एक सबक सीखना पड़ेगा || दिलायरी : १५/०४/२०२५ || Dilaayari : 15/04/2025

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जो मजे मिल रहे है उसकी किस्ते चुकानी पड़ रही है

आ गया आज भी अपनी बेकार सी जिंदगी का एक दिवस लेकर। बेकार सी जिंदगी इस लिए कहा कि अपने को चाहिए फुल मजे.. लेकिन हाल यह है कि यह जो मजे मिल रहे है उसकी किस्ते चुकानी पड़ रही है। और किस्ते चुकाने के लिए दिनभर काम करना पड़ता है, और काम करते है अपन ऑफिस में बैठकर.. बिलकुल बाहरी दुनिया से कटकर। हाल तो यह है कि दिनभर इस छह बाय छह के बक्से में बैठा हुआ मैं छह इंच के मोबाइल में ही सिकुड़ जाता हूँ। ज्यादा से ज्यादा इस ४२ इंची के कंप्यूटर के आगे बैठ जाता हूँ अपनी यह दास्ताँ लेकर। जिसका न कोई फायदा है न ही नुक्सान.. बस खींचे जा रहा हूँ, एक स्नेही मित्र है, उसे पता नहीं इसमें क्या मिल गया है, वो भी लगा पड़ा है, मैं भी लगा पड़ा हूँ।

Kishte Chukaate Dilawarsinh...

आज सुबह सुबह कुँवरुभा को रोना पड़ा है, 

क्योंकि उसे एक सबक सीखना पड़ेगा। उसे कोई कहता है कि चलो दुकान पर चॉकलेट दिलाता हूँ, और साहब चल देते है। दूसरी चीज, अपने यहां शहर होने के कारण बिनमालिकी पशु बहुत है, और पास ही गाँव भी पड़ता है, तो सांड बहुत घूमते रहते है। और सांड पर तो अब अपनी मालिकी जताए ही कौन? न ही कोई व्यक्ति, न ही कोई पंचायत, न ही कोई पालिका.. बेचारे आवारा घूमते टहलते है। तो कुँवरुभा घर के आगे से कोई सांड निकले तो उसकी पूंछ पकड़ कर पीछे पीछे चलते है। वही बालिश हरकते.. उन्हें क्या पता सांड सींग भी मारता है। तो सुबह सुबह डांट-फटकार पड़ी उन्हें की कोई भी कुछ खानेपीने की चीज दे तो लेनी नहीं है.. यही सब..!!!

सुबह दूकान पर खड़ा धुम्रदण्डिका का सेवन करते हुए ख्याल आया, दुनिया बड़ी जालिम है प्रियंवदा। बगैर मेहनत के कुछ नहीं देती, बगैर संघर्ष के उन्नति नहीं देती.. या तो फिर स्वीकारती ही नहीं दुनिया उसे जो कुछ करता ही न हो। सब को कुछ न कुछ करते ही रहना है। खाली बैठना महापाप है। एक तो गर्मी के कारण रात्रि को नींद नहीं आती, और जब तक अच्छी नींद का आगमन होता है, तब प्रभात की किरणे क्षितिज को भेदने लगती है, भगवन जगन्नाथ की झालर रणकने लगती है। सुबह ऑफिस पहुंचा, तो कल की गाड़ियां भर भर के खड़ी थी, दोपहर तक यही सब चलता रहा, कभी लिस्ट बनाओ, कभी हिसाब, कभी बिल.. लेकिन एक समस्या हो गयी। बढ़ती उम्र के आसार है प्रियंवदा। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम का ज्वार जैसे जैसे घटता जाता है, वैसे वैसे शारीरिक समस्याएं बढ़ती जाती है। दोपहर होते होते पेट में गड़बड़ी होने लगी..! सुबह नित्यक्रम से निजाद नहीं पाया था, ऑफिस पर टॉयलेट है, लेकिन गंदा ही रहता है। दूसरा वाला है लेकिन वहां पानी न होने का डर बना रहता है। तो बाइक उठायी और राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए घर तक का धक्का खाना पड़ा.. वो भी भरी दोपहरी के डेढ़ बजे.. ऐसी धूप में मैं ऑफिस से बाहर नहीं निकलता हूँ। लेकिन इस पर कोई कंट्रोल कर कर के कितना ही करे? घरवाले भी आश्चर्य में की आज दोपहर को घर का रास्ता कैसे नाप लिया..! लेकिन समस्या का आखिरकार समाधान हुआ, संधि हो गयी अगली सुबह तक शांति की। जब आदमी मुसीबत में होता है तब उसे और कोई बहानेभर के ख्याल नहीं आते, लेकिन अब आने लगे.. इतनी धूप में अब ऑफिस कैसे जाऊं? क्या शर्ट बदल लूँ? जो पहनी है वह हाल्फ-बाजू की है। हाथ जलता है। चेहरे पर भीगा हुआ रुमाल लपेटना चाहिए? या फिर एक काम करता हूँ, कार लेकर चला जाता हूँ। लेकिन फिर रात को ट्रैफिक जाम मिला तो? घर पहुंचते पहुँचते दस बज जाएंगे.. इन्ही सब विचारो में घर पर ही सवा दो बजा दिए। 

हिम्मत एक बार करनी पड़ती है, या दिखानी पड़ती है। 

दो-तीन साल पहले हाथो की स्लीव्स ली थी, वह ढूंढ निकाली। आलसी जिव शर्ट बदलने के बदले दूसरे पंगो में जरूर उलझता है। आखिरकार युद्ध के लिए सम्पूर्ण तैयार होकर निकल पड़ा, आँखों के लिए तो ब्लेक शेड्स पहनता ही हूँ, सर पर हेलमेट, चेहरे पर रुमाल बाँध लिया, हाथो पर स्लीव्स, और छलांग मारकर मेरे 'वाछटीया' पर चढ़ गया। जितनी त्वरा से चढ़ा उतनी ही त्वरा से एक बार उतर भी जाना पड़ा.. आधे-पौने घंटे से मोटरसायकल बाहर धूप में खड़ी थी। सीट सुलगने-सुलगाने पर उतारू हो चली थी, ब्रेक तथा क्लच तो हाथ लगाते ही भट्ठे से निकाले सरिये समान हो चले थे। जेकीदादा सही कहते है, 'भिड़ु ! झाड़ (पेड़) लगा।' लेकिन जैसे तैसे हिम्मत करके बैठ गया.. और दौड़ा दिया अपने वाछटीये को। ऑफिस पहुंचा तब आँखे तो बगैर ईर्ष्या की जलन के ही लाल हो चुकी थी। आँखों में पानी छिड़कने की सोची, लेकिन वह भी गलत निर्णय ही साबित हुआ। छत की टंकी से गर्मागर्म पानी नलका प्रदान कर रहा था।

वैसे आज सब कुछ बुरा ही हुआ ऐसा नहीं है, अच्छी बात भी हुई। एक मित्र के साथ एक विस्तृत चर्चा हुई, उपयोग से लेकर उपभोग तक, स्त्रीपुरुष की जाति समस्या से लेकर पक्ष-विपक्ष के समाधान के तक, आत्मलोचना से लेकर विशिष्टता की हानि तक.. लेकिन फिर भी मुझे कोई लाभ नहीं हुआ.. ऐसा कोई विषय, या ऐसी कोई रुचिकर बात नहीं मिल पायी जिसका मैं विस्तृतीकरण कर सकता.. शायद स्नेही के हृदय के कूप मैंने ही खाली कर दिए है की अब उनसे विषय की कामना करनी कठिन होने लगी है। लेकिन मैं हर तीसरे दिन भिक्षुक बन स्नेही के द्वारे 'विषयमदेहि' का अहालेक गुंजाता पहुँच जाता हूँ। स्नेही अपनी शक्ति तथा इच्छानुसार मेरे पात्र में मेरी पात्रतानुसार कुछ तो दान दे ही देता है। जब कोई आपको नियमित पढता हो तो वह कुछ न कुछ अन्वीक्षा जरूर से करता है। स्नेहीमित्र ने फट से कहा, 'आप तो बड़े प्रेम के आलोचक थे, प्रियंवदा से बात बात पर प्रेम की अनिच्छित व्याख्याएं गढ़ते रहते थे, कहाँ गया वह प्रेम..?' मेरे पास प्रत्युत्तर था ही नहीं। वैसे बात तो सही है प्रियंवदा, नास्तिक को भी उसी से समस्या होती है जिसे वह मानता नहीं। मैं भी प्रेम में मानता नहीं, क्योंकि मुझे उसका कोई अनुभव नहीं। या फिर मुझे दृष्टिदोष है। आँखों का तो दृष्टिदोष है ही, शायद अंतर्मन की आँखों का भी है। लेकिन मैं क्यों स्वीकारू? मैं तो यही कहूंगा न कि मैं सच्चा हूँ, संसार झूठा है। 

वैसे एक बात तय है, मैंने ही नोटिस की है। 

स्नेही से वार्तालाप के पश्चात शब्द फूट फूट कर निकलते है। वरना इतनी दिलायरी लिखने में भी मेहनत बड़ी लगती है। वही, मैं इसे ऋणानुबंध में ही खपाऊँगा। शाम होते होते स्नेही अपनी जीवनी में व्यस्त और मैं अपनी दिलायरी में मस्त। वैसे बडी देरी से शुरू की थी, लगभग पौने आठ को.. क्योंकि तब तक कामो में व्यस्त था, तथा एक गाड़ी लोड होनी बाकी थी उसके बिल का इंतेजाम करना था। दिलायरी लिखते समय मुझे एकांत चाहिए होता है। लेकिन ऑफिस में बार बार गजा आता रहता है, अपना टाइमपास करने मेरा अच्छा भला दिलायरी का टाइम खा जाता है। लेकिन गजा हमारा बहुत चालू है.. हुआ ऐसा था कि एक व्यापारी दो पेटी अनार दे गया था। कच्छ के 90% अनार बाहरी देशों में निर्यात हो जाते है। इस बार तो अनार ने लगभग रेकॉर्ड तोड़े है, पूरे गुजरात के अनार निर्यात में आधा योगदान एकमात्र कच्छ का रहा है.. बड़े बड़े अनार निर्यात हो जाते है, छोटे देशभर में घूमते है। यह अनार के दाने एक दम लाल चटक नही होते, हल्के गुलाबी से होते है, लेकिन अनार साइज में बड़ा रहता है। लगभग नौ बजे गए थे, दिलायरी लिख नही पाया था क्योंकि गजा, फिर एक व्यापारी, बीच बीच मे ध्यानभंग करते रहे थे।

गजा का मेरे प्रति लगाव खूब रहा है, जब भी कोई बात हो, गजा मुझे याद रखता है, साथ रखता है। वैसे तो हम गाड़ी के कारण लेक्ट हुए थे, लेकिन इस देरी का फल हमे अनार के फलस्वरूप जरूर मिला। गजा गया, एक पेटी खोली, दस दस अनार की दो थैलियां भर ली, एक उसकी एक मेरी। साढ़े नौ बजने को आये थे, घर पहुंचना इसी कारण से आधी छोड़ी दिलायरी ग्राउंड में पूरी करने बैठा, लेकिन यहाँ भी डिस्टरबन्स कुछ ज्यादा ही है। और वैसे भी अब लिखने को कुछ सूझ नही रहा, इसे यहीं अस्तु करते है।

शुभरात्रि
(१५/०४/२०२५)

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