घूमते हुए दीव चला गया || दिलायरी : २१/०४/२०२५ || Dilaayari : 21/04/2025

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बहक जाना भी इस मन की बड़ी ही गन्दी आदत है।

प्रियंवदा ! लगता है जैसे बहक जाना भी इस मन की बड़ी ही गन्दी आदत है। बहक जाना मतलब कोई गलत इच्छा नहीं, लेकिन जो चीज असंभव होती है उसके प्रति आकर्षण अनुभव करना.. जैसे की आज इंस्टाग्राम चलाते हुए एक रील आयी, एक विद्यार्थी नौकरी करने के बजाए गाँव जाकर अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करने लगा..! उत्तराखंड में तो पहाड़ी जमीन पर खेती भी सीढ़ीदार होती है। उसका कोई पुराना खँडहर हो चूका मकान था, उसे भी ठीक करने लगा.. मुझे रसप्रद लगा, तो मैंने उसकी ID खंगाल ली, यूट्यूब लिंक मिली, और अपन तो है ही घुमताराम.. कुछ न कुछ नया ही चाहिए होता है। तो सुबह फ्री ही था, नौ बजे ऑफिस आ गया था। और सोमवार की सुबह लगभग कुछ ख़ास काम होता नहीं है। बिलकुल ही फ्री..! लग गए यूट्यूब पर, इसकी पूरी चैनल देखली, कुलमिलाकर ८-९ वीडियोस ही थी। सारी देख ली।



मुझे यह रसप्रद इस लिए लगा था कि जमीन तो हमारी भी है, खेती तो हम भी नहीं कर रहे है। ना हुकुम ने की कभी, न ही मैंने। मैंने तो कभी खेत पर चक्कर भी छह-सात सालों में एकाध बार लगाया होगा। गाँव जाना ही सालों में एक बार होता है। तो दो दिन रुकते है उसमे खेतो की और कौन जाए भला? वहां खेत तक जाना पड़ता है पैदल.. या तो मोटरसायकल से। गाँव में तो मोटरसायकल किसी की मांगनी पड़े। और वो काम अपन से होता नहीं है। तो पैदल ही चला जाता हूँ। वहां तक पहुंचते ही सांसे इतनी फूल जाती है कि कुछ देर बैठकर विश्राम तक करना पड़ जाता है। और मैं इन वीडिओज़ को देखते हुए मन ही मन खेती करने की सोचने लगा था। अचानक से मुझे नौकरी बड़ी ही नीरस और घृणास्पद तक लगने लगी, तथा खेती बड़ी ही मनभावक लगने लगी.. इसे ही बहक जाना कहा गया है। मैं खुद अपनी क्षमताएं जानता हूँ। चोटिला जैसा छोटा पर्वत चढ़ने में भी दो-तीन बार रुक जाना पड़ा हो, वो व्यक्ति खेती क्या करेगा? शहरी शरीर गांव की मेहनत में घुलने में काफी समय मांग लेता है। फिर भी वही ख़याली पुलाव.. मन ही मन, अपने पुराने गाँव वाले मकानों की मरम्मत करवाने तक का ख्याल गढ़ लिया.. 


इन पकते खयालो के बिच ही दोपहर हो गयी। 

एक बिल बनाना था, वो भी निपट गया। गजा आया, गया नमकीन लेने, भूख अचूक है, समयानुसार लग ही जाती है। बॉडीक्लोक नाम से अंग्रेजी चेप्टर हुआ करता था शाला में। दोपहर बाद, मेरा वह गढ़ किल्लो वाला लेख काफी लम्बा हो चूका था तो सोचा अब पब्लिश कर दिया जाए और समय समय पर उसे अपडेट करते रहना चाहिए। एक अच्छा सा फोटो बनाकर और लेख को थोड़ा आकर्षक बनाकर पब्लिश कर दिया। स्नेही को तो स्पेशियल भेज दिया। आजकल दिलायरी स्नेही को नहीं भेज रहा हूँ, क्योंकि दिलायरी में कोई ख़ास बात हुई नहीं होती थी। कल परसो ब्लॉग के स्टेटस देखते हुए पता चला, कुछ विदेशी ताकते भी इस ब्लॉग पर नजरे गढ़ाए बैठी है।


दोपहर बाद गूगल मैप्स पर घूमते हुए दीव चला गया।

दीव कुछ चारसो किलोमीटर दूर पड़ता है, लेकिन कभी जा नहीं पाया हूँ। दीव बदनाम है थोड़ा। बदनाम मतलब कि, अगर किसी को कहा जाए, कि दीव जाना है तो अगला सोच ही लेता है कि, 'पिने जा रहा है।' अरे भाई वहां समंदर किनारा भी है, देखने लायक किला है, गुफाएं है, यूरोपियन स्टाइल में बने स्थापत्य है, आईएनएस खुकरी का मेमोरियल है, और हाँ, आखिरकार वाइनशॉप्स भी है। लेकिन नहीं, दीव तो बस पिने के लिए जाते है लोग। दीव वगैरह और भी दो तीन नाम अपडेट किया। लेकिन ज्यादा समय दीव का विजयस्तम्भ खा गया। दीव में एक विजयस्तम्भ है, पोर्तुगीजों का बनवाया हुआ। तो जानने की इच्छा हुई कि इस विजय स्तंभ की क्या कहानी है.. गूगल सर्च किया, जानने को मिला की पोर्तुगीजों ने लगातार इजिप्ट की मामलक सल्तनत, कालीकट राज्य, और गुजरात सल्तनत को युद्धों में हराया था। तब जाकर उन्होंने ने दीव में अपनी सत्ता स्थापित की, और ठीके रहे भारत की आज़ादी के बाद भी। आखिरकार भारतीय सेना ने स्वतंत्रता के बाद लश्करी कार्यवाही करके उन्हें हराया और भगाया था।


खेर, अभी बज गए है आठ, और अब शांतिपूर्वक घर चले जाना चाहिए। क्योंकि दिनभर में गूगल मेप पर बहुत ट्रेवलिंग की है, और ट्रेवलिंग तो ट्रेवलिंग होती है, थकान तो हो ही जाती है। ठीक है फिर विदा दो प्रियंवदा, शुभरात्रि।

(२१/०४/२०२५)

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