प्रियंवदा, दुनिया ढोंग में मानती है, बहुत मानती है। ढोंग आसान तो नहीं है। लेकिन हर कोई कभी न कभी जरूर करता है। वैसे यह दिलायरी है.. कल पूरा दिन तथा आज भी दिनभर समय नहीं मिला.. अभी समय हो रहा है सवा आठ। खेर, यह दिलायरी है शुक्रवार की, वैसे शुरुआत होती है गुरुवार की रात से ही.. लेकिन अंग्रेजी कैलेंडर के समयानुसार रात बारह से तारीख तो बदल ही जाती है, तो दिनांक है २८ फरवरी.. रात करीब एक बजे मैं कार लेकर निकल गया था.. वही रास्ता जो हर बार मैं लेता हूँ जामनगर जाने के लिए। कच्छ से बाहर निकलते ही सूरजबारी, और सीधा मोरबी..! लगभग तीन बजे मैं मोरबी पार कर चूका था। रात का समय था, इसी लिए सूरजबारी भी खाली पड़ा था, वरना बहुत ज्यादा समय यह ब्रिज ही खा जाता है। लगभग तीन बजे तो मोरबी था।
माळीया ऑनेस्ट तो खुली थी, लेकिन इस बार मैं रुका नहीं था। सीधे ही स्टॉप लिया मोरबी बाय-पास पर एक TEAPOST खुली हुई थी। लगभग पंद्रह मिनिट का स्टॉप लेकर निकला ही था, कि रात्रियात्रा की शत्रु धुंध प्रकट हो गयी..! धुंध की लेयर्स थी..! मतलब चार फिट आगे का भी कुछ न दिखे..! पहली बार ड्राइविंग करते हुए धुंध से सामना हुआ था मेरा। थोड़ी देर में धुंध ही धुंध छा जाए, और थोड़ी देर में साफ़ रोड..! लेकिन चलता रहा, रुका नहीं मैं। रास्ता बहुत बढ़िया है। और अपने यहाँ रात का सफर भयजनक भी नहीं है। दयानन्द सरस्वती के जन्मस्थल टंकारा से रोड मूड जाता है जामनगर के लिए.. लतीपर ध्रोल होते हुए। टंकारा तक तो फोरलेन रोड था, कोई हाईबीम-लो-बीम का चक्कर ही न था। लेकिन यह टंकारा से ध्रोल तक का सिंगल लेन है। बिच में डिवाइडर नहीं है। सामने से कोई कार आ रही है तो आपको भी अपनी हेडलाइट्स लो बीम करनी है, और सामने वाले को भी डिप्पर मार मार कर लो करवानी है।
नींद तो जरा भी नहीं आयी, क्योंकि पहली बार रात्रि-ड्राइविंग करने को उत्सुक था मैं। कार में पीछे लोग सो गए थे। हुकुम को कहा कि 'आप भी एक झपकी ले लो।' लेकिन वे नहीं मानते। वे सो जाते तो रातभर खाली मुंह नहीं चलता। वो क्या है एक गन्दी आदत पाल ली है, रजनीगंधा चबाने की। मतलब न तो पूरा व्यसन है, न ही पूरी छोड़ सकता हूँ। मुंह चलते रहना चाहिए। फिर कुछ देर लतीपर पार करने के बाद भी धुंध मिली.. बढ़िया काम हुआ, एक तो सिंगल लेन रास्ता ऊपर से धुंध भी.. आधा किलोमीटर बिलकुल स्लो चला.. लेकिन फिर साफ़ हो गया। फिर तो ध्रोल कब पार हुआ, कब जामनगर बाईपास पर चढ़ा वो भी नॉनस्टॉप..! अब तो हुकुम ही बोले की कहीं तो रोक तेरे इस डिब्बे को..! मैं भी आश्चर्य में था कि वे भी जाग ही रहे थे। क्योंकि बात तो हुई ही न थी इस बिच, मैं लगातार गाने सुन रहा था, और कार दौड़ाये जा रहा था।
क्योंकि ध्रोल के बाद ओखा-द्वारिका वाला नेशनल हाइवे आ जाता है, और बहुत बढ़िया रोड है। रात में, क्योंकि दिन में तो लोकल ट्रैफिक बहुत ज्यादा होता है, वो भी गाँवों वाला..! कोई ट्रेक्टर लेकर जाता है, कोई अपना गोधन लेकर..! कार रोकी नहीं मैंने, लगभग खंभालिया पार करके एक हाइवे साइड रेस्टोरेंट खुला हुआ था। टॉयलेट्स वगैरह थे। रोक ली, और कुछ नाश्ता वगैरह भी हो जाए। सुबह सुबह गुजरात में कहीं भी चले जाओ, गांठिया ही मिलता है। जो मुझे पसंद नहीं आता उतना। हुकुम को बड़े पसंद है। उन्होंने तो दो सो ग्राम का ऑर्डर दे भी दिया था। मैंने कुछ चुग लिए उनमे से ही। और एक बढ़िया चाय.. कड़क। अब कुछ चालीस किलोमीटर ही और आगे जाना था। निधन के काम में जाते है तो दोपहर तक की अपनी सारी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। अब जिनके यहाँ निधन हुआ है वहां पहुंचकर नाश्ते के लिए तो नहीं बोल सकते..! अब जो रोड था वो था केवल तिस की स्पीड पर चलाने का। गाँव साइड का रोड, जमीन से कुछ चारेक फिट ऊँचा, और अगर सामने से ट्रक आ जाए तो पहले किसी साइड गेप ढूंढो और पहले ही रुक जाओ, क्योंकि एक ट्रक ही निकल पाए उतनी ही सड़क। दो वाहन आमने-सामने से निकल तो सके लेकिन दोनों ही रोड से कुछ उतर कर। यहाँ भी बढ़िया खेला हुआ। एक तो दुबली सड़क, और उसका साथ देने प्रकट हुई धुंध..!
कुछ ज्यादा ही यह धुंध थी, और घुमावदार रास्ते, वो भी जमीन से चार फिट ऊँचे... मतलब कार पलटवाने का पूरा इंतजाम है। उजियारा तो निकल आया था, लेकिन धुंध के कारण धीरे ही चलना पड़ा। साढ़े सात को पहुँच गया था। बड़ी उम्र के व्यक्ति के निधन पर उतना शोक हम प्रकट नहीं करते। लेकिन महिलाऐं चीखती-बिलखती है। यह रिवाज है। हमारे पहुंचते ही महिलाऐं लगी दहाड़ने... बड़ी जोर जोर से ढोंग करती है। वरना पता उन्हें भी होता है कि आँख से आंसू तो एक भी नहीं आ रहा है। लेकिन मुंह पर पल्लू ओढ़के खूब चिल्लाती है। इसी लिए शुरुआत में मैंने कहा था कि दुनिया ढोंग पर चलती है। शोकसभा में कुछ देर बैठने के बाद उनके घर चले गए हम। नाश्ते की व्यवस्था थी। मेरा अच्छा काम हो गया। मुझे सुबह सुबह नाश्ता ढंग का चाहिए होता है। गांठिया-बांठिया मेरे काम का नहीं। नाश्ता करके लगभग एकाध घंटे की नींद खिंच ली मैंने। लेकिन फिर दूसरे मेहमानो के साथ हुकुम बाते कर रहे थे तो मेरी आँख खुल गयी, और फिर नींद आयी ही नहीं। दोपहर तक विधियाँ चलती रही। स्वर्ग तक पहुँचने के लिए फानूस, सोने के लिए खटिया, गद्दा - तकिया, और कुछ बर्तन वगैरह मृतात्मा को चाहिए होते है ऐसा भूदेव कहते है। तो उन्हें दिया जाता है। दोपहर को भोजन करके तुरंत गाडी गाँव के बाहर... क्या करे भाई। वैसे भी ऐसे कामो में रात रुकते नहीं, और मुझे नौकरी भी करनी थी.. क्या करे, सरदार को मेरे बिना चलता नहीं।
लगभग दोपहर ढाई बजे से पहले ही निकल गए थे। वही खंभालिया होते हुए जामनगर, लेकिन ट्राफीक न हो दिनमे ऐसा हो सकता है क्या? जहाँ रात को स्टॉप ही नहीं लिया था। वहीँ जामनगर पहुँचते ही एक स्टॉप ले लिया। चाय गले से उतरी और फिर गाडी दौड़ने लगी सड़क पर। वापिस घर की ओर। इसबार अलग रास्ता लिया, बालाचडी होते हुए जोडिया, और फिर सीधा माळिया। बालाचडी वही है, जब विश्वयुद्ध के समय पोलेंड के बच्चो को जामनगर के जामसाहब ने शरण दिया था। आज भी पोलेंड के वॉरसॉ में जामसाहब की याद में मूर्ति और बगीचा बना हुआ है। बालाचडी में उन्होंने उन पोलिश बच्चो के लिए स्कुल तथा रहने की व्यवस्था करवाई थी। आज वहां सैनिक स्कुल है। वहां से जोडिया, और फिर भद्रा तक बड़ी ही खराब सड़क है। खराब मतलब गढ्ढे में सड़क बनी है। सरदर्द कर जाए अच्छे-अच्छो का। एक तो मैं सोया नहीं था, ऊपर से इस सड़क ने सारी नींद उड़ा दी। खेर, भद्रा से तो फिर वो भारतमाला रोड आ जाता है, पिपलीया चौकड़ी तक। भारतमाला बहुत बढ़िया रोड है। जामनगर से अमृतसर को जोड़ता है। पूरा अभी तक नहीं बना है, लेकिन जितना बना है दिलखुश कर देता है। RCC रोड के बिच बने डिवाइडर में सुंदर से लाल बोगेनवेलिया पुरे खिले हुए है। पिपलिया से माळीया तो बीसेक किलोमीटर है, वहां रोड का काम चालु है, तो सिंगल लेन रोड है।
माळीया पहुँचते ही अन्धेरा हो गया था तो ऑनेस्ट में स्टॉप ले लिया, करीब आधे घंटे का। चीज़-सेंडविच और ऊपर कड़क चाय..! और फिर तो दौड़ा दी, लगभग नौ बजे घर..! सफेद कपडे अभी तक उतने मैले नहीं हुए थे जितने सोचे थे। नींद तो बहुत ज्यादा आ रही थी। फिर भी दूकान पर तो गया ही। क्या करे, आदत वो आदत..!
खेर, शुभरात्रि..!
(२८/०२/२०२५)