पुरुषार्थ की परिभाषा, जो किताबों में नहीं होती
वह कितनी स्त्रिओं के साथ संबंध रखता है। पुरुषत्व वहां चरितार्थ होता है कि वह अपना घर कैसे संभाले हुए है..! पुरुषत्व उसमे नही की वह कितनी स्त्रिओं को आकर्षित कर सकता है। पौरुष उसमे है कि उसमे व्यवहारिकता कितनी है। लेकिन सामाजिक व्यवस्था बदलती जा रही है। स्त्री हो या पुरुष आकर्षण को सर्वस्व मानने लगे है। किसी एक का होकर रहना या किसी एक को पाकर रखना असंभव सा हो गया है। यह ताली भी दोनो हाथ से बज रही है। स्त्री भी किसी एक कि नही रहती है, पुरुष तो है ही दैहिक आकर्षण का गुलाम..!
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पवन, पंखा और परेशानी
क्या करूँ, यहां दुकान पर बैठे बैठे जो दिखा वह लिख दिया। कल रात से अपने यहां पवन गति बहुत तीव्र है। वैसे भी चैत्र में हवा के मुक्त बहती है। बेरोक बहती है। पता नही किस बात की जल्दी है। सुबह ऑफिस पहुंचा तो काम तो कई सारे थे, लेकिन सारे आराम आराम से करने थे। ग्यारह बजे इलेक्ट्रिशियन आया। पावर लोड का प्रॉब्लम था ऑफिस में। एक घण्टे उसने पावररूम में माथाफोड़ी करके आखिरकार सफलता पाई। इस दौरान बगैर बिजली के ऑफिस में अपना क्या काम.. कुछ देर बाहर टहलने निकल पड़ा। कच्चे रोड पर तीव्र कड़क धूप, और पवन की गति सामान्य से बहुत ज्यादा। धूल इतनी उड़े की आंखे न खुल पाए। कुछ देर में ही खोटे सिक्के की तरह वापिस ऑफिस में ही आ गया।
दोपहर को काम करते करते याद आया कि घर का पंखा बिगड़ चुका है। सोचा रिपेयर करवा लाउं। गजा पास में ही बैठा था, बोला आज तो जुम्मा है। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि इसे कैसे पता कि मैं जिससे पंखा रिपेयर करवा रहा हूँ वह मुस्लिम है। हालांकि बाद में पता चला कि उसने तो ऐसे ही कहा था कि आज जुम्मा है। मैने कारीगर को फोन मिलाया उसने उठाया नही तो लगा मियां नमाज के लिए गया होगा। तीनेक बजे वापिस फोन किया तो उठा लिया.. उसने बताया पंखा छोड़ जाओ दुकान पर। अब तीन बजे तो फिर से ऑफिस के काम निपटाने थे तो शाम पर ताल दिया। शाम तक काम चले ऑफिस के ही, साढ़े सात बज गए पता न चला।
वैरवृत्ति की वह लौ, जो बुझती नहीं
वैसे पता तो चला था जब अचानक से मेरी वैरवृति जाग गयी थी। पता नही पहले से ही मुझे वैरवृति बहुत रही है। जैसे बदला लेना ही लेना है। एक बार किसी ने मुझ पर अकारण ही एक आरोप डाल दिया था, हालांकि मैं बच गया था। लेकिन मैं भूलता नही, भूला नही। आज शाम को जब बिल बनाना था तो बहाने मारकर कल पर टाल दिया। और शाम को जल्दी घर पर आ गया। पंखा प्रियंवदा पंखा.. पंखे के बिना तो इस गर्मियों में बिल्कुल ही न रहा जाए.. घर पहुंचते ही पहला काम पंखा उतारा, उसके तीनो पंखिये अलग किये और ले गया कारीगर के पास.. उसने दस बजे का बोला था, लेकिन अभी साढ़े दस हो चुके.. कारीगर आदमी सच तो कभी भी नही बोलता।
पंखा रिपेयर करने की कथा और जीवन के प्रतीक
अगला मेहनत कर रहा था पंखे में और मैं उससे बाते किए जा रहा था, उसको डिस्टर्ब करने का अर्थ है अपने ही पंखे में नुकसान करवा लेना। खेर, यही सब जीवनचर्या के चलते कभी कभी तो लगता है कि एक आदमी कितना कुछ संभालने को बाध्य है। उसे नौकरी भी देखनी है, दिनभर में ऑफिस के साथ साथ घर की जरूरतें भी पूरी करनी है, उसे कोलू के बैल की तरह लगातार चलते रहना है। रुकना नही है। रुकते ही कोड़े पड़ेंगे, समय के, पीछे छूट जाने के, कमजौर पडने के, और भी कई सारे.. लेकिन कभी भी कोई भी बैल रुका नही जब तक वह मरा नही।
पुराने मित्र, शाखा की बैठकी और रात १२:३४
लगभग साढ़े दस पौने ग्यारह पुराने मित्रों का फोन आया, हमारी शाखा को एक वर्ष पूर्ण हो चुका है तो काफी सारे मित्र आए थे। तो मैं वहां बैठने चला गया। उसी दौरान पंखे वाले का भी फोन आया कि, 'बापु ले जाओ, पंखा तैयार हो गया है।' तो बीच सभा को छोड़कर पंखा घर देने चला गया। वापिस चौक में आया.. बहुत सारी बाते, ढेर सारी बाते, ढेर सारे मुद्दे.. ध्यान गया फोन पर तो समय हो रहा था १२:३४। फिर भी किसी का मन था नहीं उठने का। हमने अगोचर विश्व से लेकर इतिहास तक चर्चाएं की। हँसी-ठिठोली, और गंभीर बाते.. पुराने दिन याद आ गए जब पहले हर रविवार का यही नियम था। साम पांच-छह बजे बैठते तो ग्यारह बजे उठा करते। खेर, लगभग एक बजे हम उठे, अपने अपने घर को रवाना हुए। और मेरी तो नींद न आने की समस्या है। बिस्तर में पड़ते ही पचासेक करवटें लेने के बाद लगभग डेढ़ या दो बजे नींद आयी थी।
शुभरात्रि।
(११/०४/२०२५)
प्रिय पाठक:
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गुजराती में पढ़िए (इजराइल हमास कनफ्लिक्ट)


मुद्दा तो सच में गम्भीर है, इसी के चलते तो आजकल अपराध इतने बढ़ गए हैं उस क्षेत्र में
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