चलो केदारनाथ चले चलते है.. || दिलायरी : १४/०४/२०२५ || Dilaayari : 14/04/2025

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सुबह सुबह नुकसान प्रियंवदा, 

वो भी ऐसा कि नुकसान के प्रति खेद भी व्यक्त न कर पाए..! सुबह घर से निकला तो पहला स्टॉप दूकान पर रहता है। एक समय था जब पहला स्टॉप जगन्नाथ जी के वहां होता था, पर अब पता नहीं क्यों.. मन ही नहीं होता.. नास्तिक तो नहीं हो चूका मैं? पता नहीं ! दूकान पर धुम्रदण्डिका का सेवन कर ही रहा था, कि एक छह-सात साल का बच्चा बड़ी तेज सायकल चलाता हुआ आया, उससे ब्रेक लगी नहीं और सायकल दे मारी मेरी बाइक के अगले टायर के मडगार्ड पर.. आवाज तो जोर की आयी, उसकी भी चीख निकल गयी और मेरी भी.. उसने सीधे ही 'सोरी-सोरी' बोला.. मडगार्ड प्लास्टिक का होता तो टूट गया होता, लोहे का था तो डेंट पड़ गया। स्क्रेच कर गया, सुबह सुबह.. दिमाग का पारा तो इतने ऊंचा चढ़ा था पर बच्चा था, क्या करूँ इसका..! उसने अपनी सायकल उठायी, सोरी बोला और डर के मारे भाग गया..! दूकान वाला थोड़ा बकबक ज्यादा करता है, वो मुझे समझाने लगा, 'अरे बापु ! यूँ समझो की आपके साथ कोई हादसा होने वाला था, वो टल गया। बच्चे ने आपकी घात ले ली। अपने बच्चे ने स्क्रेच मारा यूँ समझ लो..' अब उसे कैसे समजाऊँ कि कुछ पुरुष ऐसे भी होते है जिन्हे अपनी पत्नी से भी ज्यादा प्रिय अपनी मोटरसायकल या कार होते है। कुछ नहीं फिर, सुबह सुबह इस हताशा के साथ ऑफिस पहुंचा..!


Nuksaan se Samjhauta Karte Dilawarsinh...

अच्छा कोई चीज नसीब में होती है तो वह अपने आप पहुँच जाती है, 

हालाँकि यह एक नजरिया मात्र है। ऐसा कुछ होता नहीं है, व्यक्ति का अपना संघर्ष जवाबदार होता है। दिनभर तो कुछ काम करता नहीं मैं, बस पड़ा रहता हूँ ऑफिस में। एक तो सोमवार, ऊपर से आंबेडकर की जयंती है, सरकारी बाबू छुट्टी मना रहे है। तो हम जैसो को भी ऑफिस में बस पड़े पसरे रहने का आनंद प्राप्त होता है। तो सुबह नौ बजे ऑफिस पहुंच गया, गाड़िया पर गाड़ियां आ रही थी, लोडिंग के लिए। लेकिन एक भी निकलनी तो है नहीं। सरकारी छुट्टी है..  एक बात मुझे कुरेदती है, काहेकी छुट्टी भाई ? काम करो, अर्थतंत्र मजबूत करो। त्यौहारों की छुट्टी ठीक है, स्वतंत्रता और गणतंत्रता की छुट्टी ठीक है, लेकिन यह व्यक्ति विशेष के नाम पर छुट्टियां रखकर, काम बंद रखते है उससे देश का ही अर्थतंत्र धीरा पड़ता है। खेर, ऑफिस में बैठे-बैठे करे भी तो क्या..? फिर वही गूगल मैप्स पर गाँव देखना जारी.. बहुत से घूम लिए। स्ट्रीट व्यू के उपयोग से वर्च्युअल दीखता है। बड़े बड़े गढ़ के बुर्ज के निचे ही खड़े होना का अहसास दिलाता है यह स्ट्रीट व्यू। लेकिन आज ज्यादातर गाँव में थे ही नहीं, तो बस आगे आगे बढ़ता रहा। दोपहर को लाइट चली गयी, कंप्यूटर बंद.. तो गजे ने एक गेम के चक्कर में डाल दिया.. फिर तो वह गेम उतनी इंटरस्टिंग लगी कि चार बजे तक वही चली। दोपहर को बिहारी के समोसे ऑफिस पर मंगवा लिए थे.. बाकी धूप तो भाई बड़ी गजब है। हवाएं सब शांत हो चुकी है। बहुत तेज नहीं चलती, सामान्य होने लगी है।


आज फिर से गजा सपने दिखाने लगा.. 

बोला, गर्मी बहुत ज्यादा हो गयी है, चलो केदारनाथ चले चलते है। पंद्रह दिन वहां निकल जाएंगे.. जो गर्मी के दिन कम हुए..! जबकि वह और मैं दोनों ही जानते है की हम दोनों एक साथ ऑफिस से कभी नहीं निकल सकते। दोनों में से एक का ऑफिस पर हाजिर रहना अनिवार्य है। लेकिन खुली आँखों के ख्वाब देखने में कोई खर्चा नहीं होता.. पूरी बढ़िया प्लानिंग करने, समझने के बाद आखिरकार यही बात आनी तय है कि जाएं कैसे? या तो मिल बंद रहे पंद्रह दिन.. जो असंभव ही है। मैं और गजा इस मिल रूपी गाडी के दो बैल है। दोनों में एक भी हाजिर न हो तो गाडी चलेगी जरूर लेकिन गति धीरी हो जाएगी, और दोनों ही हाजिर न हो तब तो गाडी आगे हिले ही ना..!


जैसे जैसे शाम हो रही है, 

गर्मी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। मैं बहुत बड़ा आलसी हूँ प्रियंवदा..! अभी समय हो चूका शाम के साढ़े सात.. दोपहर बाद ऑफिस से बाहर ही अभी निकला हूँ। और मौसम काफी ठीक हो चूका है। गर्मी भरे गर्म पवन अब मंद हो चुके है। जैसे अग्निज्वाला की लपटें मंद पड़ चुकी हो, और बस अब शांत होने को आयी हो। सही है, जितनी अच्छी गर्मी, उतनी अच्छी वर्षा..! लेकिन मुझे गर्मियां बिलकुल ही पसंद नहीं.. और अक्टूबर तक अपने यहां खूब गर्मी होती है। असह्य.. प्रियंवदा, असह्य..! कोई प्रेम में एक बार मिला हुआ दगा सहन हो जाए, लेकिन यह गर्मी तो असह्य ही है। दगे से याद आया प्रियंवदा, विवाह टिकने आजके समय में असम्भव ही है। स्त्री अपने पति के गैरहाजरी में किसी अन्य पुरुष के साथ समय बिताने लगी है। पहले उल्टा था, पत्नी बेचारी थी, अब पति भी बेचारा और बेखबर बना घूमता है। कल रात्रि को ग्राउंड से लौट रहा था तो एक जगह भीड़ दिखी मिली, अब मेरा भी थोड़ा चञ्चुपाती जिव तो है ही, जानने चला गया.. और जानने को मिला यह की एक घर में एक पुरुष आता है, वह भी उस घर के पुरुष की गैरहाजरी में। मतलब कोई जोड़ा होगा, पुरुष नाईटड्यूटी करता होगा, और स्त्री किसी अन्य पुरुष को घर पर नाईटड्यूटी पर बुलाती थी.. कितनी घटिया बात लगती है न प्रियंवदा..! ज्यादातर पुरुष कभी न कभी इस परिस्थिति से गुजरते ही है। क्योंकि शायद किसी का भी मन एक से कभी भी भरता ही नहीं। स्त्री हो या पुरुष..! मुझे बड़ा दुखद लगा, उस पुरुष पर कैसी बीतेगी कि उसी के घर में उसकी पत्नी से मिलने कोई और आता है। उस स्त्री के बच्चे लगभग बारह-तेरह की आयु के होंगे.. फिर भी.. मतलब हद ही है।


दुनिया कुछ ज्यादा ही दोरंगी है प्रियंवदा..! यह तो वही हाल है की हर कोई अपने दोनों हाथो में लड्डू रखना चाहता है। खेर, अब विदा दो.. शुभरात्रि।

(१४/०४/२०२५)


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