आज मैंने पहली बार किसी सरकारी अस्पताल में कदम रखा || दिलायरी : २२/०४/२०२५ ||

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आज मैंने पहली बार किसी सरकारी अस्पताल में कदम रखा...

प्रियंवदा, आज मैंने पहली बार किसी सरकारी अस्पताल में कदम रखा है। सुबह जागने का तो नित्यक्रम ही बन चूका है, सात से साढ़ेसात के बिच में। तैयार होकर पहुंचा अस्पताल। केस लेने, या टोकन लेने..! पता तो था की सरकारी अस्पतालों के क्या हाल होते है..! भीड़, दर्दी, और भागदौड़। फिर भी सोचा एक बार इसे भी आजमाना चाहिए। मुझे प्राइवेट ज्यादा ठीक लगा क्योंकि वहां धक्के नहीं खाने पड़ते। आज पता चला कि लोग सरकारी अस्पतालों को इतना कोसते क्यों है..? जबकि वह तो मुफ्त इलाज करता है तब भी जिसे देखो वह सरकारी अस्पताल को कोसेगा ही। फ्री की सुविधा लेने के बावजूद। मुझे सरकारी डॉक्टर ज्यादा जानकार लगता है, प्राइवेट वाले से, क्योंकि उसने परीक्षा दी होगी तब जाकर उसे यह पद मिला होगा.. परीक्षा पास की है मतलब अन्य के मुकाबले ज्यादा होशियार है। 



तो सुबह लगभग साढ़े आठ को ही अस्पताल पहुंच गया था, बंद था। पौने नौ बजे खुलता है। सबसे पहला काउंटर बना हुआ है यह केस पेपर लेने के लिए। मैं पहली बार गया था, इस लिए सिस्टम मुझे मालुम नहीं था। लेकिन वह केस फाइल बनाने वाला व्यक्ति बड़ा ही शालीन था। कतार लगनी शुरू हो चुकी थी उसकी खिड़की पर। मैं सीधे दरवाजे से उसके पास चला गया। भाईसाहब ने सारी सिस्टम समझाई मुझे। पहले केस पेपर लेना है, फिर पेशंट को लेकर डॉक्टर के पास जाना है। डॉक्टर के पास लगी हुई कतार में फिर खड़ा होना है। और अपना नंबर आए तब निराकरण लेना है। अस्पतालों में भी अब बहुत कुछ डिजिटल होने लगा है। आभा नामक एक एप्प है, उस पर आप अपनी आईडी बनाकर डायरेक्ट अपॉइंटमेंट ले सकते है, वहां से सीधे ही केस नंबर मिल जाए फिर सीधे ही डॉक्टर के पास लगी कतार में। सुविधा अच्छी है, तो वह भाईसाहब प्रत्येक व्यक्ति को उसका केस पेपर देते हुए उसके फ़ोन में यह एप इनस्टॉल करवा रहे थे।


पेशंट हमारे कुँवरुभा ही है।

मैं केस पेपर लेकर पहुंचा घर, घर से कुंवरभा को उठाया। पेशंट हमारे कुँवरुभा ही है। यूँ तो कुँवरुभा एकदम तंदुरस्त फिट एन फाइन है। खेलना कूदना और तोड़फोड़ में अव्वल है, बोलना शुरू करते है तो अपने कान पक जाए लेकिन वे थकते नहीं। फिर भी एक छोटी सी समस्या है। उनकी जीभ की नोंक अपनी तरह बाहर नहीं निकलती। हमारी जिह्वा से जैसे उपले जड़बे के दांत छू सकते है, लेकिन वे नहीं कर सकते यह कारनामा। बोलते सब ठीक है, हकलाते भी नहीं है। लेकिन समस्या तो समस्या होती है, असामान्य लगता है थोड़ा। तो उसी चीज को डॉक्टर को दिखाना था। एक तो आज के समय में हम लोग थोड़ा ओवर पोजेसिव भी हो चुके है। छोटी सी चीज में भी डर बहुत जाते है। ओवरथिंकिंग करने लगते है। यह एक सामान्य बात ही है, जीभ का निचला हिस्सा कुछ ज्यादा जुड़ा हुआ होना। लेकिन इसे ठीक करवा लेना चाहिए। तो प्रायोरिटी पर सरकारी अस्पताल चले गए। रेग्युलर्ली तो एक प्राइवेट डॉक्टर फिक्स ही है, झुकाम से लेकर बुखार तक उनके पास ही जाना होता है। लेकिन यह तो सलाह मश्वरा लेने का मामला था तो सरकारी वाले के पास जाना तय हुआ। पहुँच गए। लम्बी कतार लगने लगी थी हरेक केबिन के आगे। बच्चो का अलग था, वहां भीड़ नहीं थी, अंदर एक २८-३० साल की युवती बैठी थी, या तो डॉक्टर होगी, या प्रेक्टिस वाला मामला होगा..! उन्होंने देखा, और दूसरी केबिन में जहाँ E.N.T. के डॉक्टर बैठते है वहां भेज दिया। धक्के शुरू.. यहाँ ज्यादा लम्बी कतार थी। ऊपर कोई पंखा भी नहीं था। नंबर आया, पहला काम साहब ने केस पेपर को अपडेट करवाने का किया, मुझे भेजा वहीं जहाँ सुबह मैंने केस पेपर निकलवाया था, इस पेपर में अब E.N.T. अपडेट करवाना था। मैं करवा लाया, और सीधे ही केबिन में जाने लगा तो कतार में खड़े लोग हो-हल्ला करने लगे। उन्हें लगा मैं कतार में खड़े होने के बजाए सीधे ही अंदर जा रहा हूँ। बताओ, यह भी अलग पंगे होते है यहाँ। साहब ने चेक किया, और कहा, 'ऑपरेशन होगा।' मैं सोच में पड़ गया, अभी तो साढ़े चार की उम्र है.. मुझे घबराहट होने लगी। मैं ओवरथिंकिंग में चला गया, ऑपरेशन करवा तो दूँ, लेकिन फिर यह तो जिह्वा का मामला, कुँवरुभा तो बोलना ही बंद नहीं करते, बड़बोले है, खाने-पिने में भी समस्या होगी, वगैरह वगैरह.. लेकिन सलाह चाहिए थी वह तो मिल गयी कि करना तो ऑपरेशन ही पड़ेगा।


होगा तो ऑपरेशन ही...

मैं वापिस चला आया, अब सोच रहा हूँ, कल अपने रेग्युलर वाले डॉक्टर के वहां दिखा लाऊँ। हालाँकि मैं भी जानता हूँ, समझता हूँ, कि होगा तो ऑपरेशन ही, लेकिन वही हिम्मत करने वाली बात है। एक बात और याद आ गयी.. पुरुष इस मामले बहुत कमजोर हो जाता है। मुझे एक बात याद आ गयी, एक बार हुकुम भी मुझे लेकर इसी तरह कमजोर पड़ गए थे। एक बार मुझे एक घाव सूखने बजाए फ़ैल गया था, चमड़ी पर सूखते ही बढ़ते जाता। स्किन स्पेशियलिस्ट को दिखाया, उसने दवाई दी, और ड्रेसिंग करवा दी, और ठीक हो गया। दोबारा जब ड्रेसिंग करवाने गया तो हुकुम ने डॉक्टर से ब्लड टेस्ट करवाने को लेकर पूछ लिया। डॉक्टर भी नेकी और पूछ पूछ करते मान गए। ब्लड सेम्पल दिलवाया, जब कम्पाउण्डर ने हाथ में सिरिंज की सुई लगाकर रक्त खिंचा तो हुकुम ने मुँह फेर लिया एक बार..! लग रहा था जैसे हुकुम को अति चिंता हो रही थी, मैंने कभी भी हुकुम को डरते-घबराते नहीं देखा था। पहली बार देखा था तो मुझे यह विचार कुरेदने लगा कि हुकुम इतने बड़े होकर एक सुई से डरते है? असंभव है यह तो। उनका एक बार एक्सीडेंट हुआ, और हाथ-पैर-सर पर पट्टी बंधी थी तब भी हँस रहे थे, और आज एक सुई देखकर मुंह फेर रहे है.. लेकिन तब समझ नहीं आया था। आज अच्छे से आ रहा है। जब कुँवरुभा के विषय में ऑपरेशन का नाम सुनकर मुझे चिंता होने लगी है, या मैं कुछ ज्यादा टेंशन पालने लगा हूँ सुबह से। पुरुष की कमजोरी उसका परिवार ही होती है। ताकत भी वही है। लेकिन जब उसे डरा हुआ देखना हो तो उसके परिवार पर आयी आफत में ही दीखता है। हालाँकि इसे डर नहीं कहना चाहिए, इसका कोई शब्द तो होता होगा, जो मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। 


दोपहर बारह बजे तक ऑफिस आ गया था। 

सुबह से बिल के लिए फोन आ रहे थे। अस्पताल में था तो किसी को जवाब नहीं दिया था। क्योंकि अंदाजा था की किस काम के लिए फोन आ रहे है। ऑफिस पहुँच कर सबसे पहले यही निपटा लिए, और फिर जिन जिन के कॉल्स अटेंड नहीं किये थे उन्हें रिप्लाय कर दिया। ऑफिस आते समय गजे का फोन भी आया था, बोला नाश्ता करके नहीं आया हूँ कुछ लेते आना आप। तो नाश्ता लाया था, राहु सूर्य का ग्रहण करे उसी तरह हम दोनों दो-दो समोसे निगल गए। फिर कुछ देर रील्स देखि, शॉर्ट्स देखे, फार्मिंग का नया नया कीड़ा काटा है, तो वे व्लॉगस देखे। कल भी दोपहर तक एक डॉक्टर के पास जाना है तो अभी से दूसरे तीसरे सारे काम निपटाने लगा हूँ, ताकि आज सुबह की तरह फ़ोन-कॉल्स बारबार डिस्टर्ब न करते रहे। कभी कभी तो लगता है जैसे मैं ऑफिस साथ लेकर चलता हूँ, ऐसा लोगो को लगता है। जब एक बार कह दिया कि दोपहर बाद काम देख लेंगे तब भी सामने पूछते है कि अभी काम हो जाए तो देख लो न एक बार.. कसम से एक बड़ी लम्बी चौड़ी गाली देने को मन कर जाता है। मतलब आदमियों में इतना भी कॉमन सेन्स नहीं रह गया है क्या कि कोई बाहर है, और बोल रहा है कि दोपहर बाद हो जाएगा तब भी पूछते रहते है। कुछ देर मैप्स में टहलने जरूर गया, लेकिन मन लगा नहीं। सोच रहा हूँ, कुँवरुभा को अभी से इन ऑपरेशन के चक्करो में उलझाना ठीक नहीं रहेगा। थोड़े बड़े और समझदार हो जाए तब भी यह हो सकता है। वैसे इसमें सही सलाह तो डॉक्टर ही दे सकते है। उस सरकारी वाले से मैं इतना संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ। क्योंकि इनके पास भीड़ बहुत रहती है तो ठीक से बात समझाते नहीं है। उसने मुझसे कहा कि मैं अपने से बड़े डॉक्टर से बात करके बताऊंगा। यह सब उतना गंभीर नहीं है जितना मैं सोच रहा हूँ, या लिख रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। ऐसी स्थिति में स्थिर रहना चाहिए। मन मक्कम / मजबूत रखना चाहिए। लेकिन रह नहीं पा रहा हूँ। बहुत पहले से ही पता चल गया था कि एक न एक दिन इससे गुजरना ही है। 


चलिए फिर, अभी समय हो आठ.. समयसर घर पहुंच जाना अच्छी आदत है प्रियंवदा, तुम्ही ने कहा होगा..!

शुभरात्रि।

(२२/०४/२०२५)


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