प्रातः से प्रारम्भ करते है..
समय हो रहा है सायंकाल के सात। प्रतिदिन की भाँती पुनः एक बार मैं दिलायरी लिखने कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने कीबोर्ड पर अंगुलियां पटकने को तत्पर हुआ हूँ। लेकिन मेरा मष्तिष्क सदा के समान खाली है। कहाँ से शुरू किया जाए? क्या भावनाए व्यक्त की जाए, कुछ भी ज्ञात नहीं है इस समय। चलिए फिर प्रातः से प्रारम्भ करते है, क्या पता लिखते लिखते कोई बात रास्ता काट जाए और अपना काम हो जाए..!
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Ishq aur Dilawarsinh.. |
प्रातः सवा सात को ही आँखे खुली नहीं थी, जबरजस्ती किसी के द्वारा खुलवाई गयी थी। वो क्या है कि अपन जरा अपने आप उठ नहीं पाते है। किसी को जिम्मेदारी सौंप रखी है। तो वही नित्यक्रम से निवृत होकर चला आया अपने कार्यालय। दोपहर तक की यात्रा में तो काम ने साथ दिया। लेकिन दोपहर बाद तो बस दिन काटना था आज..! कार्यालय पहुंचकर कल की दिलायरी की लिंक स्नेही को सप्रेम भेजी। कुछ लोगो पर गले तक विश्वास बैठ जाता है। स्नेही उनमे से एक है। किसी और का प्रत्युत्तर आए न आए, स्नेही इस प्रसंग में सच्चा-झूठा जो भी लगे मुंहतोड़ बात बता देता है। आखिरकार दोपहर भी हुई। कड़क धुप.. बाहर कहीं जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पड़े रहे उसी तरह जैसे भैंसा पानी में पड़ा रहता है।
दोपहर को विस्मृत हो गया..
सवेरे याद था कि मुझे वह हिंदी अनुवाद पूरा करना है। लेकिन दोपहर को विस्मृत हो गया। बस, दूरभाषयंत्र में इंस्टाग्राम तथा यूट्यूब में रील्स तथा शॉर्ट्स देखता रहा। और क्या ही किया जाए खाली समय में? दिवार पर टकटकी लेती घड़ी में जब बड़ी सुई बारह और छोटी वाली चार पर पहुंची तो स्वतः याद आया, अनुवाद पूरा कर लेना चाहिए। लगे दिलावरसिंह दिल लगाकर गुजराती का हिंदी करने..! बड़ा कठिन काम है, खासकर परंपरा से जुड़े शब्दों को व्याख्यायित करने में। क्योंकि कुछ प्रान्तिक शब्द होते है, जो बाहर नहीं जाते। उन्हें एक क्षेत्र का बंधन लगता है। जैसे गुजराती का शब्द है, 'मगबाफणा'.. बहुत से गुजराती को ही नहीं पता होगा। मगबाफणा यानी की जलाने में उपयोगी लकड़ी, भोजन पकाने हेतु लायी गयी लकड़ी। शाब्दिक अर्थ करूँ तो मग यानी मूंग, बाफणा यानी जिसके द्वारा बाफा (बाफा का हिंदी नहीं पता, अंग्रेजी में कहूं तो बॉईल किया) जाए..! मूंग को उबालने के लिए अग्नि चाहिए, अग्नि के लिए लकड़ी, इस लिए 'मगबाफणा'। हैं न रोचक। बहुत सारे ऐसे क्षेत्रीय शब्द होते है जो उस क्षेत्र से थोड़े से दूर जाने पर भी बदल जाते है। तो जिस लेख का अनुवाद कर रहा था, उसमे कई सारे क्षेत्रीय शब्द थे, और मेरी ऊर्जा को अस्त करने को सक्षम थे।
लो जी घंटी बजी फोन की.. सुचना आयी है..
लेकिन हो गया, कल सुबह दस बजे अपने आप यहीं पर प्रकाशित (पब्लिश) हो जाएगा। अब और क्या बताऊं? क्या.. क्या.. क्या.. नहीं सूझ रहा.. लो जी घंटी बजी फोन की.. सुचना आयी है, yq से.. 'इज़हारे इश्क़ पर दो पंक्तियाँ लिखे..! यहाँ दिलायरी के लिए दिमाग सुन्न पड़ा है और वो भाईसाहब yq पर पधारने को कह रहे है। लो फिर एक विचार आया है, बता देता हूँ। बोलो बरसात.. नहीं नहीं, इरशाद, इरशाद..
'मय और इज़हार-ए-इश्क़, एक से है अनंत,
जुबां बड़ी जल्द ही लड़खड़ाने लगती है...!'
बोलो वाह.. वाह..!! वाह वाह.. क्या बेडवेपन से भरी पंक्तियाँ है.. देखो बेवडापन भी ठीक से नहीं लिखा गया है। गजब ही है, मदिरा की बात मात्र से ही शब्द डगमगाने लगे..! वैसे कल न्यौता था, बैठकी का.. लेकिन मैं, मेरे मुख से तुरंत मना निकली। आलस नाम की एक भावना है, मुझे बड़ी प्रिय है। पूर्णतः उसे समर्पित तथा परम प्रशंसक हूँ मैं उसका। तो स्नेहिमित्रो.. अब समय हो चूका है सात बजकर सेंतीस मिनिट.. और आलस की आराधना करने को मन उत्सुक होता जा रहा है।
बस इसी कारणवश, आज की दिलायरी को यहीं अस्तु कहते हुए, शुभरात्रि..!
(२२/०३/२०२५, १९:३८)
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