यह लिखने बैठा हूँ तब समय हो रहा है २०:४५..! वैसे आज का दिवस कुल मिलाकर अच्छा, सिख देने वाला लेकिन ख़र्चपूर्ण रहा..! गर्मियां शुरू हो चुकी है अपने यहां। रात को निंद्रा कम आती है। दिनमें ऐसी करना पड़े ऐसी स्थिति हो आई है। होली से पहले ही यह ऋतु बदल गयी है, मतलब इस साल गर्मी शायद ज्यादा रहेगी। ठंड कम थी, तो बारिश भी कम होगी ऐसा माना जाता है। बड़े बुजुर्ग कहा करते थे, जितनी ठंड ज्यादा उतनी बारिश अच्छी..! इस सर्दियों में मुझे याद है, एकाध दिन को छोड़कर कभी भी दिन में जैकेट पहनने की जरूरत नही पड़ी है। खेर, सुबह आठ बजे आंखे खुली, रात में दो तीन बार नींद टूटी थी। ऑफिस के लिए निकला, देखा तो कार कई दिनों से अपनी जगह से हिली नही थी इस लिए निरी धूल चढ़ी थी उस पर। तो ख्याल आया कि ऑफिस जाते हुए इसकी भी वॉशिंग करवा दूँ। वॉशिंग सेंटर पर पहुंचा तो वह बन्द पड़ा था। ऐसे से धूल में सनी कार ऑफिस ले गया। दोपहर तीन बजे तक मैं और सरदार लगे रहे लेबर से माथाफोड़ी करने में।
खेर, अब साढ़े तीन को घर जाकर करूंगा भी क्या, भूख तो मर चुकी थी। सीधे ही मार्किट चला गया। गरीबो का सुपरमार्केट, D Mart..! वैसे यूँ तो अपने शहर में आपको हर ब्रांड की luxurious car देखने को मिल जाएगी। जो ब्रांड कहो वह देखने मिल जाएगी। लेकिन सुपरमार्ट के नाम पर D MART से बड़ा, और बढ़िया मार्किट है नही। यह बात अभी लिखते हुये ख्याल आयी, सच मे अपने यहां यह एक ही सबसे बड़ा सुपरमार्ट है। वैसे बिगबाज़ार भी हुआ करता था, और रिलाइंस सुपरमार्ट, V MART भी है। लेकिन इस D MART के मुकाबले सब छोटे है। तो वैसे भी घर के लिए कुछ राशन पानी लेना था, अब यह इकलौता है, तो यहां भीड़ भी कुछ अधिक ही होती है, रविवार को खास। बाहर ही दो सिक्युरिटी गार्ड खड़े थे, 'पार्किंग फुल' का हाथ मे बेनर लिए हुए। हर सन्डे का यही हाल है यहां। वैसे तो घरवालों ने लंबी लिस्ट दी थी, दाल से लेकर साबुन तक..! सुपरमार्ट अच्छी जगह है। सारी चीजें यही मिल जाती है। लेकिन समस्या एक यह है कि रविवार को बहुत ज्यादा भीड़ होती है, खासकर चार से आठ।
वैसे आज गजब ही अनुभव हुआ वहां भी, मैंने चार पांच हेवी चीजे खरीदकर ट्रॉली में रखी थी, और एक जगह साइड में ट्रॉली को रखकर दो-तीन और चीजे लेने गया, लेकर वापिस आया तो ट्रॉली गायब.. मतलब कुछ भी, लोग इतने कितने आलसी है कि किसी ने इकठ्ठा किया हुआ सामान खुद लेकर चले जाते है। फिर तो मैंने भी किसी और कि ही ट्रॉली उठा ली.. उसका कुछ सामान वहीं कुछ बोरियां पड़ी थी वहां खाली करके। और क्या करता.. फिर से स्टार्टिंग कौन करे? मेरे काम का कुछ सामान उस ट्रॉली में था ही। बड़ी विचित्र चीज है। एक चीज सीखने को मिली कि अपने सामान भरी बाजार में ध्यान रखना कितना जरूरी है..! मुझे तो अभी भी हँसी आ रही है, कि कोई किसी की भरी हुई ट्रॉली कैसे ले जा सकता है। आजकल यह जगह सेटिंग केंद्र भी है ऐसा लगता है। क्योंकि बहुत से लड़के लड़कीं यूँ ही टहलते दिखे थे मुझे। हो सकता है, ताजा ताजा वेलेंटाइन गया है। अच्छा, एक और नई चीज हुई। d mart से बाहर निकलकर ट्रॉली कार तक ले गया था, और बूटस्पेस में भर रहा था सब। तभी एक आदमी आया, गुजराती में 'सराणीया' कहते जो छुरी, चाकू वगेरह में धार लगाते है। सेलिंग स्किल ही थी उसकी। ऊपर से हम अभिमानी लोग पिघल भी बड़े जल्दी जाते है। मेरे पास आकर बोला वो, 'बापु, छुरी लेलो..'
यह भी एक विचित्रता ही है। उसकी नजर कितनी तीक्ष्ण होगी? एक तो वो मुझे देखकर ही पहचान गया 'बापु' है। ऊपर से उसकी सेलिंग स्किल काबिले दाद है। पता नही क्यों लेकिन गुजरात मे राजपूतो की एक छाप बनी हुई है, मारपीट में अव्वल रहने की। पता नही अब यह रक्त के लक्षण है या कुछ और। राजपूत का छोटा बच्चा है तब भी वह किसी पर अत्याचार नही देख सकता, कूद पड़ता है मैदान में, किसी और के झगड़े में भी। अब एक तो हमारी छाप मारने-पीटने वाली, ऊपर से वो मुझे बेच भी चाकू ही रहा है। मन मे मुझे यह भी हो रहा है कि आज भी हमारी छाप कैसी है? और साथ ही साथ उसकी तीक्ष्णदृष्टि के प्रति आश्चर्य भी। मुझे कोई जरूरत नही थी छुरी की। मैंने मना किया। तो बोला 'सुबह से कोई नही ले रहा, आप ले लो, भूख भी लगी है।' उसकी सब्जी काटने वाली छोटी छोटी छुरियां मैं लेकर करूंगा क्या? मैंने फिर से मना किया, तो बोला 'बापु ! सुबह से खाना तक नही खाया, और बड़ी दूर तक गया था, तब भी धंधा नही हुआ है। पचास के तीन ले लो।' अब उसने भूख का नाम लिया तो मैंने खरीद लिए। उसके पास खुले नही दोसो के। मेरे पास अपनी धार निकालने वाली मशीन छोड़कर खुले लेने गया। तब तक मैंने ट्रॉली में से सारा सामान डिग्गी में भर लिया, तब तक वह छुट्टे पैसे भी वापिस ले आया। मैंने तीन छुरी डिग्गी में डालकर ट्रॉली अंदर dmart में रखने चला गया। वापिस आया तब भी वह दूसरों को छुरियां बेचने में ही लगा था। मुझे आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि यहां ज्यादातर लोग dmart से कुछ ब्रांडेड किचन नाइफ लेते है, वहां इसकी छुरियां कौन ही खरीदता होगा। मैंने उसे वापिस बुलाया, और तीन में से दो छुरियां उसे वापिस दे दी.. उसे असमंजस में पड़ा देख मैने ही कहा, अरे पैसे वापिस नही चाहिए, यह भी किसी और को बेच देना। फिर घर लौटते समय ख्याल आया कि वह भूख के नाम पर भी तो धंधा कर लेता होगा। क्या पता?
घर आया तब लगभग छह बज चुके थे। सारा सामान घर मे खाली किया। और कार पर इतनी धूल मिट्टी चढ़ी हुई थी कि देखकर खुदको ही शर्म आये। सुबह तो कोई वाशिंग के लिए मिला नही था तो सोचा चलो बचत के नाम पर आज खुद ही कार धोइ जाए। यहां एक और सबक मिला। अक्सर मैं वाशिंग वालो पर पैसा वसूली के नाम पर उनके काम मे नुख्स निकालता था। ठीक से साफ कर, मेटिंग फुल मैले है, वैक्यूम ठीक से चला डैशबोर्ड के पास, वगेरह वगेरह। आज जब कर खुद कार धोने के लिए मैदान में उतरा तो समझ आया, यह भी कठिन काम है। बार बार कपड़ा गीला करना, पानी मैला हो जाए तो उसे बदलना, कार के टायर साफ करने के लिए झुकते है तो तोंद बीचमे दखल देती है। सहसा अनुभव हुआ कि व्यक्ति को फिट तो रहना चाहिए। समय रहते पेट निकलता रोक लेना चाहिए। उठने बैठने में दिक्कत तो होती है। एक तो गर्मी, ऊपर से कार पोंछु या पसीना, समझ ही न आए। फिर भी एकाध घंटे में अच्छे से साफ कर दी। कहीं भी जरा सी भी मैली नही। वैसे कार से प्रेम हो तो मेहनत जरा भी मेहनत नही लगती। बिल्कुल चमकाने बाद तो हौंसले इतने बुलंद थे कि लगे हाथ बाइक भी पूरी चमका दी। आज तो घर वालो ने भी कहा कि सूर्य को जल चढ़ाते उगा तो पूर्व में ही था लेकिन आज अस्त कहीं और हुआ होगा, वरना शाम का समय इसे मेहनत का काम करते देखना भी अजूबा ही है। खेर मैंने उन्हें भी नजरअंदाज कर हाथ मुंह धोया, और tv देखने बैठ गया।
वैसे आज शाम को भोजन के नाम पर पानीपुरी थी.. हाँ! मात्र पानीपुरी..! मैं ही बाजार से लाया था। पूरियां तैयार पैकेट मिलती है, बाकी आलू चने तो घर पर तैयार कर लिए थे और पानी बनाने वाला पैकेट भी घर पर था। अब सुबह नाश्ते करके घर से निकल था, और सीधे अब भोजन करने बैठा। वो भी पानीपुरी.. भूख के सामने बासी रोटी न छोड़े आदमी, यह तो तब भी पानीपुरी थी..! लगभग दो पूरी के पैकेट में से डेढ़ तो मुझ अकेले के क्षुधातुर जठर ने समा ली अपने भीतर। अरे भूख लगी हो तो फिर तो आने दो, चाहे फट के फ्लावर होना पड़े..
अरे एक और बात अच्छी याद आ गयी, लगे हाथ बता ही देता हूँ। हुआ ऐसा कि गजे ने सोसायटी चंदा इकठ्ठा करना शुरू किया, और मेरे बनाए उस पोस्टर ने भी एक भाई को प्रोत्साहित किया, आज उनका जन्मदिन था तो उन्होंने कुछ डोनेशन दिया। उनके नाम का पोस्टर बनाकर ग्रुप में फारवर्ड कर दिया। पोस्टर ग्रुप्स में फॉरवर्ड वगेरह होता है तो लोगो को थोड़ी वाहवाही मिल जाती है। और थोड़ा दान-दक्षिणा करने का प्रोत्साहन भी। तो जब मैं मार्किट से वापिस आया तो एक पहचान के मित्र जो सोसायटी में ही रहते है, उन्होंने बताया कि आज गजे की लग्नतिथि है। तो मुझे भी विचार आया कि चलो गजे के भी मजे ले लिए जाए। यह ऑफिस वाला गजा नही, मेरी तिकड़ी वाला ओरिजिनल गजा है। मैं, पत्ता, और गजा की तिकड़ी है। trio..! तो लगे हाथ गजे का भी पोस्टर बनाना चाहा। वो बात सच है, अच्छे मित्र होते है उनकी फोटो एक दूसरे के फोन में होती ही नही है। मुझे याद आया, रुपाला विवाद के समय हम लोग विरोध प्रदर्शन के पश्चात पिज़्ज़ा खाने गए थे, तब एक सेल्फी पत्ते ने ली थी, वॉट्सऐप चेक किया। एक ही फ़ोटो उसमे भी गजे का बस चेहरा ही दिख रहा था। काम हो गया अपना। उसके चेहरे को क्रॉप कर के अपने इस आभारविधि के पोस्टर में चिपकाया, और नीचे उसका नाम लिखकर उसकी और से 5001 मिले ऐसा लिखकर फ़ोटो बना ली। गजे को ही वॉट्सऐप की.. सिंगल टिक आया, शाम का समय, अंदाजा लगा लिया कि जरूर मिस्टर एंड मिसिज़ बाहर अच्छी होटल में डिनर के लिए गए होंगे..! फोन मिलाया, और सीधे कहा कि, 'देख तो एक फोटो भेजी है, कुछ सुधारने की जरूरत है या चलेगा और ग्रुप में डाल दूँ?' उसने पूछा 'किसकी है?' लेकिन मैंने प्रत्युत्तर दिए बिना ही फोन काट दिया। और गिनती शुरू की, एक, दो, तीन.. दस होने से पहले ही उसका फोन आ गया। 'पागल है क्या, मरवाएगा मुझे? 5001?' इधर मैने अपनी हँसी पूरी दाबते हुए कहा, 'अरे कम है क्या, माफ करना, डबल लिख देता हूँ, उसमे क्या?' वो तुरंत चीखते हुए बोला, 'बंदर के हाथ मे तलवार दे दी है मैने भी..' तो मैंने भी कह दिया, 'फिर वो पहले सोचना चाहिए था। तुझे तो पता है मुझे कितनी आलस आती है यह सब पोस्टर वगेरह बनाने में, फिर भी तू मेरा आधा-पौना घण्टा इसी में बर्बाद कर देता है। अब जल्दी बता, पैसे कब दे रहा है तो मैं ग्रुप में डाल दूँ यह.."
"अरे मैं नही दे रहा कुछ भी, पागल है क्या? मैरेज एनिवर्सरी के कौन डोनेट करता है। मजे मत ले और अब मुझे काम है, चल रखता हूँ।"
तो मैंने उसके फोन रखने से पहले उसे 'सफरजन' कह दिया और दोनो ही हँस पड़े खूब..!
वैसे सफरजन की भी अच्छी कहानी है, सुनोगे? मेरा मतलब पढोगे? पढ़ ही लो ना, आपके भी काम आएगी, कहीं न कहीं..
अक्सर हमारे यहां लोग विवाहित पुरुष को सफरजन कहते है.. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि, यह मामला क्या है? एक बार यूंही एक दोस्त ने दूसरे दोस्त को सफरजन कहा तो उसने भी स्वीकारते हुए कहा कि 'हूँ मैं सफरजन वो भी स्टिकर वाला..' अरे सफरजन मतलब सेब, एप्पल। सेब को गुजराती में सफरजन कहते है। और स्टिकर वाला सफरजन मतलब वो कुछ एक्सपोर्ट क्वालिटी के सेब होते है उनपर छोटा सा स्टिकर लगा होता है। थोड़े महंगे होते है सामान्य सेब से। तो बात कुछ यूं थी कि एक बार एक राजा को विचार हुआ कि मेरे राज्य में कितने पुरुष ऐसे है जिनकी घर मे चलती है, और पत्नी से पूछना या पत्नी की बात का पालन नही करना पड़ता..! तो उस राजा ने एक बहुत बड़ा आयोजन किया। ढिंढोरा पिटवाया, राज्य के सारे पुरुष राजमहल आएंगे। आ गए सारे पुरुष.. राजा ने सबसे कहा, देखो मुझे एक बात जाननी है कि अपने राज्य में कितने ऐसे पुरुष है जिनकी घर मे चलती है, पत्नी से किसी विषय मे पूछना नही पड़ता। तो जिन पुरुषों की घर मे चलती है उन्हें घोड़ा मिलेगा, और जिनकी अपने घर मे नही चलती वे सामने के टेबल पर से एक सफरजन (सेब) उठा ले। पहले महामंत्री आया, सेब उठाया और अपनी जगह पर बैठ गया। सेनापति आया, सेब उठाया और बैठ गया, एक एक कर सारे पुरुषों ने सेब ही उठाये। राजा परेशान, सोच में पड़ गया, क्या हो गया है मेरे राज्य के पुरुषों को? यूं तो शत्रु की छाती चिर दे, लेकिन घर मे ही उनकी नही चलती। बड़े बड़े लोगो ने भी सेब ही उठाया.. आखिरकार एक आदमी आया, राजा को बोला, 'मेरी चलती है मेरे घर मे।' राजा ने कहा , 'शाबाश, वाह वीर, तू एक ही है जिसने यह कहा, मेरी इच्छाओं पर खरा उतरा।' और राजा ने एक घोड़े को अच्छे से तैयार करवाया, और अपने हाथों से उसे घोड़ा दिया। सभा समाप्त हुई, सब अपने अपने घर आए। वह घोड़े पर बैठा हुआ बाजार में अपनी मूंछो पर ताव देते हुए घर की और लौटा। घर पहुंचा तो अडोस-पड़ोस के लोग इकठ्ठा हुए थे, क्योंकि वह अकेला था पूरे नगर में जिसे घोड़ा मिला। उसके घर पहुंचते ही उसकी पत्नी ने उससे पूछा आज यह घोड़ा कैसे? उसने पूरी बात बताइ, ऐसे ऐसे राजा ने आयोजन किया था, और मेरी अपने घर मे चलती है, तो मुझे यह घोड़ा मिला, और देख इन सब को, सफरजन लेना पड़ा इन्हें।' तभी उसकी पत्नी बोली, 'अरे यह तो बड़ी अच्छी बात है, लेकिन यह काला घोड़ा क्यों ले आए। सफेद ले आते।' और यह वापिस गया राजा के पास। राजा ने पूछा, 'क्या हुआ भाई वापिस क्यों आया?' तो उसने कहा कि, 'उसे काला नही, सफेद घोड़ा चाहिए।' राजा समझ गया, और राजा ने कहा, 'तू एक काम कर घोड़ा इधर बांध दे, और सामने उस टेबल से सफरजन लेकर चला जा।'
मतलब दुनिया मे पुरुष कुछ भी कर ले, घर मे तो उसकी नही ही चलती है। तब से आजतक विवाहित पुरुष के मजे लेने के लिए उसे सफरजन कहकर चिढ़ाया जाता है।
खेर, अभी समय हो रहा है, रात्रि के बारह बजकर दो मिनिट.. अरे, अरे, तीन हो गयी। चलिए, है तो दिलायरी दिनांक १६ की लेकिन लिखते लिखते अभी दिनांक १७ हो गयी..! चलिए फिर, Bonne Nuit…
(१६/०२/२०२५, १२:०४)