१२)


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2Comments
  1. सामाजिक नियम आज भी संवैधानिक नियमों से आगे हैं !

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    1. वैसे बने भी रहने चाहिए, सामाजिक नियम ही तो हमारी पहचान है।

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