गढ़ की जरूरत उन्हें होती है जिन्हें..
वाह, ऐसा होना चाहिए एक व्यस्त दिवस। अभी समय हो रहा है २२:४३, मैं बैठम हूँ दुकान पर। दुकानवाला भी घर जाने की तैयारियां करने लगा है। सुबह आज जब ऑफिस पहुंचा तब लगभग छह गाड़ियां खड़ी थी। हर कोई अपनी गाड़ी पहली भरवा कर निकलवाने को हो-हल्ला कर रहा था। काम तो अच्छा-खासा था आज मेरे पास यह सुबह ही पता चल गया। वैसे दिनभर काम करने के अलावा, और लंच समय मे भी काम करने के अलावा गूगल मैप्स में विचरण करने को समय मुझे अवश्य ही मिला था।
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Dost ke maje lete Dilawarsinh.. |
काम के साथ साथ कुछ गपशप हो जाए तो बोरियत नही लगती। यही सोचकर एक मित्र को मैसेज किया। वे राजपूत है, अलग शाखा के। बड़ी प्रसिद्ध शाखा है। जैसे हमारे यहां तालुकदारी गांवों में भी गढ़-किले थे। लेकिन उस शाखा के गांवों में नही। तो मैंने मजे लेने के लिए उनसे कहा, 'भाईसाहब आप जैसे शालीन ठाकुर और कहां पाएंगे, एक-दो छोड़कर आपके गांवों में किले नही होते थे।'
वो भी कटाक्ष करते बोले, 'गढ़ की जरूरत उन्हें होती है जिन्हें लूट-फाट करनी हो।'
'या फिर उन्हें जिन्हें आप जैसो से सुरक्षा चाहिए होती हो।' मैंने भी जवाब दिया, उन्ही की आधी बात में आधी बात जोड़कर।
'वैसे किले पर्वतीय क्षेत्रों में होते है, हम तो मैदानी भूभाग में बसे थे।'
'यह कोई बात हुई भला.. यूँ कहिए कि आपने शत्रुओं से लोहा लेने को तत्परता नही दर्शाई।' मैंने थोड़ा और छेड़ने के लिए कहा।
'अरे शत्रु तो हमारी चारो-ओर थे। लेकिन किसी ने हमे छेड़ा नही।'
'हाँ शायद आपके पास गढ़-किले थे नही तो रहम दिखाया होगा।' यह वाला आक्रमक था।
'अरे ! हमारे पास भी तलवारे थी। रहम काहेकि?'
'हाँ, फिर आपके गांवों में किले न होने का और क्या कारण हो सकता है?' लेकिन अब मुझे काम था तो बात खत्म करने के लिए उनके पास विचारने को प्रश्न छोड़ आया।
और वैसे भी, यह गढ़ किले आज तो भूतिया खंडहर ही है..! खेर, दोपहर बाद तो फुल स्ट्रेस था, साढ़े छह बजे गए थे, और बिल बनाने थे तीन। वे भी सात बजे से पहले। दो तो बन गए, लेकिन तीसरे बिल में बड़ी माथाफोड़ी हुई। ऊपर से यह मार्च, अगर बिल में छोटी मिस्टेक रह गयी तो सरकारी बाबू लोजी सीधे ही उस भूल को करचोरी की निगाहों से देखते है, और मोटा फाइन लगा देते है। साढ़े आठ तक तो सारे बिल हो गए, और लगभग हर पहुंचा तब साढ़े नौ बजे गए थे। आजकल गजा और पत्ता दोनो ही अपनी जिंदगी में बड़े व्यस्त है। बात हुए भी जैसे जमाना बीत गया है।
आज एक बात तो गजब ही हो गयी..
प्रियंवदा, आज एक बात तो गजब ही हो गयी। मैंने सरदार को पिछले रविवार को ही बता दिया था कि अगले रविवार को मैं और गजा बाहर जा रहे है, तो उसे अकेले को ही रविवार का सारा कार्यक्रम संभालना पड़ेगा। उसने हामी भी भरी थी, लेकिन आज शाम को अचानक से आया, और बोला दो दिन मैं बाहर जा रहा हूँ। मेरा तो थोड़ी देर दिमाग हिल गया, कि अब इसे क्या कहूँ मैं.. इसे जब पता है हमारा पहले से प्लान बना हुआ है, फिर भी यह प्लान बिगाड़ने की बात कर रहा है। लेकिन फिर उसीने कहा, रविवार को हाजिर हो जाऊंगा। तब मुझे थोड़ी राहत हुई। लेकिन अभी दुकान पर बैठे बैठे ख्याल आया कि सरदार तो रविवार दोपहर तक ऑफिस आएगा, और मैं और गजा तो रविवार सुबह ही निकल जाएंगे, तो मेरे और सरदार के बीच हिसाब का लेनदेन कैसे होगा? बड़ा विचित्र मामला फंसा गया है वो। हालांकि उसे भी तत्काल में निकलना पड़ा है। सोमनाथ-द्वारका गया है वो। कार से गया है इस लिए जल्दी आ भी जाएगा। तात्पर्य यही है प्रियंवदा कि मैं गजे को कह ही रहा था कि किसी भी बात के लिए अति-उत्साही नही होना चाहिए। खासकर तब जब सब मिलझुलकर काम कर रहे हो। क्योंकि सबके अपने प्लान्स होते है, कुछ अचानक से बन जाते है तो कुछ अचानक से ही बिगड़ भी सकते है।
ठीक है फिर, अपना प्लान तो ओन ही है। अभी के लिए शुभरात्रि।
(२७/०३/२०२५, २३:२२)