मोटरसायकल की एवरेज और सुबह का संशय
सुबह ऑफिस पहुंचा तब साढ़े आठ बज रहे थे..! सवेरे पौने छह को जगा दिया गया था। इतना जल्दी जागने का लाभ फिर भी कुछ न हुआ। हुकुम को बस डिपो छोड़ने जाना था, साढ़े छह को। आज सवा आठ को तो दुकान पहुंच गया था, एकाध बीड़ी और मावा दबाके निकला तो सीधा स्टॉप ऑफिस पर ही.. बड़ी कमाल की बात एक लगी मुझे, उस दिन मतलब पिछले रविवार को साढ़े आठसौ का तेल डलवाया था मोटरसायकल में वो अभी तक खत्म नही हुआ.. मतलब समझ रहे हो, आदमी को अच्छी एवरेज आ जाए तब भी टेंसन होने लगती है। वैसे समझ तो नही आ रहा कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ लेकिन आज शाम को घर जाते हुए फिर से उसे थोड़ा फिलअप करना पड़ेगा..
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Kare to kare kya Dilawarsinh... |
ऑफिस का शनिवार : काम था भी, और नहीं भी...
सुबह ऑफिस आ तो गया, शनिवार होने के बावजूद काम एक धेले का नही था आज। सुबह से दोपहर तक फिर पुराने बाकी हिसाब को पूरे करने में व्यतीत किया। दोपहर हुई, मैं और गजा हां-ना - हां-ना करते हुए आखिरकार मार्किट चले ही गए। काम भी था वैसे। लू बड़ी जबरजस्त चलती है, और मौसम वैसे भी बहुत गर्म है। मुंह पर रुमाल तो लपेट लिया, लेकिन आंखों में जैसे कोई गर्म भट्ठी का धुंआ मार रहा हो..
पहले तो सारा काम निपटा कर पन्द्रह मिनिट सोचने में समय निकाला कि आज नाश्ता क्या किया जाए? कयच्छ हल्का फुल्का ही करना था। 'कभी बी' में चले गए, एक पफ चपत कर गए। उसके वहां लाइट थी नही तो ज्यादा गर्म भी नही था। उसके बाद एक नई आइटम ट्राय की, नूडल्स रोल। मतलब लोग फ़ूड आइटम के नाम पर कुछ भी बेचते बनाते है। एक तरफ चीन ai को और एडवांस कर रहा है, और एक हमारे यहां पाव के बीच मे नूडल्स भरके बेच रहे है। मेरे जैसे मूर्ख चखने के नाम पर खरीदते भी है। मेरी तोंद कम न होने के कई कारणों में से एक यह भी है।
विचारों का खालीपन और लेखनी की सुस्ती
शाम हुई, काम थोड़ा बहुत था, बड़ी जल्द ही निपट गया, आज का शनिवार उतना भारी नही था। लेकिन कल का रविवार फिर से सरदार चार बजाएगा उसका जरूर भरोसा है। मैं अगर हाजिर हूँ तो वो सारे हिसाब में छोटी सी छोटी डिटेलिंग में काम करता है। और उसके चक्कर मे मैं लैट हो जाता हूँ। वैसे दिनभर तो हमेश की भांति यूट्यूब पर कुछ न कुछ सुनता रहता हूँ। आज वही pd के लेक्चर सुन रहा था, चचा ट्रंप ने ट्रेडवॉर छेड दी है, और चीन मैदान में उतर चुका है। यह दो सांड झगड़ेंगे, और पूरा खेत बर्बाद करेंगे.. घसीट जाओ भाईसाहब, वैश्विक मंदी को एक बार अनुभव की है, एक बार और सही।
खेर, आज दुकान पर बैठे बैठे भी कोई ख्याल नही आ रहे लिखने के। दिनभर खाली खाली ही लगता रहा। न कुछ नया लिखने का सुझा, न कुछ नया पढा। हाँ, अभिलेख पटल पर कुछ पन्ने पढ़े, लेकिन अब तो उसमे भी उतना रस नही होता, ज्यादातर कोर्टकेस ही है। एक जैसी भाषा पढपढके उसमे भी अब मजा नही आता। ठीक है, आज यहीं अस्तु कर लेते है।
शुभरात्रि।
(०५/०४/२०२५)
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