मंदिर के पटांगण में बैठा, बिलकुल ही अकेला और हार को स्वीकार चुका था..
प्रियंवदा ! माँ की गोद में संतान कितना सुरक्षित, भयमुक्त, और शांत अनुभव करता है.. समस्त चिंताओं से मुक्त, समस्त व्याधिओं को भूलकर बस आनंद में मग्न रहता है। मातृत्व शक्ति को सचमे कोई तोल नहीं सकता किसी के साथ...! वह स्नेह, अमूल्य स्नेह की प्राप्ति के लिए संतान को भी तो योग्यता, कृपापात्रता प्राप्त करनी पड़ती है। जब चोटिला पर्वत पर मैं बिलकुल थका हुआ मंदिर के पटांगण में बैठा, बिलकुल ही अकेला और हार को स्वीकार चुका था कि यहां तक पहुंचकर भी दर्शन तो दुर्लभ ही है, और मनोमन जैसे कह दिया था कि अब तो माँ को दर्शन देने हो तो दे, वरना मैं तो अब यहीं से वापिस मुड़ जाऊंगा बिना दर्शन के ही...
मैंने कभी चोटिला नहीं देखा था। मेरे शहर से दोसौ किलोमीटर जितना दूर है। और कहीं जाते हुए मार्ग में नहीं आता था, क्योंकि उस क्षेत्र में कभी जाना हुआ ही नहीं। चैत्री नवरात्रि का प्रथम दिवस था। गजे को एक सप्ताह पहले से ही खूब उत्साह था कि, 'माताजी के मंदिर चलेंगे, चोटिला चलते है।' हालाँकि वह तो बस में अकेला जाने वाला था, उसने मुझसे छुट्टी मांगी थी, लेकिन फिर मुझे भी इच्छा हो आयी, और मैंने ही उसे सुझाव दिया कि दोनों भाई बाइक पर चले जाते है। उसे भी सुझाव ठीक लगा..! हमने प्लान बना लिया, कैसे कब निकलना है, अंदाज लगा लिया, कब तक पर्वत चढ़कर उतर जाएंगे। और फिर कहीं और आसपास में घूम आएँगे। यही सब.. लेकिन मेरे सोचे प्लान अनुसार मैं जब भी चला हूँ, एकदम परफेक्ट कभी नहीं चल पाया हूँ। कुछ न कुछ अनचाहा या आउट ऑफ़ सिलेबस से कोई बात आ खड़ी होती है। मैंने गजे को स्पष्ट बता रखा था कि सुबह छह बजे निकलेंगे, तू मेरे घर तक आ जाना। लेकिन समस्या, या फिर कसौटियों का दौर शुरू हो चूका था।
कसौटियों का दौर..
पिछले कुछ दिनों से मुझे रात्रि को नींद नहीं आती थी, कई जगह बदलने पर फिर निंद्रा आती है। तो बीती रात को पहले बेड पर सोया, करोडो करवट लेने पर भी निंद्रा देवी की कृपा न हुई, तो जमीन पर ही तकिया डालकर सोने की कोशिश की। नींद वहां भी नहीं आयी, फिर सोफे पर लेटा, वहां भी आँखे बंद करके पड़ा रहा, आख़िरकार आँख लग गयी.. अचानक से मातृश्री ने जगाया..! बोले, 'तुजे जाना नहीं है क्या?, तेरा जोड़ीदार तो आ चूका..!' मैं कुछ देर तो सोचता रहा जैसे अभी तो आँख लगी थी। इतनी जल्दी छह बज गए। वास्तव में दो बजे करीब मुझे नींद आयी थी। फटाफट से नहा लिया। गजा बाहर खड़ा खड़ा मुझ पर हँस रहा था, कि 'कल तक यही व्यक्ति मुझे लेट होने वाला बोलते थे, आज यही अभी तक उठे ही नहीं है।' एक चाय पी, और निकल गए। गजे की मोटरसायकल मेरे घर के बाहर खड़ी कर दी। और मेरी मोटरसायकल पर निकल गए। सोसायटी के गेट से बाहर निकले ही नहीं थे कि पता चला मेरी बाइक का पिछला टायर पूरा फ्लेट हो चूका है। जरा सी भी हवा नहीं थी। मनोमन विचार आया, चैत्र माह, कसौटियों का दौर..! अक्सर चैत्र और भाद्रपद मास मेरे लिए कठिन रहे है। और आज तो अभी चैत्र का पहला दिन ही था। और इतनी लम्बी यात्रा करनी है। इतनी सुबह कोई पंक्चर वाला भी नहीं खुला होगा। गजे को उतारा, उसे अपनी मोटरसायकल लेकर आगे दौड़ाया की किसी पंचर वाले को ढूंढ के रखे, और मैं धीरे धीरे पीछे हाइवे पर चल पड़ा। साढ़े छह बजे कोई भी खुला नहीं था, ऊपर से रविवार का दिवस।
लेकिन इस परीक्षा में उत्तीर्ण तो होना ही था। ज्यादातर पंचर वाले की हवा भरने की पाइप बाहर लगी हुई ही होती है। दूकान भले ही बंद हो, आप हवा तो भर ही सकते हो। इसे माताजी का आशीर्वाद समझ, मैंने हवा भर ली टायर में। अब घर से चार-पांच किलोमीटर दूर तो आ ही गए थे। वापिस गजे की बाइक घर छोड़ने जाने के बजाए ऑफिस पर रख देंगे यही सोचकर बाइक दौड़ा दी। मुझे लगा था ऑफिस पहुँचते पहुँचते फिर से टायर फ्लेट हो जाएगा, और ऑफिस के बाहर ही पंचर वाले से उससे ठीक भी करवा लेंगे। ऑफिस पहुंचे, गजे की बाइक वहां खड़ी की। वापिस पंचर वाले के पास पहुंचे तब भी टायर से हवा कम नहीं हुई थी। हमने सोचा आगे और भी इस हाईवे पर खूब पंचरवाले है। किसी से भी करवा लेंगे, वैसे भी ट्यूबलेस टायर है, हवा भरवा कर चलते रहेंगे तब भी कोई समस्या नहीं होगी। हमने आगे बढ़ा दी। घर से सिर्फ चाय पीकर निकला था, तो लगभग पचासेक किलोमीटर पर सामखियाळी पड़ता है, वहां एक बढ़िया रोडसाइड होटल है। चामुंडा कृपा नाम से। कोई चीज, या जगह प्रसिद्द हो तो वह नाम से और भी चीजे या जगह बना दी जाती है। यह चामुंडा कृपा रेस्टोरेंट प्रसिद्द है। तो इसी रोड पर कुल ७-८ चामुंडा कृपा रेसोरेंट्स खुल चुके है। अब सुबह सुबह गुजरात में तो नाश्ते में फाफड़ा, जलेबी, या फिर गांठीया ही मिलते है। मुझे सुबह सुबह बेसन जरा पसंद नहीं। फिर भी कोई ऑप्शन नहीं था, तो थोड़ा बहुत चखा.. इतने में किसी ने पोहा ऑर्डर किया, तब पता चला की पोहा मिलता है, फिर तो वही बढ़िया इस फाफड़ा से तो।
एकसौ छबीस किलोमीटर चल चुके थे
फिर तो सामखियाळी, सूरजबारी, समंदर पर बने नेशनल हाइवे से होते हुए सौराष्ट्र के द्वार समान माळिया की हद शुरू हो गयी.. जिला लगता है मोरबी..! रस्ते में कुछ-कुछ पैदल यात्री भी दिखने लगे.. पैदल यात्रा करने का माहात्म्य खूब है। लोग बड़ी लम्बी पैदल यात्राएं करते है। रविवार का दिवस था, तो रोड भी सुबह सुबह खाली ही मिला था हमे। कार में जितनी देर में मोरबी पहुँचते है उतनी ही देर में हम बाइक से मोरबी पहुँच गए थे। मोरबी से वांकानेर वाले रोड पर एक चाय की होटल दिखी। स्टॉप ले लिया, वैसे भी पचास किलोमीटर हो चुके थे, और घर से गिनु तो एकसौ छबीस किलोमीटर चल चुके थे। पेट्रोल की तो फ़िक्र थी नहीं क्योंकि सूरजबारी से पहले एक पंप पर बाइक की पेट्रोल टंकी फुल ही करवा ली थी। सवासौ किलोमीटर के बाद भी बाइक के टायर में से जरा भी हवा कम नहीं हुई थी। असल में पिछली रात को जिससे हवा भरवाई थी, उसने बिना चेक किये कुछ ज्यादा हवा भर दी थी, तो शायद वाल्व लिक कर गया होगा, और सुबह तक में टायर की सारी हवा निकल गयी होगी। यही अंदाजा ठीक लगता है मुझे तो।
क्या होता अगर भारतीय संघ में जुड़ने के बजाए राजा स्वतंत्र रहते..
फिर से एक बार काली पक्की सड़क, नेशनल हाइवे, गूगल मैप्स की कोई जरूरत के बिना, हम लोग निकल पड़े। कच्छ से चोटिला तक आपको गूगल मेप की कोई जरुरत पड़ती नहीं। बस हाइवे छोड़ना नहीं है। कुछ ही देर में हम वांकानेर थे। वांकानेर में मच्छु नदी पर से गुजरते हुए दूर एक एक ऊंचाई पर अपनी राजसी भव्यता को प्रकाशित करता रणजीत विलास पैलेस दिखाई पड़ता है। उस पैलेस को देखते हुए मेरे मन में एक ख्याल आया, क्या होता अगर भारतीय संघ में राजाओ ने जुड़ने के बजाए स्वतंत्र रहने का निर्णय चुना होता तो.. मैं अपने घर से निकलता, तो मुझे वीज़ा लेना पड़ता मोरबी का.. भचाऊ मोरबी वालो के पास था। फिर भचाऊ पार करते ही पुनः कच्छ की हद में, फिर सूरजबारी पार करते ही माळिया का वीज़ा लेना पड़ता। माळिया के बाद फिर से मोरबी, मोरबी पार करते ही वांकानेर के वीज़ा की लाइन में लगना पड़ता। वांकानेर की सिमा ख़त्म होते ही राजकोट स्टेट की सीमा से गुजरते हुए राजकोट का भी तो वीज़ा चाहिए होता। राजकोट के बाद चोटिला का वीज़ा.. क्या हाल होता भाईसाहब..! हर दस किलोमीटर पर एक नया स्टेट या फिर देश ही कह लो.. हर दस किलोमीटर बाद कस्टम्स और चेकिंग्स होती, वीज़ा एंट्रीज़ और ड्यूटीज लगती..! हालाँकि यह विचार उतने ही जल्दी फुर्र हो गया जितनी जल्दी मैं वांकानेर शहर से बाहर निकल गया..!
चोटिला से लगभग बिस किलोमीटर पूर्व मैंने एक और स्टॉप लिया। सिर्फ मावा खाने के लिए। एक विशाल वृक्ष की छाँव तले, कहीं कोई धुप में भी लहलहाते खेत, सड़क के उस पार कुदरत ने दी हुई पहाड़ी की लम्बी एक रेखा.. सड़क की इस तरफ ऊँची नीची जमीन का एक बड़ा सा बीहड़.. वीरान बीहड़..! एक तरफ बीहड़ और दूसरी तरफ पहाड़ी के बिच से गुजरती यह काली सड़क, ऊपर सूर्य के ताप से जैसे जलने-जलाने को उतारू हुई थी। लगातार माल की हेरफेर करते ट्रक्स जैसे यहां थकते ही नहीं.. लगभग साढ़े दस बजे हम चोटिला पहुँच चुके थे। गूगल मैप्स की देवी ने चार घंटे का सफर कहा था, हम एक घंटा उससे तेज निकले..! तीन स्टॉप्स और चौथे में चोटिला तलहटी में थे। गजा पहले कई बार आ चूका है यहां, उसने बताया था की आधे घंटे में तो पहाड़ी चढ़कर निचे उतर आएँगे..! लेकिन मुझे स्वयं पर गले तक विश्वास था की आधा घंटा तो मुझे चढ़ने में लग जाएगा। चोटिला पहुँचते ही हमारे जैसे चैत्री नवरात्री के पहले दिन दर्शन करने अनेको लोग आए थे। भीड़ कुछ ज्यादा ही दिखी मुझे। चोटिला में ठीक सीढियाँ चढ़ने के द्वार तक मैं मोटरसायकल ले गया, वहां बड़ी सी पार्किंग है। बड़ी बिल्डिंग की अच्छी छाँव देखकर बाइक लगा दी। वहां सामानघर बना हुआ है एक। वहां आप निःशुल्क अपना सामान रख सकते है, ताकि पर्वत चढ़ने में आसानी रहे। जो बसों से आते है, उनके पास बेग रहते है, और बेग के साथ यह पर्वत चढ़ना आसान नहीं। मंदिर प्रशासन ने अच्छी व्यवस्था कर रखी है यह।
ज्यादातर देवियां पहाड़ पर ही बैठी है
चोटिला श्री चामुंडा माता का बड़ा स्थानक है। गुजरात में कई लोगो की कुलदेवी है। बड़ा ही प्रसिद्द स्थानक है। वैसे भी गुजरात में ज्यादातर देवियां पहाड़ पर ही बैठी है। अंबाजी गब्बर के पर्वत पर है, गिरनार पर्वत पर भी है, चामुंडा यह चोटिला की पहाड़ी पर, हरसिद्धि कोयला पर्वत पर, महाकाली पावागढ़ पर..! मेरे पास सामान में एक तो टेंकबेग था, और एक हेलमेट.. टेंकबेग तो स्लिंगबेग की तरह कंधे पर टंग जाता है, लेकिन हेलमेट का भार उठाने से बेहतर है उसे सामानघर में जमा करवा दिया जाए। हमने चढ़ना शुरू किया। मंदिर प्रशाशन की व्यवस्था बहुत सही लगी मुझे। हर पचास कदम पर पानी है, चढ़ने की सीढ़ी पर पतरे लगे हुए है ताकि यात्री ओ को धूप न लगे। सीढियाँ बहुत ज्यादा नहीं है, थोड़ी सी ही है, लेकिन बिलकुल खड़ी चढ़ाई है। इस लिए अच्छे भले लोग भी सीढ़ी के किनारे विश्राम लेने बैठ जाते है। मैंने चढ़ना शुरू किया, कुछ कदम चढ़ते ही गला सूखने लगा.. थोड़ा सा पानी पिया। २-४ मिनिट रूककर फिर से चढ़ना शुरू किया। सीढिया कुछ बड़ी लगने लगी मुझे। मतलब इन सीढ़ियों के कदम थोड़े ऊँचे से बने है। लगभग आधी पहाड़ी चढ़ चूका था, तब मैंने देखा, गजा खुद अपनी कमर पर हाथ दिए हाँफते हुए कदम भर रहा था। मैंने मजे लेने के लिए कहा, 'हाँ भाई, आधे घंटे में वापिस उतर आएँगे क्या?'
इस भीड़ में तो दर्शन दुर्लभ है
फिर मैंने ही गजे को कहा, 'रुक जा भाई, मैं थक गया हूँ।' और कुछ पांचेक मिनिट सीढ़ियों पर बैठकर लम्बी लम्बी साँसे खींची.. यहाँ से अब सूर्य के बढ़ते जा रहे ताप के कारण हरजगह बहती लू साफ़ दिख रही थी। सीढ़ियों पर छाँव के लिए पतरे लगा रखे है इसी कारन से ठंडा पवन ऊपर चढ़ने की मेहनत के परिणाम स्वरुप बहते पसीने को सूखा रहा था। मौसम साफ़ था, लेकिन लू चल रही थी। यहाँ से चोटिला शहर भी पूरा दिख रहा था। अब लगभग दस मिनिट की खड़ी चढ़ाई और बाकी थी। हमने फिर से प्रयाण किया। भीड़ भी बहुत थी, कोई कोई बहुत धीरे चढ़ रहा था। इस कारण से हमे भी रुकना पड़ता था। कभी किसी की बाजू से त्वरित निकलना पड़ता, ताकि आगे बढ़ सके। मंदिर प्रशासन की एक और व्यवस्था की यहां तारीफ़ करने की जरूरत है की चढ़ने वालो की साइड चौड़ी रखी है। उतरने वाली सीढियाँ चौड़ाई में कम है। चढ़ने में ज्यादा मेहनत लगती है, लोग विश्राम करने भी सीढ़ियों पर ही बैठ जाते है, इस लिए रास्ता एक तरह से संकरा होता जाता है। आखिरकार मेरे जैसा मोटा भी पहाड़ चढ़ गया। ऊपर लगातार जयकारे लग रहे थे। यहाँ भी चारोओर लोग थके हुए बैठे थे। लेकिन उत्साह के साथ चहलपहल थी। गजे का मानना है कि यहां तक चढ़ने से हुई सारी थकान मंदिर में दाखिल होते ही उतर जाती है। मुझे भी थोड़ा अनुभव तो हुआ। मंदिर में दर्शन को भीड़ बहुत ज्यादा थी। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि सांस न ले सके आदमी..! हम भी उस लाइन में लग तो गए, लेकिन इस भीड़ में मुझे दबाव अनुभव होने लगा.. मेरी सांस जैसे फूलने लगी हो वैसा अनुभव हो रहा था। मुझे गलती समझ आयी, कुछ देर बैठ जाना चाहिए था, ताकि पहाड़ चढ़ने से फूली साँस शांत हो जाए। मैं उस लाइन से बाहर आया, और मंदिर के पटांगण में ही बैठ गया। हृदय की गति बहुत तीव्रता से चल रही थी। मैं अपने हृदय के धबकार को सुन पा रहा था। जैसे धबकते हृदय के साथ पूरा शरीर भी धबक रहा हो वैसा लग रहा था। मैं शांति से वहां बैठकर आँखे बंध करके बैठा रहा। मनोमन सोच रहा था, इस भीड़ में तो दर्शन दुर्लभ है। मंदिर में भीड़ का एक कारण फोटोग्राफी भी थी। लोग माताजी के स्वरुप का विडिओ बना रहे थे, फोटो खिंच रहे थे, अपने स्नेही-संबंधीओ को विडिओकॉल कर रहे थे।
मेरे मन में दर्शन की इच्छा जरूर थी, मैं पहली बार यहाँ आया था। लेकिन इस भीड़ की धक्का-मुक्की देखते हुए होंसले डगमगा रहे थे। गजा तो मंदिर में दाखिल हो चूका था। मैं इस भीड़ से दूर ही बैठा सोच रहा था, जैसे अंतर्मन में एक शांति अनुभव कर रहा था, आसपास खूब चहलपहल थी, लोग आ रहे थे जा रहे थे, पर मैं अपनी आँखे बंध करके पालथी मारे बैठा हुआ अपने भीतर ही कुछ खोज रहा था। यह अनुभव शब्दों से साझा नहीं हो पाता, जो भीड़ में भी अकेले बैठे हो वे समझ पाएंगे। ख्याल एक ही था, यहाँ से मंदिर में तो दर्शन दुर्लभ है। माताजी की इच्छा हुई तो जाऊंगा, वरना ध्वजप्रणाम करके वापिस लौट जाऊंगा..! लेकिन तभी गजे का फोन आया, 'आप जहाँ जूते निकाले थे वहां बाहर आओ।' मेने उसे अनुसरना उचित समझा, और वहां कालभैरव के मंदिर के पास पहुंचा.. वहां से एक गुप्तेश्वर महादेव के रास्ते से सीधे ही मंदिर के गर्भगृह में रास्ता जाता है, वह खुला था आज। शायद मातृआदेष ही था यही। मैं और गजा वहां से होते हुए सीधे ही मंदिर में दाखिल हो गए। यहाँ भीड़ और धक्कामुक्की बहुत ज्यादा थी। लोगो के ऊंचेनीचे होते मस्तको के बिच से माताजी की मूर्ति के दर्शन हुए। आगे वाले ने अपने फोन से ज़ूम करके फोटो खींची तब और अच्छे से दर्शन हुए। लोग आगे नहीं बढ़ रहे थे। फोटो खिंच रहे थे। पीछे से लोग चिल्ला रहे थे। तभी अचानक से लाइट चली गयी। अँधेरा सा छा गया, हड़बड़ी हो गयी, जो आगे थे वे बाहर की और सरकने लगे। मैं ठीक माताजी की मूर्तिस्वरुप के सामने था। दर्शन किये। और बाहर निकल आया..
अब धीरे धीरे निचे उतरना शुरू किया। लगभग दसेक मिनिट में ही हम निचे पहुंच गए। निचे कोई ग्रुप बड़ी धूमधाम से ढोल बजा रहा था। कुछ लड़के उत्साह से नाच रहे थे। वे लड़के भी हमारी तरह यात्री थे, बजते ढोल में साथ पूरने के लिए नाचने लगे। यहाँ बाजार ठीक वैसा ही जैसा प्रत्येक धर्मस्थलों पर होता है, श्रीफल, चुनरी, कुमकुम, त्रिशूल, माताजी की छवियां, मालाएं, टेटू वाले, निम्बू-सोडा वाले। हमने एक ग्लास निम्बू-सोडा पी, कुछ देर इस मार्किट में टहले, और चल दिए चोटिला शहर की और..! विख्यात धर्मस्थल है, इस लिए बहुत सी दुकाने है हर जगह। घर से पांच मावा लेकर निकला था जिनमे अब दो बचे थे, तो यहां एक पान वाले से मैंने पांच मावा और बंधवा लिए। हाँ, बाइक चलाता हूँ, तो चबाने के लिए मावा चाहिए होता है। बूस्टरडोज़ है मेरे जैसो के लिए। थोड़ा आगे एक बढ़िया रेस्टोरेंट दिखा। छाँव भी अच्छी थी, तो बाइक वहां लगा दी, और खाना खाने बैठ गए। एक दाल-तड़का, दो नान। गुजराती छाछ का ही नशा करते है, लेकिन इसने पानी मिला रखा था। इस धुप में इतना भी हेवी हो जाता है वैसे। समय तो अब याद नहीं है, लेकिन धुप बहुत तेज थी। और हम फिर से एक बार रोड नापने निकल पड़े थे, थानगढ की ओर..! भरी दोपहरी में हम थानगढ जो कि चोटिला से कुछ तिस किलोमीटर पड़ता है, पहुंच गए थे। वहां है सूरजदेवळ।
वहां है सूरजदेवळ..
सूरज अर्थात सूर्य, देवळ अर्थात देवस्थान, या मंदिर..! प्राचीन मंदिर है। क्षत्रियो में एक काठी शाखा है। काठी सूर्यपूजक है। काठीओ का मुख्य मंदिर है यह। एक तिथि आती है, (मुझे तिथि याद नहीं।) तब काठी यहां इकठ्ठा होते है। और साढ़े तीन दिन का उपवास रखते है। प्राचीन शैली में बना यह सूर्यमंदिर देखने लायक है। सूना पड़ा था, हमारी ही तरह बस दो-तीन जने और आए थे यहाँ। यहाँ तक पहुँचने में हमेशा की तरह गूगल मैप्स की देवी ने हमे एक ऐसा रास्ता पकड़ाया जिस पर वास्तव में रास्ता था ही नहीं। इस सूर्यमंदिर के हर तरफ खनन काम चलता है। भू-उत्खनन के कारण इस पुरे क्षेत्र में यह मंदिर एकमात्र है, बाकी सारी जमीन खुदी हुई है। इसी कारण से शायद काठीओ को अपने आराध्य को नई जगह ले जाना पड़ा। अब इस मंदिर को 'जूना सूरजदेवळ' कहा जाता है, और चोटिला से थानगढ वाले रोड से ही थोड़े अंदर 'नवा सूरजदेवळ' स्थित है। दोपहर का समय, पांचाल (थानगढ, चोटिला, मुळी का क्षेत्र पांचाल भूमि कहा जाता है। वही महाभारत कालीन पांचाल..) की पिली भूमि, चारोओर भू-उत्खनन के गढ्ढो से उड़ती मिट्टी, और बीचोबीच यह शांत लेकिन इतिहास का एक पन्ना लिए बैठा सूर्यमंदिर..! भगवन सूर्यनारायण और माँ रांदल की मूर्तियां मनोहर है। कुछ देर विश्राम किया। यहां पिने के लिए ठंडा पानी था। गिलास भी थे, तो मैं अपने साथ लाया ग्लूकोस के दो ग्लास गटक गया, गजे को पिलाया..! कुछ भी हो जाए, घर से इतने दूर बेहोश होकर गिरना अच्छी बात तो नहीं..!
प्रियंवदा ! इतने से मन कहाँ भरता है जब घूमने ही निकले हो तो। यहाँ से अब एक जगह और जाने की इच्छा थी। माटेल.. वांकानेर से थोड़ा आगे..! लेकिन उससे पहले एक एक चाय हो जाए तो मजा आ जाए..! गूगल मेप में लोकेशन डाली थानगढ से वांकानेर.. बढ़िया स्टेट हाइवे दिखाया उसने..! रास्ते में एक चाय की होटल दिखी तो रुक गए। यहां उड़ती मिटटी के कारण आँखे पूरी मिट्टी से भर गयी थी। एक और सबक, ऐसी ट्रिप्स पर बाइक से जाते है तो फुल फेस हेलमेट ले जाना चाहिए। मैं रॉयल एनफील्ड का हाफ फेस हेलमेट यूज़ करता हूँ। चेहरा खुला रहता है, तो धुप, धुल, धुंआ, सब मुंह पर लगता है। आँखों में जाता है। वहां मुंह हाथ धोये, और वहां बैठने के लिए खटिया डाल रखी थी। और एक चीज और बतानी रह गयी, यहाँ इस होटल पर बैठने के लिए टॉयलेट शीट्स थी, वो इंग्लिश वाली खड़ी टॉइलेटशीट्स, अंदर सीमेंट भरकर बैठने लायक बना रखी थी। मुझे याद आया, थानगढ में भी बड़ा सिरामिक उद्योग है। मोरबी का सिरामिक उद्योग प्रख्यात है टाइल्स के लिए। यहां का सिरामिक उद्योग टॉयलेट शीट्स तथा गमले के लिए प्रख्यात है। गमले बड़े ही सुन्दर, आकर्षक तथा एक्सपोर्ट क्वालिटी के बनते है। हर जगह यहां टॉयलेट शीट्स दिखती है। तो यहाँ इस चाय की टपरी पर भी बैठने के लिए टॉइलेटसीट ही लगा रखी थी। बड़ा विचित्र लगता है टॉइलेटसीट पर बैठकर चाय पीना, इस लिए मैंने तो खटिया पर बैठना ही उचित समझा। वहां (थानगढ में) मुझे बहुत सी जगह पर ऐसे ही पड़ी टॉइलेटसीटस दिखी..! जो शायद निर्माण के समय कुछ कमी रह गयी होगी तो फेंकने के बजाए उसे इसी तरह कहीं न कहीं उपयोग में ले लेते होंगे।
प्रेम पर भरोसा कर लेना लेकिन..
एक बात बताऊँ प्रियंवदा ! जीवन में एक बार चाहो तो प्रेम पर भरोसा कर लेना, लेकिन इस गूगल मेप पर कभी भी भरोसा मत करना.. राह चलते आदमी से रास्ता पूछ लेना, लेकिन मैप्स के सहारे रास्ते पर चलो तो सौ समस्याएं सामने आ खड़ी होती है। अगर मैप्स के सहारे ही चलना है, तो कम से कम उस व्यक्ति को मेप समझने का सामान्य ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। ज़ूम इन करते रहना, और समय समय पर ज़ूम आउट करते रहना बहुत जरूरी है। मैंने मेप देखने की जिम्मेदारी गजे को सौंपी थी, और खुद बाइक चला रहा था। और गजा मेप के भरोसे मुझे चोटिला से थानगढ बगैर रस्ते के ले गया था। खेर, अब थानगढ से वांकानेर जाना था। चाय की टपरी ही मैंने खुद मेप देखकर गजे को कहा कि हमे वाया दलाडी होकर जाना है, इतना याद रखना..! उसने याद कर लिया, लेकिन जब हम चलने लगे, तो एक जगह दो रास्ते पड़ रहे थे, गजे ने मुड़ने के बजाए सीधे जाने को कहा.. बस, यहीं मैप्स की राह भटकाने वाली कृपा हम पर बरस गयी। फिर तो दो-तीन छोटे छोटे गाँव आए, गाँव तो भले आए, एक जगह तो नदी पर आरसीसी का पुल बना हुआ था, उस पर से बाइक कुदानी पड़ी। बिलकुल ही ताजे बिछाए डामर पर से बाइक चलानी पड़ी। एक ही ट्रक निकले उतना ही चौड़ा रास्ता, उस पर भी आगे नया रोड बनाने का काम चालू। ताज़ी ताज़ी बिछ रही डामर के बिच से बाइक चलानी, मतलब खुद के हाथो खुद की ही बाइक टायर जलाने जैसा काम.. सारी मेहरबानी गूगल मैप्स की। हमे जाना था थानगढ से वांकानेर वाया मोरथळा - दलाडी। हम चल पड़े थानगढ से वांकानेर वाया देवळीया, हिराणा, रामपरा, सरोड़ी और महिका..! महिका बिलकुल मच्छु के किनारे सटा हुआ किलेबन्द गाँव है। रास्ते में हमे देखने को क्या मिला? कड़ी धुप वो भी ठीक आँखों के सामने सूर्य, और गेंहू के खेत, किसी ने काटी हुई गेंहू की फसल में चल रहा थ्रेसर, कहीं बीने हुए प्याज के भरकर रखे हुए बोरे, दो बांस मारते पोल्ट्री फार्म, और आखिरकार मच्छु का किनारा, और वही वांकानेर चोटिला वाला गरजता हुआ हाइवे। हाइवे पर पहुँचते ही पहले बाइक रोकी, उस टॉइलेटसीट वाली चाय की टपरी से खरीदी हुई पानी की आधी बची हुई बोत्तल एक ही सांस में गटक गया। और गजे को खूब चिढ़ाया, 'क्या गुंडा बनेगा रे तू.. मेप ठीक से देख नहीं सकता।'
आखिरकार इस हाइवे पर अब स्पीड तो मिलेगी.. हाँ गति घातक है प्रियंवदा, हरेक चीज में। गति की अति मार डालती है, चाहे रिश्ता हो या रोड..! कहाँ वांकानेर शहर में निकलने वाले थे हम और अब वांकानेर से हम आठ किलोमीटर पीछे थे। फिर तो अस्सी पर दौड़ाई है मोटरसायकल..! स्वीकारना पड़ेगा, fzx प्रेम के लायक तो है ही, आकर्षण तो मुझे है ही इससे। पिकप उतना नहीं देती लेकिन भारी वजनी होने के कारण रोड पर तेजगति में स्टेबल जरूर से रहती है। वांकानेर गया, ढुवा का बोर्ड आया, मैंने बाइक धीमी कर ली। क्योंकि यहां से ओवरब्रिज चढ़ना नहीं था मुझे। माटेल के लिए ब्रिज के निचे से रोड मुड़ती है। हाईवे से सात किलोमीटर अंदर माटेल गाँव है। रास्ते भर में थोकबंद सिरामिक फैक्ट्रियां है। इतनी मिटटी उड़ती है कि आँख न खुले..! ऊपर से बड़े बड़े ट्रक लोडिंग-अनलोडिंग के लिए यहां चलते है। बढ़िया आरसीसी रोड है तो हम धूल-मिट्टी की परवाह किये बिना माटेल पहुँच गए। माटेल में आई श्री खोडियार का मंदिर है। चारण कुल में जन्मी खोडियार को दैवीय आस्था से पूजा जाता है। राजशाही में प्राचीन राजाओ के साथ माँ खोडियार की कहानियां जुडी हुई है। जूनागढ़ के राजा रा'नवघण ने जब सिंध में फंसी अपनी मुंहबोली बहन को बचाने के लिए सिंध पर चढ़ाई की तब कहा जाता है कि खोडियार माँ ने ही उसे वहां तक पहुँचने में मदद की थी। तब से खोडियार रा'वंश के वारिसों की सहायक देवी के रूप में पूजी जाती है। सरवैया, चुडासमा, रायजादा की खूब आस्था है माँ खोडियार में। हमने दर्शन किये। प्रथम नवरात्रि पर द्वितीय मातृशक्ति को प्रणाम कर आशीर्वाद लेकर अब घर की और प्रयाण कर दिया।
अस्त होते सूर्य की पिली पड़ चुकी किरणे..
पौने छह को हम मोरबी थे प्रियंवदा..! रोड साइड एक बड़े पतीले में उबलती चाय को देखकर रहा न गया मुझसे..! वहीँ स्टॉप ले लिया, मोरबी में। कड़क चाय पी, एकाध नमकीन का पैकेट पेट में गया, और फिर एक मावा..! अब तो बस वही रास्ता, जिसे काटना था सिर्फ..! क्योंकि अब कोई नई जगह नहीं जाना था, घर जाना था। लग रहा था जैसे ऊर्जा ख़त्म होने आ रही हो। मेरी आँखे एकदम लाल हो चुकी थी। क्योंकि बाइक पर लगातार थानगढ से सामने की हवा में ही बाइक चला रहा था। ऊपर से इस थानगढ, वांकानेर, मोरबी की सिरामिक फेक्ट्रियो से उड़ती धुल। लेकिन शायद माताजी मेहरबान थी। प्रकृति अपने नए रंग के दर्शन दे रही थी मुझे। मोरबी के बाद माळीया, माळीया के बाद से सूरजबारी का वह समंदर पर बना ब्रिज शुरू हो जाता है। निचे समंदर के पानी को बांध कर बैठे अगर, उस पर अस्त होते सूर्य की पिली पड़ चुकी किरणे परावर्तित होकर एक पीला लेकिन अलौकिक सा प्रकाश जैसे देदीप्यमान हो उठा हो.. धीरे धीरे हवा की लहरे भी ठंडी होती जा रही थी। आँखे मेरी भारी हो चुकी थी लेकिन तब भी प्रकृति उसमे यह अनन्य तेज से जैसे आंजन कर रही थी।
सामखियाळी पहुंचा तब सूर्य अस्त हो चुका था। अब प्यास लगी थी खूब.. पुरे रास्ते, पुरे सफर में मुझे प्यास बहुत बार लगी है, एकदम से अनुभव होता है कि गला सुख गया है। रस्ते पर एक बढ़िया होटल देखकर स्टॉप ले लिया.. अँधेरा हो गया था, लेकिन क्षितिज अब भी लाल रेखा में सलंग्न था। आकाश में एकम का चन्द्रमा मानो किसी ने काले कागज़ पर एक सफेद रेखा खींची हो वैसा लग रहा था। होटल पर कई सारे मुस्लिम अपना रोजा ख़त्म करके शायद भोजन करने बैठे हो ऐसा प्रतीत हुआ। मैंने एक पानी की बोतल खरीदी, और वापिस पार्किंग में लौट आया। पानी पीकर एक मावा बनाया, फिर से बूस्टरडोज़ लेकर बाइक दौड़ा दी, सीधे भचाऊ पार करके अनुभव हुआ की अब तो बैठा ही नहीं जा रहा.. बाइक फिर से एक बार रोकी... कुछ देर बाइक से उतर कर यहाँ-वहाँ थोड़ी देर पैदल चला.. एक और मावा मुंह में भरकर बाइक दौड़ा दी.. अब तो जाना-पहचाना रोड था.. रात हो गयी तब भी मेरी बाइक अस्सी पर चल सकती थी। कुछ ही मिनिटो में मैं अपनी ऑफिस पर था। गजे ने अपनी बाइक उठायी, और फिर घर की और चल पड़े.. अब की बार मैं और गजा अलग अलग मोटरसायकल पर थे।
घर तो पहुँच गया प्रियंवदा, पर एक बड़ी गलती हो गयी..! कुंवरुभा के लिए खिलौना लेना ही भूल गया मैं। उसने कहा था मुझसे, फोन पर। जब मैं थानगढ से वांकानेर जा रहा था। मैंने सोचा भी था की माटेल में ले लूंगा। लेकिन वही, अस्त होते सूर्य की तरह अस्त होती यादशक्ति... घर आकर फिर उन्हें मनाने में ही सारी थकान मिट गयी मेरी।
इस सफर में मुझे वह सब अनुभव हुए..
ठीक है प्रियंवदा, मेरा सफर बहुत बढ़िया रहा। इस सफर में मुझे वह सब अनुभव हुए जो मैंने सोच रखे थे। थकान, प्रकृति की रंगमिजाजी, यात्रा का आनंद, शारीरिक क्षमता का परिक्षण, पहाड़ का परिचय, नदी का पथरीला किनारा, खुदी हुई जमीन की रज, खेतो की हरियाली से लेकर खेतो का पीलापन, सूर्य की तीव्र चुभती किरणों से लेकर मंद और सौम्य प्रकाश, घर आकर आयने में दिखा स्वयं का तेज धूप से काला पड चूका मुख तथा हाथ, इतिहास के पन्नो में पढ़े हुए गाँव, राजशाही ठाठ के प्रतीक दरबारगढ़ और पैलेस, बीहड़ के सुनकार को बार बार भंग करते कई सारे ट्रक्स, पेड़ की छांया, और फिर से एक बार मोटरसायकल से महोब्बत कर चूका मैं स्वयं..
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Dilawarsinh ke Camera se kuchh tasveere.. |
अस्तु एवं शुभरात्रि।
(३०/०३/२०२५)
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