कविता का लांछन || खेतसी-केसरबा || KHETSHI - KESARBAA || - BHAGUBHAI ROHADIYA || Scandal of the poem ||

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"खेतसी-केसरबा"


वाघेला री व्रात,आवी सरोवर उतरी ;
छोगाळो कळ छात्र, खेले घोडा खेतसी ;

सरधार के गोधाजी वाघेला का वेलडा जा रहा था तब कुंदणी गाँव के तालाब के पास पड़ाव डाला। तब वहां रसिक तथा रूपवान कुंदणी का ठाकुर खेतसी अपने अश्व के साथ निकला था।

खेतल सर मोळीयु खस्यु, काळा छुट्या केश ;
कडतल रुं तन ढंकियु, चंदण लपट्या शेष ;

अश्व की तेज गति के कारन झाला राजा के सर से मोड गिर गया, काले लंबे घने केश छूटकर ज्यूँ शेषनाग चन्दन के वृक्ष लिपटाए त्यों ही झाला खेतसी के श्वेत तन से लिपट गए।

भीम सुता नजरू भरी, नरख्या झाल नरेश ;
रायजादी दल रिझिया, कडतल रा जोई केश ;

भडली नरेश भीमजी की राजकन्या ने आँखे भर भर कर झाला राजा को निहारा। और वह रायजादी* खेतसी के लंबे शिरकेश पर मोहित हो चली।

कागद मां लखियुं कियु, सुण झाला सरताण ;
छुं कुँवारी छत्रपति, मने वरो मकवाण ;

केशरबा रायजादी* ए वडारण (दासी) के साथ कागज भेजा : "झाला राजन, मेरी बात सुनो, मैं अविवाहित हूँ, आप ही मुझे वर लो।"

अमिं वडारण मोकली, रूप जोई झलराण ;
कागद जोई भज करो, मूंछा सर मकवाण ;

झाला नरेश, आपका रूप देखकर मैं रीझि हूँ, इसी कारणवश मैंने दासी को आपके पास भेजा है। तो यह पत्र पढ़कर आप अपनी मूंछ पर हाथ रखो, और मर्दो की तरह मुझे स्वीकार करो।

आवी वडारण झल आगळे, बोली ऐड़ा बेण ;
वरे न मोरी बेन वाघेल ने, मर गोधो गाळे नेण ;

दासी ने खेतसी को आकर कहा, 'हमारी राजकुमारी वाघेला से नहीं ब्याहेगी, भले ही गोधाजी राह देखता हुआ आँखों के नूर गंवा दे।'

पटां सर झाला पत रखो, नाखो हाथ नरेश ;
करवी वार कामण तणी, तद सही नमावा देश ;

झालाओ के नाथ ! अब तलवार की मूठ पर हाथ रखो, नारी की सहायता हेतु प्रस्थान करना तो समस्त धरती जीतने बड़ा पराक्रम माना जाता है।

कडतल आगे दासी कहे, सुण दूल्हा सरदार ;
घाट सरवैयाणी रो घड़ी, कर धोया किरतार ;

पुनः दासी खेतसी झाला को कहती है : 'वरराजा के भी वरराजा ऐसे आप मेरी बात सुनिए, सरवैयाणी* केशरबा को इस संसार में बनाके भगवानने अपने हाथ ही धो लिए थे। अर्थात उनसे अधिक रुपसुंदरी इस संसार में और कोई है नहीं।'

अधर प्रवाळा आखीए, दाड़िम कळिंयाँ दंत ;
सग दीपक नासा सही, कमळ नेत्र कहंत ;

वह राजकुमारी के होंठ परवाला समान लाल है, दंतपंक्ति दाड़िम के दाने समान है, नाशिका दीपशिखा सी है, और उनके नेत्रों को कमल की उपमा योग्य बैठती है। 

(* सरवैया, चुडासमा तथा रायजादा तीनो ही जूनागढ़ के रा'वंश से निकले है, जो मूल वंश चुडासमा है, और सरवैया तथा रायजादा शाखा है। इसी कारण से कवि ने केसरबा को कई जगह रायजादा भी लिखा है, तो कई जगह सरवैया।)

चंद वदन वाणी सुधा, उपमा रूप अनंत ;
कनक लता सी कीजिए, भीम सुता शोभन्त ;

उनका मुख चाँद सरीखा है, उनकी वाणी अमृत समान है। जिनके रूप की उपमाओ का कोई अंत ही नहीं है। वे भीमसिंह रायजादा की कुमारी को स्वर्णवल्लरी सरीखी ही कही जाए।

भाई भड़ा भेजा करी, पूछे नृप परियाण ;
काम वचारी कीजिए, सर्व मळी सजांण ;

तब राजा खेतसी ने अपने भाई-सुभटों को इकठ्ठा करके पूरी बात कही, सलाह पूछी, 'आप सब सोचकर बताइए अब मुझे क्या करना चाहिए?'

परियाणी जाम्बुपति, भणे एम मख भाई ;
खत्रियाँ तलक झल खेतसी, बाधो खाग बड़ाई ;

तब भाईओने ललकारा, 'क्षत्रियो की शोभारूप जाम्बुनाथ झाला खेतसी, अब तो तलवार बांध कर गौरव ग्रहो, सरवैयाणी से विवाह हेतु प्रस्थान करो।

खंडपत के यह खेतसी, झाझुं करवुं झेर ;
वण जोतु वोरवु, वाघेला हंदु वेर ! ;

तब ठाकोर खेतसी ने अपने भाईओ को पूछा, 'आपस आपस में ही इतना वेर बढ़ाना? जिसकी जरूरत नहीं है वैसा वाघेलाओं के साथ वेर लेना ठीक होगा ?'

वाघेला दळ वाढशां, सण झालापत सांम ;
खागे थी जश खाटशां, नव खंड रहशे नाम ;

भाइओ ने जवाब देते कहा, 'झालाओ के धनि सुनो, हम वाघेलाओ की फ़ौज को काट डालेंगे, तलवार से कीर्ति प्राप्त करेंगे। हमारा नाम नवखण्ड धरती में अमर हो जाएगा।'

वरो राणी भूपत वड़ा, सवेली सरताण ;
पत झाला जगण परा, वार रे'शे मकवाण ;

इस लिए हे मोटा राजा मकवाणा खेतसी ! आप सरधार के वाघेला बादशाह को ब्याही गयी, इस राजकन्या से विवाह कर लो। हमारे इस पराक्रम की बात इस जगत पर शाश्वत रहेगी।

कड़तल भज मुछे करो, देशपत के सरदार ;
जा जा वडारण जोख सूं, वरशुं ते अणवार ;

पुनः भाईओ ने कहा, 'कडतल (हाथ का पंजा) के बिरुदधारी झाला राजा, अब तो मर्दो की तरह मुछ पर हाथ डालो।' तब खेतसी ने मुछो को ताव देते दासी को कहा, 'तू सरवैयाणी के पास पहुँच, मैं आज ही उनसे विवाह करूँगा।'

गई वडारण जोख सु, वध वध करे वखाण ;
अणकळ खत्रवट आभरण, मद छकियल  मकवाण ;

तब दासी वट में ही सरवैयाणी के पास लौटी, और बढ़ा चढ़ा कर बखानने लगी, 'बा, वह झाला राजा वीरता के गर्व से छका हुआ है, किसी के तोड़े नहीं टूटेगा। रजवट के अभंग आभूषण समान है।'

वडारण मुख से यूँ वदे, सुण सुण बाई सजाण ;
उमियापति ए आपियो, तने रीझि ने खेतल राण ;

दासी ने पुनः कहा : 'चतुर सुजान बाई सुनो, भगवन शिव ने ही आप पर प्रसन्न होकर खेतसी झाला आपको पतिस्वरूप में दिया है।'

सखी वचन कन साम्भळी, आणी रीझ अपार ;
सरवैयाणी ए ते समे, हेते बगस्यो हार ;

सहेली की अमृत समान वाणी अपने कानो से सुनकर सरवैयाणी केशरबा ने स्नेहसे अपने गले का हार उसे बक्षिस किया।

***

सौलंक वात सांभळी, रूठ्यो चालक* राव ;
कुंदणी गढ़ कांगरे, दजडे खेलूं दाव ;

वह वाघेला राजा अपनी होने वाली रानी को कुंदणी का झाला ब्याह गया की खबर सुनते ही कोपायमान हुआ। और बोला, मैं कुंदणी गढ़ के कांगरो यानी कि गढ़ की रांग पर तलवार के दाव खेलूंगा। (* इस दोहे में वाघेला को सोलंकी और चालकराव कहा है, क्योंकि वाघेला और सोलंकी की उत्पत्ति एक ही है। सोलंकी और वाघेला एक ही वृक्ष की दो शाखा है। सोलंकीओ को चौलुक्य भी कहा जाता था।)

वाघेल मुख थी यूँ वदे, भूप सोलंक कळभांण ;
घसू खागे झालावाड़ धरा, तो पटा पाघ परमाण ;

अपने कुल के सूर्यरूप वाघेला राजन ने कहा, 'अगर मैं तलवार से झालाओ की धरती घीसू - उज्जड कर दूँ, तो ही आप सब मेरे कमर पर बंधी तलवार और सर पर बंधी पगड़ी को सार्थक समझना।'

छंद : कुण्डलिया 

साअ धण के कंथ आसमे, कियुं मान सोलंक,
खेता झल ने खेडवु, राणोना काइ रंक,
पहु रंक नथी झलवाड पति,
अणभंग अपार जोधार अति,
तरवार बहादर नाग तणो,
ए फण कहे कंथ वात सणो..

तब वाघेला की रानियां कहने लगी, 'स्वामी अभी हमारा कहना मानो, खेतसी झाला से युद्ध करना है पर वह झालावाड़ का नाथ कोई बेचारा-बापड़ा नहीं है। वह नागजी का पुत्र किसी से तोड़े नहीं टूटता। वह महा पटाधर योद्धा और पार न पा सके ऐसा वीर पुरुष है। इस लिए नाथ मेरी बात सुनो :

तरीआ जे रंक तणी, कामण लहे न कोय,
गढ़पतरा ग्रह ऊपरे, साले करी ते जोय,
जोय करी तेय वात झले,
शात्रां चंत ऊपरे य झाळ चले,
खड़ी खड़ी कहूं छुं य तुज धणी,
तरीआ ज न लेवाय रंक तणी.. 

रंक की नारी को कोई विरनर ग्रहण करता ही नहीं है। राजाओ के घर पर हाथ मारने की बात आपके हृदय को काटती है आपने देखा ना? उसका यह कर्म शत्रु के चित्त को जलाता है। इसी कारणवश नाथ ! मैं आपके सामने खड़ी होकर कहती हूँ कि जो वास्तव में वीरपुरुष है उसके हाथ से रामपात्र छीनने जैसा बेचारी-बापड़ी कन्या लेने काम होता ही नहीं है। मर्द ही मर्द के सामने मस्तक उठाता है। 

गडो नगारा जंग का, त्रोवो धर झलवाड,
खेता झलथी खेलशुं, रुक झड़ाके राड़,
राड़ मचावुय रुक झटां,
खत्रवाट खेली करूँ खळ खटां,
धण साथ लीओ वळी जोध घणुं,
धरावोय नगारा जंग तणुं.. 

रानी की बात को अनसुना करते गोधाजी का हुक्म छूटा, 'मेरे साथियो, रण नोबत पर धूँसा दो, झालावाड़ की धरती पर चढ़ो। वहां हम झाला खेतसी के साथ तलवार के झटको से रण जंग खेलेंगे। मैं गोधाजी तलवार बिँझकर घमसान मचाऊंगा। क्षत्रियवट का खेल खेलकर वेरीओ के दांत तोडूंगा। युद्ध घोष करवा दो साथियो। युद्ध के त्रंबाळु ढोल बजवाओ।

धीमा धीमा ठकुरां, धीमा नगारे घाव,
धीमा धीमा दळ सजो, धीमा सोलंक राव,
घोर नगारेय ठोर पड़े,
झलराण आगे अतृ झाळ झड़े,
हेदळ कापण भोज हरो,
धीमाय ठाकर पाव धरो.. 

तब गुण ग्राहक तथा वीरता की कदर करनेवाली गोधाजी की रानी, गोधाजी तथा उनके सुभटों को कहती है, 'है ठाकुरो ! आप उतावले मत हो। धीरे हो जाओ, आपके नगाड़े धीरे बजाओ, धीमा पड़कर आपका सैन्य सजाओ। वाघेलाओ के धणी, आप भी धीरज धरिए। जिसके युद्ध की नोबते हमेशा भयावह नाद से गूंजती रहती है, जिसके आगे सतत तलवार की धाररूपी ज्वालाएं प्रज्वलित रहती है। ऐसे भोजराज झाला का पौत्र-वंशज, खेतसी शत्रुओ के अश्वदल को तृणवत काट देता है। इस लिए हे ठाकुरो, आप उस विरनर के सामने धीरे धीरे कदम भरो। जल्दबाजी मत करो।'

गोधाजी बिना किसी जल्दबाजी के आराम से युद्ध की तैयारियां कर रहा है तब उसके हेतुमित्र उसे कहते है :

दुहा 
कडतल थी वेर करी, ऊंघ छ केम अचेत ?
अचानक झल आवशे, चालाक दळ थी चेत ;

हे वाघेला ! झाला खेतसी से वेर करके इस तरह गाफिल की भांति आराम से क्यों सो रहे हो? कभी अचानक झाला चढ़ आएगा। इस लिए आप सावध रहो।

तब गोधाजी ने कासद (संदेशवाहक) भेजकर खेताजी को कहलवाया कि :

झाला तूं झुड़ी गियो, सवेलुं सरतान ;
भामण जे भाथी तणी, माणीश केम मकवान ?;

अरे झाला ! तू मेरी वाघेला बादशाह की रानी को ले गया है। अब तू मेरे जैसे महावीर की नारी के साथ सुख से कैसे रह पाएगा? 

भूप खेते एम भाखियु, सुण गोधा गेमार ;
होय न हाडक रिडिए, सावज रो जरकार ;

झाला खेतसी ने प्रत्युत्तर में कहा : 'मुर्ख गोधाजी सुन, जैसे हड्डियों के लिए लड़ने में सिंह को रस नहीं होता है, लेकिन हाथी का ताज़ा मांस खाने में होता है। इसी तरह मैंने भी जैसे तैसे की ब्याही नहीं उठाई है, मैं तो तुज जैसे राजा के घर पर घाव करने वाला व्यक्ति हूँ।'

वाघेला नृप बोलियो, सुण झाला सरताण ;
आप समा जो आवशां, माने तू मकवाण ;

तब गोधाजी ने कहलवाया कि मैं अपने समयानुसार तुझ पर सैन्य लेकर आऊंगा। यह बात तू गाँठ बांधकर रखना।

झाला संग्राम का भी रसिया था, उसने सामने से ही त्वरा दिखाई।

कडतल खेतो यूँ बोलियो, गोधा सुण गेमार ;
खत्रवट रा ध्रम खेलवा, कर ग्रहजे करमाळ ;

अरे गोधाजी ! क्षत्रिय का धर्म बजाने को हाथ में तलवार उठा।

वाघेलो यूँ बोलियो, झाल म करजे जोर ;
बळिया तू आवजे, भाण उगंते भोर ;

गोधाजी ने भी कह दिया, 'झाला अब तू जोर मत दिखा, हे बलवान राजपूत, तू कल सूर्योदय होते ही रणक्षेत्र में आजा, मैं भी आ रहा हूँ।'

वाघेला सण झल बोलियो, कडतल एम कथन ;
शूरा दल पोरस चडे, माठा हटके मन ;

झाला ने प्रत्युत्तर में कहा, 'वाघेला सुन, युद्ध की बात से तो शूरवीरो के हृदय में पौरुषता का ज्वार उठता है। और कायरो का जी घबराने लगता है।'

और फिर तो दोनों पक्षों ने युद्ध का आनंद लिया। वाघेला तथा झाला शस्त्र चलाने लगे। कैसा था वह युद्ध? खेताजी की तलवार कैसी चली? तो... 

खेता वाळी खाग, सर पडो सूबा तणे ;
नर बगतर कट नाग, धर खूंती जांबु धणी ;

ओ जांबुनाथ खेतसी ! तेरी तलवार वेरी के सिरदारो पर ऐसी पड़ी कि पुरुष, बख्तर, और अश्व को काटते हुए धरती में खूप गयी। 

तें नींझोटी नाग तणा, केवी सर करमाळ ;
वंचि गई विआळ, खूंती कोरंभ सर खेतसी ;

हे नागजी के पुत्र खेताजी, तूने शत्रुओ के सर पर इतने बल से तलवार मारी कि एक ही घाव में वेरी के अश्व समेत काटती हुई, धरती चीरती हुई, शेषनाग को भी पार करके तेरी तलवार कच्छप के सर पर खूपी।

खळ दळ कापे खेतसी, माथा वण मकवाण ;
भड़ली लगन कळभाण, धड़ लड्यू जांबुधणी ;

उस मकवाणा खेतसीने शत्रुसेना का अपने सर के बिना ही संहार किया। इस तरह गोधाजी के भड़ली विवाह में हे झाला कुल के सूर्य रूपी जांबुनाथ ! तेरा धड़ विघ्न कर गया।

सरदारो सुवे नई, सख करी सरताण ;
मेडी लग मकवाण, धड़ लड्यू जांबुधणी ;

झाला खेतसी, तेरी वीरता की धाक शत्रु पर ऐसी बैठ गयी है कि गोधाजी और उनके सैन्य सरदार सुख की निंद्रा ले नहीं पाते। स्वप्नमे तुझे देखकर डर के जाग जाते है। इस तरह है जांबुधणी तेरा धड़ उनकी मेडी (शयनगृह) तक लड़ा। 

गोधो गा थई उगर्यो, लजि लजि तरणा लेय ;
मकवाणा तें अरि सरि, मे खागी मचवी खेतसी ;

गोधाजी ने आबरू गंवाकर, मुख में तृण लेकर अपना जिव बचाया। (युद्ध में हारा हुआ, हार स्वीकारते समय अपने मुख में तृण यानी घास रखता है।) इस तरह ओ मकवाणा खेतसी तूने शत्रु ओ के सर पर तलवार की झड़ी बरसाई है।

*****

'कथानक '

यह एक ऐतिहासिक कथागीत था। हमारे यहाँ इतिहास की बाते दो तरह से दर्ज है। एक है लिखित स्वरुप में, दूसरी है कर्णोपकर्ण कहा गया कंठस्थ साहित्य। यह कंठस्थ साहित्य वो बाते हुई जो लोग याद रख लेते थे, लेकिन समयकाल के चलते वह बात अपने मूल स्वरुप से थोड़ी सी बदल जाती थी। जैसे किसी कवि ने एक गीत रचा, उसने लोगो को सुनाया, किसी ने वह गीत याद कर लिया। वह दूसरे प्रदेश में गया, वहां उसने सुनाया, तो थोड़ा सा बदल गया। वहां किसी तीसरे व्यक्ति ने याद किया, उसने कहीं और सुनाया तो थोड़ा सा और बदल गया। फिर एक गीत होते है, जिन्हे प्रशस्ति गीत कह सकते है। यह गीत ज्यादातर कवि या याचकवर्ग अपने दाता को प्रसन्न करने को गाते थे, या ऐसे काव्यों की रचना करते थे जिसमे अपने दाता को वे सर्वश्रेष्ठ होने का वर्णन करते। ऐसे काव्य वास्तविकता में लांछन स्वरुप है। कई बार तो ऐसे काव्यों में सारी ही मर्यादाएं भूल कर कवि बस अपने स्वामी को खुश करने को प्राधान्य देते थे। सामाजिक रिवाज, व्यवहार, रीती-निति सब को ही भूल कर कवि बस अपने स्वामी का वखान करता।

बहुत कम कवि ऐसे थे जिन्होने मात्र सत्य लिखा। शत्रु का भी बखान किया। और शत्रु का भी सम्मान बनाए रखा। ऐसे ही किसी खुशमातखोर कवि की यह रचना है जो ऊपर दोहे तथा कुण्डलिया छंद में व्यक्त एक ऐतिहासिक प्रसंग को लेकर रची गयी है। पूर्णतः एकपक्षी कविता है। और सिरे से समस्त रिवाज और व्यवहारिकता को भूल कर लिखी गयी है। कवि के अनुसार यह ऐतिहासिक प्रसंग कुछ यूँ था कि भड़ली नाम का राज्य था, वहां के राजा भीमजी की पुत्री केशरबा का विवाह सरधार के वाघेला राजा गोधाजी के साथ हुआ था। तो राजकन्या केशरबा अपने ससुराल सरधार जा रही थी। रास्ते में यह खेतसी झाला उन्हें दीखता है। वह राजकन्या खेतसी पर मोहित हो जाती है। और खेतसी को सन्देश कहलवाती है कि खेतसी आप मुझे अपना लो, मैं सरधार के गोधाजी के वहां नहीं जाना चाहती। और खेतसी अपने भाइयो से सलाह करके उस वेलडे (जब राजकन्या अपने ससुराल जाती है, तो बैलगाड़ी में लदा सारा सरसामान समेत जाती है। उसे वेलडा कहते है।) को अपने घर ले जाता है। इस तरफ गोधाजी को खबर मिलती है कि आ रही नवविवाहिता के वेलडे को रस्ते में से जांबु का खेतसी उठा ले गया। तो यहाँ से वेर होता है। युद्ध होता है। खेतसी का सर गिरने के बाद धड़ लड़ता है। और खेतसी के इस बिना सर के धड़ लड़ने के अतुल पराक्रम से गोधाजी पराजित भी होता है। यह पूरी कहानी अतिशयोक्ति से भरी हुई है। राजपूती परम्परा से विपरीत बाते इस कहानी में है। 

'अतिशयोक्ति अलंकार'

यहाँ इस प्रकार के कथागीतो पर रचनाकार कविओ की एक बात गौर करने लायक है। खेतसी-केसरबा की कहानी में खेतसी झाला है, केसरबा का जिनसे विवाह हुआ है वह सरधार का ठाकुर वाघेला है। झाला वाघेला का वेलडा उठा ले जाता है। दोनों ही - झाला और वाघेला - राजपूत है। लेकिन रचनाकार (बिरदानेवाला) कवि झालाओ का है। ऐसे राज्याश्रित कवि अपने स्वामी की प्रशंसा करे यह स्वाभाविक बात है। उनका काम ही यह था। 

पूरी प्रशंसा में अतिशयोक्ति है, तब भी वह एक एक अलंकार माना गया है। पुरानी उक्ति अनुसार झाला खेतसी का कवि खेतसी के तलवार प्रहार को इस तरह बिरदाता है :

खेता वाळी खाग, सर पडो सूबा तणे ;
नर बगतर कट नाग, धर खूंती जांबु धणी ;
तें नींझोटी नाग तणा, केवी सर करमाळ ;
वंचि गई विआळ, खूंती कोरंभ सर खेतसी ;

अर्थात : ओ जांबुनाथ खेतसी ! तेरी तलवार वेरी के सिरदारो पर ऐसी पड़ी कि पुरुष, बख्तर, और अश्व को काटते हुए धरती में खूप गयी। लेकिन कवि इतने में आश्वस्त न हुआ, उसकी कल्पना भ्रमण पर चढ़ गयी। कवि मौज में आ गया। खेतसी की तलवार नर बख्तर तथा घोड़े को काटते हुए धरती पर रुक गयी? नहीं नहीं, उसका प्रहार यह धरती कैसे सह पाए? इस लिए आगे कहता है कि धरती को चीरकर शेषनाग को भी पार करते हुए खेतसी की तलवार कच्छप के सर पर जाकर लगी।

'राजपूती का उपहास'

ऐसी प्रशस्ति ओ की अतिशयोक्ति में बहुत से प्रशस्तिकार भूल जाते है कि एक झाला हो तो दूसरा वाघेला हो, एक सरवैया हो तो दूसरा सोलंकी हो, एक चावड़ा हो तो दूसरा वाळा हो, एक परमार हो तो दूसरा जाडेजा हो। यूँ आमनेसामने शाखा भले ही अलग हो, लेकिन दोनों ही राजपूत है। और राजपूती को रंग देने वाला कवि जब कोई एक शाखा के राजा का आश्रित होकर प्रशस्ति शुरू करे तब सामने वाले अन्य शाखा के राजपूत को गौरवहीन कैसे कर सकता है?

ऐसे में ऐसा मान लिया जाता है कि अपना स्वामी शूरवीर है, और सामनेवाला राजपूत कायर तथा निर्माल्य है। वहां कवि अपनी समतूला खो बैठता है। विवेक भूल जाता है। और राजपूती का उपहास कर बैठता है। खेतसी केशरबा का कथागीत ऐतिहासिक है, तब भी गोधाजी वाघेला ने खेतसी को रणमेदान में मार दिया है। विजय गोधाजी का हुआ है। लेकिन झाला ओ का पराजय न सह पाने वाले कवि ने मात्र कविता द्वारा उस पराजय को विजय में पलटाने का प्रयास किया है। अथवा उस कवि को ऐसा करने को मजबूर किया गया है।

खेतसी बहादुरी से लड़ा होगा। दुश्मनो के सामने झुझा होगा। लेकिन कवि कहता है :

खळ दळ कापे खेतसी, माथा वण मकवाण ;
भड़ली लगन कळभाण, धड़ लड्यू जांबुधणी ;

उस मकवाणा खेतसीने शत्रुसेना का अपने सर के बिना ही संहार किया। इस तरह गोधाजी के भड़ली विवाह में हे झाला कुल के सूर्य रूपी जांबुनाथ ! तेरा धड़ लड़ा है। 

'विवेक बिसर गया'

उपहास ने सारी सीमाएं लांघ दी :

सरदारो सुवे नई, सख करी सरताण ;
मेडी लग मकवाण, धड़ लड्यू जांबुधणी ;

'सरताण यानि कि वाघेला के सैन्य सरदार ऐसे भयभीत हुए है कि अपने शयनगृह में सुखपूर्वक सो नहीं सकते।' वाघेलाओ की इतनी कायरता दिखाते हुए भी कवि को चेन न हुआ, इस लिए और रोषपूर्वक आगे कहता है कि :

गोधो गा थई उगर्यो, लजि लजि तरणा लेय ;
मकवाणा तें अरि सरि, मे खागी मचवी खेतसी ;

खेतसी ! तेरी शूरवीरता के सामने गोधाजी ने अपने मुख में तृण लिया, और गाय समान आवाज करते हुए बचा, ऐसी तूने तलवार की झड़ी बरसाई है। जब खेतसी को रण में ही सुलाने की शक्ति वाघेला गोधाजी ने दिखाई है फिर उसे अपने मुंह में घास का तिनका लेकर गाय बनकर बचने की क्या जरुरत? (युद्ध में पराजित हुआ वीर जब हार स्वीकार लेता है तो उसे अपनी हार स्वीकारते समय मुख में घास का तिनका रखकर गाय समान सौम्यता दिखानी पड़ती है।) कोई विजेता को मुख में घास का तिनका क्यों लेना पड़े भला? लेकिन यहां कवि की कविता गोधाजी को हीन दिखाते हुए सरस्वती का आसन छोड़कर याचकवृत्ति में प्रवृत्त हुई दिखती है। यहां कवि ने गोधाजी को नहीं लेकिन राजपूती को लांछन लगाया है।

'कविता का लांछन'

ऐसी और कुछ कहानियों में एक अन्य लक्षण राजपूतानी से मुख से अपने पति के दुश्मन की महानता गवाना है। या तो फिर अपने स्वामी के दुश्मन के स्मरण मात्र से राजपूतानियो को भयभीत होती दिखाई जाती है। खेतसी तथा केशरबा के इस कथागीत में भी कवि गोधाजी की रानी के मुख से खेतसी की प्रशंसा करवाता है। यहाँ भी कवि भूल जाता है कि अपने राजा के शत्रु के घर में भी राजपूतानियाँ ही होती है।

भड़ली के भीमजी सरवैया की पुत्री केशरबा भी एक राजपूतानी है, और वाघेला गोधाजी की विवाहिता है। वह विवाहिता राजपूतानी खेतसी जैसे परपुरुष को कैसे बुला सकती है? कवि ने तमाम राजपूती मूल्यों को भुलाकर यह कविता लिखी है। राजपूतो में सब शूरवीर नहीं होते तो सब कायर भी नहीं होते। सारी राजपूतानियाँ जाज्व्लयमान नहीं होती तो सारी निर्माल्य भी नहीं होती है। लेकिन राजपूत और राजपूतानी का एक बिरुद बंधा है, कविओ ने ही बांधा है। उससे निचे उतरने वाली राजपूतानी या तो अफीम घोलकर मृत्यु को गले लगा लेती, या फिर राजपूतानी के पद से ही हट जाती थी। 

'निकृष्ट कल्पना'

स्वयं जिसका अन्न खाता है ऐसे राजवी की प्रशस्ति के लिए, उसके विरोधी या शत्रु राजवी की राजपूतानी अपने स्वामी के शत्रु की प्रशंसक कैसे हो सकती है? स्वामी के शत्रु की प्रशंसा राजपूतानी अपने ही स्वामी के सम्मुख करे यह तो राजपूतानी को निम्नतम कक्षा में उतारी गयी है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि राजपूतानी को लांछन लगाकर ही अपने राजपूत आश्रयदाता की बड़ाई कवि दिखा सकता है। हकीकत में यह लांछन न तो राजपूत का है, न ही राजपूतानी का, लेकिन कविता का, काव्यत्व का लांछन है। यह कथागीत की कल्पना ही हीन कोटि की है। यह अलंकार कलंकित है।

'कविता का एक उत्तम दृष्टांत'

राजशाही के समय जसदण राज्य के शेला खाचर के कवि गांगा रावळ का मेघाणी द्वारा संकलित किया दृष्टांत देखते है। भावनगर राज्य के सामने उन दिनों जोगीदास खुमाण 'बहारवटे' निकला था। (किसी राज्य, राजा, या किसी बड़े व्यक्ति द्वारा हुए अन्याय के विरुद्ध कोई सशस्त्र आंदोलन करता है उसे 'बहारवटा' कहा जाता है। डाकू या बाघी से थोड़े अलग हुआ करते थे यह लोग। राज्य को आर्थिक चोट पहुँचाना ही मुख्य उद्देश्य हुआ करता था।) जोगीदास खुमाण जब भावनगर के विरुद्ध बहारवटा चला रहा था तब भावनगर राज्य ने जोगीदास पर इनाम जाहिर किया था। उस इनाम की लालच में जसदण का काठी - खाचर शाखा का - शेला अपने १२० घुड़सवारों के साथ जोगीदास को पकड़ने निकला था। और जोगीदास के साथ संभावित युद्ध को दिखाने अपने आश्रित कवि गांगा रावळ को भी साथ लिया था। लेकिन जोगीदास के दस घुड़सवारों के सामने शेला खाचर को अपने १२० अश्वसवारो के साथ मैदान छोड़कर भागना पड़ा था। गांगा अपनी जिह्वा अपने मुख में ही दबाकर वापिस लौटा। लेकिन आश्रयदाता शेला खाचर ने अपनी झूठी प्रशस्ति रचने को गांगा पर दबाव बनाया। बहुत मना करने के बाद गांगा रावळ ने भरी कचहरी में शेला खाचर की ही मश्करी भरा गीत ललकारा :

बळ करी अतग हालियो बोंशे,
लावु पवंग (जाणे) खुमाणु ना लोंशे,
खुमाणे दीधा भाला तरिंगमां खोंशे,
    (ते) भोंयरगढ़ लग आव्यो भुंशे,
खाचर खोट दूसरी खायो,
झांळे खुमो भाण जगायो,
कूड़ु शेला काम कमायो,
    गरमां जइने लाज गमायो,
धरपत सबे थियो धूड़-धाणी,
राखी मेल्या कोड रामाणी,
मार्या फरता डोड मोकाणी,
    ठरड काढ्यो भाले ठेबाणी,
आलणहारो कहूँ अलबेलो,
खेल जइने बीजे खेलो,
झाटकियो दस घोड़े झिलो,
    छो-विसु लई भाग्यो शेलो..!

यह गीत सुनते ही आगबबूला हुआ शेला खाचर उठा और बोल पड़ा, 'मेरे जसदण से बाहर निकल जा..' तब 'थू है तेरे जसदण में' कहकर गांगा चल दिया।

'कविता का दूषण'

वढवाण के झाला राज पृथीराज की एक बकरी हळवद के झाला राज हरिसंग मारकर खा गए थे। इस कारण से दोनों के बिच युद्ध छिड़ गया, आखिरकार हळवद के झाला ने पेशवा बाबाराव वाली फ़ौज को पैसे देकर बुलवाई और वढवाण के झाला राजवी को झुकाया। हळवद के कवि ने वढवाण के झाला राज का मश्करी भरा गीत बनाया। मेघाणी जैसे साहित्यकार उसे 'गमारु वैर' बताते हुए 'मुर्खताभरी वीरता' कहकर उस काव्य को दूषणरूप बताया है।

जबकि उसके सामने एक अति उज्जवल तथा खेलदिली भरा दृष्टांत मेघाणीभाई भावनगर के राजकवि का देते है। इस राजकवि ने अपने ही आश्रयदाता के शत्रु जोगीदास खुमाण के पराक्रमो की वीरगाथा रची है। इतना औदार्य अगर कविता में न हो तो वह कविता काहे की? बिरद का अर्थ ही नेक-टेक है। 

- साभार, उर्मि नवरचना में से भगुभाई रोहड़िया के लेख के कुछ अंश।


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|| अस्तु ||


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