सुबह का शोर: एक सांड, एक गाय और एक बाल्टी पानी
आज जब घर से निकला तो सुबह पहला स्टॉप तो हंमेशा की तरह दूकान पर ले लिया..! धूम्र को गले से उतारा ही था कि एक गाय और सांड लड़ पड़े..! शायद ऋतु के प्रभाव से सांड गाय के पीछे पड़ा था, गाय मना कर रही थी, और बात शिंग भिड़ाने तक की बढ़ गयी.. अब झगड़ते पशुओ के बिच मेरी मोटरसायकल आ जाए उससे पहले मैंने अपनी मोटरसायकल साइड की, और फिर दूकान से पानी भरी बाल्टी सांड पर दे मारी.. और उस तरफ से गाय ने भी शिंग मारे, लेकिन सांड की ताकत ज्यादा होती है, एक तरफ से गाय को भागना पड़ा, दूसरी ओर से मुझे..! फिर मैंने अगला स्टॉप दूसरी दुकान पर लिया..!
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Idhar Udhar ki baate aur Dilawarsinh.. |
वाराणसी की चीख और देश का मौन
वहां से अपने बूस्टरडोज़ लेकर कानो में ब्लूटूथ लगाए, और ऑफिस की और चल दिया.. रास्ते भर एक समाचार कानो में गूंजता रहा। बड़ा ही क्रूर और विचारणीय समाचार था। वाराणसी में एक १९ वर्षीय युवती पर सामूहिक बलात्कार हुआ.. लगातार सात दिनों तक अलग अलग कुछ २३ व्यक्तिओने इस क्रूरता की तमाम हदें पार की। लड़की को कोई कुछ पिलाकर होटल ले गया, कोई कुछ खिलाकर कार में ले गया, तो कोई विडिओ के जरिए ब्लेकमेल कर के किसी गोदाम में ले गया। लड़की नशे की हालत में सब कुछ सह गयी..!
लेकिन एक बात मुझे अभी तक समझ नहीं आ रही कि लड़की को सात दिनों तक अलग अलग लोग इधर उधर ले जाते रहे तो उसने इस ट्रांसपोर्टेशन के दौरान विरोध क्यों नहीं किया होगा? अस्सी घाट से लेकर औरंगाबाद तक पशुता बरती गयी उस लड़की पर.. कोई इंस्टाग्राम का मित्र था, कोई क्लासमेट था, कोई मित्र था। उन सब ने उस लड़की का बस देह देखा..! पशुता की तमाम हदें पार कर दी है.. वास्तव में बलात्कार के प्रति लोगो में कोई भय है ही नहीं शायद। कुछ दिनों पहले एक इसरायली लड़की पर अत्याचार हुआ था, उसके बाद एक कोई यूरोपियन लड़की थी.. अपने देश की स्त्रियां तो भुगतती ही है। अब तो लगता है इन्हे सरेआम दंड देना चाहिए।
बलात्कारियों के लिए कोई मानवाधिकार नहीं!
बलात्कार के केसो को प्राधान्य देकर फ़ास्ट ट्रायल होना चाहिए। और चार-पांच दिनों में फेंसला हो जाना चाहिए। ऐसी कम्प्लेंट्स आये तब पुलिस अपने बाकी सारे काम छोड़कर इसमें ही लग जानी चाहिए, और दोषियों को भरे बाजार सजा करनी चाहिए। यह मानव ही नहीं है, तो इनका मानवाधिकार काहे का? अपने यहां एक पुलिसवालों का मुंहबोला नियम है, कोई भी गुंडा बनने की कोशिश करते पकड़ा जाए तो पुलिस वाले उसे रस्सी से बांधकर भरे बाजार उसका सरघस निकालते है। और वह दोषी लंगड़ाता हुआ सर झुकाए चलता है। लेकिन कुछ दिनों पूर्व सुना की किसी वकील ने इस सरघस पर रोक लगाने के लिए मानवाधिकार का हवाला देते हुए रोक लगाने की मांग कर दी..! क्या इन वकील साहब के पास और कोई काम नहीं होगा? जब यह मानव के भेष में भेड़िये ही है तो इनका किस बात का मानवाधिकार?
ऑफिस, गर्मी और बिजली की मारामारी
ऑफिस पहुंचा, दो गाड़ियां लगी थी, काम फिर भी कुछ नहीं था। फिर वही कुछ देर मैप्स में घूमते हुए अपने उस ड्राफ्ट को अपडेट करता रहा। लेकिन आज ऑफिस में लाइट की बड़ी गंभीर समस्या रही। शायद लोड ज्यादा हो जाता होगा, होता कुछ ऐसा है कि जब भी ac चालु करता हूँ तो कम्प्यूटर को पावर देता ups में पावरकट्स होने लगते है। ac बंद कर दूँ तो फिर नॉर्मल हो जाए। इन्शोर्ट ac चल नहीं पायी, और गर्मी तो थी, लेकिन कम थी आज। लू तो तगड़ी ही चलती है। दोपहर को पड़ोसी के यहां कुछ एकाउंट्स में उलटफेर हो गयी थी, तो उसे ठीक करने जाना पड़ा।
वापिस ऑफिस आया तो गजा होटल से खाना ले आया था। बढ़िया दाल और रोटियां। लंच के बाद फिर से एक बार मैप्स में लगा जरूर लेकिन एक गाँव का नाम पढ़कर लगा जैसे कहीं सुना है, माछरडा... माछरडा गांव के पास एक टेकरी है, वैसे टीला कहना ठीक रहेगा, इतनी छोटी है कि उसे 'धार' कहते है। इस धार पर मेप में कुछ दिखा, तो ज़ूम करने पर लिखा आया, 'कीर्ति स्तंभ'। तो क्लिक करने पर पता चला 'देवा माणेक का कीर्तिस्तम्भ बना हुआ है।' कहानी थोड़ी विस्तार से बताता हूँ।
बात कुछ यूं हुई थी कि,
'ओखामण्डल में राज हुआ करता था वाढ़ेरो का। वाढेर राजस्थान से आये राठौड़ राजपूतो की एक शाखा है। ओखा में द्वारिका से कुछ दूर, 'आरम्भडा' उनकी राजधानी थी। कच्छ का राजकुंवर रूठ कर अपनी बुआ के पास आरम्भडा आया था। आरम्भडा में एक वाघेरकन्या (वाढेर और वाघेर अलग है।) उसे दिखी, वह कन्या अपने सर पर पानी के दो मटके लिए हुए थी और हाथ मे नवजात भैंस का बछड़े की रस्सी पकड़ी हुई थी। बछड़ा कूद रहा था लेकिन फिर भी वह कन्या ने इतनी मजबूती और स्थिरता से उसे पकड़ हुआ था कि सर पर रखे घड़े से एक बूंद भी पानी नही छलक रहा था।
कच्छ का कुंवर सोच में पड़ गया। उस वाघेरकन्या की अपारशक्ति से प्रभावित हुआ, उसे विचार आया कि इसकी कोख से जन्मे किसी दिन अमर नाम करेंगे। कुंवर ने गद्दी त्यागकर उस कन्या से विवाह कर लिया। उसे जो पुत्र हुआ उसे देखकर लोगो ने कहा यह तो माणेक (लाल हीरा) जैसा है, तब से वाघेरो में वह माणेक शाखा सबसे ऊंची कहलाने लगी। धीरे धीरे उस माणेक शाखा ने समस्त ओखामण्डल पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
लेकिन उन दिनों गायकवाड़ और अंग्रेजो की गोरी पलटन साथ मिलकर बहुत कुछ दबा चुके थे। ओखा-द्वारिका भी निगल गए। माणेको को दरकिनार कर दिया। धीरे धीरे माणेको का गुस्सा बढ़ने लगा। गायकवाडी फौज माणेको की स्त्रिओं पर भी नजर डालने लगे। लेकिन अंग्रेजी पलटन और गायकवाड़ी फौज के मुकाबले माणेक संख्या में न बराबर थे। एक तरफ देशभर में १८५७ का विप्लव चल रहा था, ठीक उसी समय एक रात्रि को माणेक इकट्ठा हुए और द्वारिका पर धावा बोल दिया, असावधान गायकवाड़ी सैनिक कुछ देर सामना कर के भाग गए।
बहारवटियों की नीति: शुद्ध विद्रोह
द्वारिका से लेकर ओखा तक पुनः माणेको ने जोधा माणेक के नेतृत्व में एक बार तो प्राप्त किया। लेकिन उन्हें भी पता था कि संख्या में नही जीत सकते। बहारवटिया युद्धनीति का अनुसरण किया। बहारवटिया मतलब एक ऐसा व्यक्ति या समूह जो किसी अन्याय के सामने सशस्त्र आंदोलन चलाए। लेकिन इस नीति के नियम बहुत कड़े थे। बहारवटिया का सीधा अर्थ बारह व्रत को धारण किया हुआ। धर्मस्थल को लूटना नही, पत्नी के सिवा तमाम स्त्री को अपनी ही माँ-बहन समझना, साधु-सन्यासी फकीरों को चोट नही पहुंचानी, नवविवाहित जोड़ी अखंड रखनी, गरीब तवंगर को मारना नही, मंगल प्रसंग या कोई मृत्यु के प्रसंग पर लूट नही करनी, बालक वृद्ध या अबला पर अत्याचार नही करना, दहेज तथा धर्म की जोली नही लूटनी, अधर्मी तथा जुल्मी को कभी छोड़ना नही, अपनी टोली में दगा नही करना, और मुखी न कहे तब तक गांव लूटना नही.. ऐसे बारह नियमो को माने वह बहारवटिया।
जोधो माणेक, मुळू माणेक, और देवा माणेक
यह तीन नाम बहुत प्रसिद्ध हुए। द्वारिकाधीश राजा रणछोड़राय में इनकी अपार श्रद्धा थी, एक गांव को लूटते समय एक किशोर के पैर का चांदी का तोड़ा (पैर में पहना जाता आभूषण) टूट नही रहा था, और किशोर रो पड़ा तब उसकी बहन ने कहा कि 'माधवराय देदे उसे वह।' माधवराय शब्द सुनते ही उन बहारवटियाओने उस किशोर जिसका नाम माधवराय था उसे छोड़ दिया। माधवराय मतलब द्वारिकाधीश, कृष्ण को कैसे लूटे? इतने नीतिवान हुआ करते थे वे बहारवटीये.. फिर से एक बार अंग्रेजी पलटन और गायकवाडो का जोर बढ़ने लगा।
जोधा माणेक स्वर्गवासी हो चुका था, और अब इस अभियान का नेतृत्व मूळू माणेक कर रहा था। लेकिन देवा माणेक अब डगमगाने लगा था। लगातार भागते रहना, नियमो का पालन करते हुए किसी गांव को लूटना। बहुत कठिन है। वह अलग हो गया, नीति चूक गया। और मर्जी पड़े उस तरह लूटने लगा। उधर मुलु माणेक का एकमात्र शत्रु गोरा था, गोरों को 'टोपी' कहा करते थे। बड़ा प्रसिद्ध दूहा है, अर्थ है कि मुलु का एक हाथ मुछ पर, दूसरा तलवार की मूठ पर, अगर तीसरा हाथ होता तब भी गोरे को सलाम न करता।
नवानगर और पोरबंदर की सेना
अंग्रेजी संधि के कारण नवानगर और पोरबंदर की सेना भी इन लोगो को भगाया करती। और गायकवाड़ी के साथ अंग्रेजी पलटन इनके पीछे पड़ी ही थी। तब भी वे लोग गांव लूटते, पैसा दान करते, थोड़ा बहुत घरखर्ची का रख लेते। गोरों की नाक में दम कर रखा था इन्होंने। एक दिन देवा माणेक को पोरबंदर की सीमा से भगाया गया, वह भागते हुए माछरडा की धार पर पहुंचा। बहुत कम साथी थे फिर भी बंदूकें फूटी, गोरों के दो अफसर हेबर्ट और लाटूश हिम्मत कर के उन्हें पकड़ने धार पर चढ़े, लेकिन दोनो को देवा ने मरते मरते अपने साथ सुला दिया। दोनो गोरों की कब्र उस धार पर ही बनी। पलटन ने देवा की लाश को पेड़ पर लटकता रखा था, जिसे बाद में मुलु माणेक ने छापामार हमला करके छुड़ा लिया था। और देवा माणेक का बादमे कीर्तिस्तम्भ बना।
अंग्रेज अफसरों का अपनी बंदूक से शिकार किया था उसने। हालांकि एक और कहानी भी कही जाती है कि देवा जब मुलु से अलग हुआ तो उसने अत्याचार करना शुरू कर दिया था, एक अहीर नवविवाहिता पर बलात्कार किया था उसने। उस अहिरानी के पति अहीर ने पोरबंदर में फरियाद की, पोरबंदर की फ़ौजने देवा को भगाया। अंग्रेजी पलटन भी देवा के पीछे पड़ी और माछरडा कि धार पर गोलीबारी शुरू हुई। माछरडा कि धार बहुत छोटी है, इस लिए उन बहारवटियाओने गड्ढे खोदकर सामना किया। जब हेबर्ट को मना करने पर हेबर्ट धार पर चढ़ने लगा तो वह देवा की गोली का शिकार हुआ। और देवा भी मृत्यु के शरण मे जा ही रह था लेकिन एक भरी बंदूक के साथ बेहोश होने का नाटक करने लगा, तभी एक और गोरा अफसर लाटूश देवा की लाश देखने आए तब देवा ने उस पर गोली छोड़ दी। इस तरह दो अंग्रेजो को मारकर देवा भी मृत्यु के शरण हुआ..'
KirtiStambh of Deva Manek |
बड़े दिनों बाद एक गांव का नाम पढ़कर पूरी कहानी आंखों के आगे से फ़िल्म की माफिक चली..! इतिहास में तो ऐसे कई सारे प्रसंग है। लगभग शाम के छह बजे गए थे। लिस्ट में आज तो कुल दसेक नाम ही बढ़ पाए थे, कुल तीस-बत्तीस गांवों में गढ़, या ऐसा कोई विशिष्ट स्थापत्य की लिस्ट बना पाया हूं। हालांकि यह तो मैं अपने टाइम पास के लिए कर रहा हूँ तो मुझे कोई जल्दी नही है। एक और गांव में एक प्राचीन सूर्यमंदिर देख रहा था। गूगल मैप्स का स्ट्रीट व्यू वास्तव में रोचक है। खेर, साढ़े सात हो गए और याद आया दिलायरी? वो तो भूल ही गया.. पौने आठ को लिखनी शुरू ही की थी कि गजा आ धमका, बोला 'चलो, ड्यूटी ऑफ हो गई, ओवरटाइम नही मिलता है अपने को। तो फालतू में क्यों बैठना है..?' और वैसे भी मैं बैठता तो गजा भी बैठ जाता और लिखने देता नही। इसी कारण घर आ गया।
घर आते ही...
कुँवरुभा को बाइक पर एक चक्कर लगवाया, रास्ते मे दुकान आते ही उस बाहुबली में हैंडल मोड़ दिया.. घर पर भोजनादि से निवृत हो कर फिर आया दुकान, लेकिन वहां डिस्टर्बेंस ज्यादा थी तो अपने वही पुराने साथी मैदान में बैठा लिख रहा हूँ। दिनभर चली लू रात को ठंडे पवनो में तब्दील हो जाती है, और दिनभर तपे शरीर को जैसे मलहम लगाती बहती जाती है।
दो दिशाओं से खुले सांड के गरजने की आवाजें आ रही है। यह बिनमालिकि के पशु को तो नगरपालिका भी नही रखती। दुनिया कितनी स्वार्थी है प्रियंवदा, गाय तो बांध लेती है, सांड खुले छोड़ दिये जाते है। और अब तो खेती में भी निरुपयोगी यह सांड बस जो मिले उस पर निर्भर रहते है, और अधूरे भोजन के कारण गुस्सेल होकर एक दूसरे से लड़ पड़ते है.. मैदान में आया तब भी दो सांड लड़ रहे थे। फिर एक हार स्वीकारकर भाग गया। तब से दोनो ही अलग अलग दिशा से आवाजे निकाल रहे है। दुनिया का दस्तूर ही ऐसा है प्रियंवदा, आपका उपयोग खत्म होते ही आपकी कीमत कुछ भी नही।
चलिए अब विदा दीजिए। शुभरात्रि।
(०९/०४/२०२५)
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