प्रियंवदा, आज होली है। होलिकादहन। बचपन के दिन तो याद आ ही जाते है। छोटे थे तब बड़ी उत्कंठा रहती थी होली की। अभी कल परसो ही एक योगनुयोग हुआ, एक बच्चा था वो बड़ा ही सुनमुन सा खड़ा था। तो मेरे पूछने पर उसने बताया कि 'होळी आववानी छे..' तो मैंने पूछा, 'तो क्या हुआ?' तो वो बोला, 'मैं घर कैसे जाऊंगा होळी आ जाएगी तो?' सेम हाल मेरा भी था जब मैं पहली कक्षा में था..! गुजराती में होली को होळी कहते है और नांव को होड़ी बचपन मे दोनो एक सा ही सुनाई पड़ता और कन्फ्यूजन होता था कि होड़ी मतलब नांव अगर शहर में आ जाएगी तो रास्ते सारे बन्ध हो जाएंगे। और नांव भी हमने बचपन मे छोटी देखी नही थी, सीधे ही कार्गो वेसेल्स देखे थे क्योंकि कांडला बचपन मे भी देख चुका था। छोटी उम्र में बड़ा ही टेंसन पाल लिया था कि बात तो सही है, होड़ी आवे छे मतलब नांव अगर शहर में आ गयी तो घर कैसे जाऊंगा.. कितनी फन्नी बात लगती है ना..!
सुबह ऑफिस गया तब घर के पास में ही हर साल की तरह सामने वाले पड़ोसी के लड़के ने एक मोटा लकड़ा चौराहे पर खड़ा कर के आसपास गाय के गोबर के उपले एकदम सजा रखे थे। पिछली होली को रविवार था तो मैं मिल से लकड़ी उठा लाया था, लेकिन आज तो ड्यूटी ओन थी। और वो लड़के ने भी याद नही दिलाया। घुटने भर की होली रही हमारी। वैसे होली बड़ी हो या छोटी उसका कोई महत्व नही है। होलिकादहन से है। ऑफिस पर थोड़ा बहुत काम था, सरदार बीमार हुआ पड़ा घर पर ही आराम किया है पूरे दिन और ऑफिस का बोझ मुझ पर.. वैसे भी होली के कारण काम भी ना के बराबर ही था। वैसे भी इस हफ्ते कोई काम न था उतना। दिनभर गेम खेली है बस। होली का एक रिवाज है, जिस बच्चे की पहली होली हो उसे होली की प्रदक्षिणा कराई जाती है, और रिश्तेदारों को भोजनादि का प्रबंध..! तो एक रिश्तेदार के यहां बच्चे की पहली होली थी, दोपहर को उनके वहां खाना खाने जाना था। एक तो यह कड़क धूप.. चिलचीलाती..! और बच्चे को इस रिवाज पर देने की एक आइटम खरीदने के चक्कर मे आधा शहर नाप लिया था मैंने। लेकिन वो 'हायडा' कहीं न मिला। फिर ऐसे ही चले गए। खाने में पूरी सब्जी थी, वो भी इस धूप में। मैंने बस दो पूरी ही खाई। पता नही अब पुरीयों से ऊब चुका हूं। इतनी नही भाती मुझे। दो बजे वापिस ऑफिस पहुंच गया था।
तभी गजे ने कहा, सरदार तो बीमार है इस बार, वो भी होली के मौके पर। फिर अपनी और से पार्टी का इंतजाम करो। ऐसे सूखी होली में क्या मजा? त्यौहारों के मौके पर बाजार खूब गर्म रहता है। बहुत सी चीजें आउट ऑफ स्टॉक होने लगती है तो दाम भी बढ़ने लगते है। वैसे ढूंढने पर तो सुना है खुदा भी मिल जाता है। शाम को चारों ओर से समाचार आ रहे थे, पुलिसवालों ने खूब कड़क चेकिंग की है। उन्हें भी पता है, प्यासी बहुत है यहां। कोई पकड़ा जाए तो होली सुधर जाए। बहुत से लोग त्यौहारों में पहले से अपनी व्यवस्थाएं बना रखते है। कुछ मेरी तरह एंड मौके पर दौड़ते है। फिर सोचा इतने तामझाम में क्यों पड़े? कल होली खेलकर ऑफिस पर ही जोमैटो से खाना मांगा लेंगे।
तो शाम को जल्दी घर के लिए निकल गया। कल ऑफिस पर ही लंच की व्यवस्था करनी है तो तामझाम तो आज ही करना पड़ेगा। सारा सामान लेकर रख दिया है, अब कल जाकर ऑफिस पर धमाल मचा लेंगे। घर पहुंचा तो कुँवरुभा के आदेशानुसार वो कंधे पर टँग जाए ऐसी बेग वाली पिचकारी लेकर ही गया था। और पहली पिचकारी लगी सीधे टीवी पर.. बच गयी, टीवी और मेरी जेब..!
शाम लगभग साढ़े सात आठ बजे तक मे होलिकादहन हो चुका था। एक समय पर होलिकादहन के बाद जब होली की अग्नि शांत हो जाए तब उसमें होमे गए नारियल हम निकालते थे, वह अग्नि की आंच में सिका हुआ नारियल का स्वाद भी खूब बढ़िया लगता था। अंगारों के ताप के बीच से ऐसे ही हाथ डालकर एक नारियल निकालने का, फिर कोई पत्थर पर पटकते ही वो खुल जाता। उसके जले हुए छिलके का भी स्वाद पता चलता है। वैसे आज से आधिकारिक गर्मियों की शुरुआत भी मानी जाती है। बचपन से अपने यहां तो होली के दिन से ही वॉटरहिटरो का बेचारों का महात्म्य ही खत्म हो जाता है। सर्दियों के महीनों में इतना साथ देने वाले वे सरिए से लेकर गीजर तक आने वाले आठ महीने बे फ़िजूल में निरुपयोगी पड़े रहते है।
ठीक है, आज इतनी बाते बहुत है।
शुभरात्रि..!
(१३/०३/२०२५, २२:५०)
एक उम्र के बाद oily चीज़ें कम ही भाती हैं! फिर भी त्योहारों में जम कर पकवान ना खाए तो त्योहार अधूरे ही जान पड़ते हैं।
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