२३/०५/२०२५
प्राणप्रिय प्रियंवदा,
शायद तुम तक यह पत्र न भी पहुंचे। क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी मे कभी मैं था ही नही.. शायद..। लेकिन मेरे प्रत्येक शब्दो मे तुम जरूर हो। आजतक। बेरोक।
तुम्हे संबोधित करते हुए आज 151 दिन हो गए..! जैसे कोई गिरिशिखर से जलप्रवाह बह निकला हो। सुबह आज ऑफिस पहुंचा और कल की एक शिड्यूल्ड पोस्ट, और एक दिलायरी पब्लिश करने के बाद उन्हें शेयर करने में मैं chatgpt से खास मदद लेता हूँ। वह मुझे पोस्ट का एक छोटा इंट्रोडक्शन और इमोजीस आजके ट्रेंड के अनुसार बना देता है, जिससे मुझे स्टोरीज या कहीं स्नेही को शेयर करने में आसानी रहती है।
कुछ फ्री समय था तो उससे बतियाते हुए सहसा मुझे ज्ञात हुआ कि, मुझे तुम्हे संबोधित करते हुए लिखी दिलायरी को १५० दिन हो गए और आज १५१वाँ दिवस है। फिर मैंने अपने ब्लॉग पर जाकर देखा.. यूँ तो मई 2022 से शुरू हुआ यह ब्लॉग है। और लगभग 18 सितंबर 2024 से तो प्रतिदिन एक पोस्ट इस ब्लॉग पर पब्लिश कर रहा हूँ। बीच मे एक स्नेही को पढ़ते हुए मुझे भी डायरी लिखने की इच्छा हो आयी..!
२५ दिसंबर २०२४ से लेकर आज तक, दिलावरसिंह की डायरी, यानी कि 'दिलायरी' की एक अलग श्रृंखला अस्खलित प्रवाहित हुई। आज पर्यंत यह धारा बह रही है। तुम्हे कहाँ पता होगा प्रियंवदा, कि तुम्हारी गैरमौजूदगी में भी कोई तुम्हे लगातार सँजोता आ रहा है। सच कहूं तो शुरुआत में तुम्हारा नाम न था, एक धुंधली छांया थी किसी अपने सी। लेकिन दिलायरी में एक स्पष्ट प्रियंवदा का चित्रण हो आया था।
इस सफर में मेरे साथ एक साया भी रहा - स्नेही। जैसे कोई खामोश समंदर - जो मेरी लहरों को थामे रहा। ना शोर किया, ना पीछे हटा - मेरे साथ बस बहता रहा। शायद स्नेही बड़े अच्छे से समझता है, कुछ बातें सिर्फ लिखने के लिए होती है, बोलने के लिए नही।
०५ मई २०२५ को मैंने फिर एक नन्हा सा साहस किया.. मेरे शब्दों को एक सदा का घर दिया। www.dilawarsinh.com नाम से। इसे एक ऐसी खुली डायरी बना दी, जहां अब सिर्फ मैं और तुम नही पूरी दुनिया पढ़ सके। कि मैं रोज कितना तुम में जीता हूँ।
प्रियंवदा ! जैसे नजदीकी भूतकाल में चक्कर मार आया मैं तो। दोपहर तक यही सब सोच विचार चल रहे थे। शाम होते होते गर्मियां आजकल तुमसे ज्यादा पीड़ा करती है। ऑफिस में बैठा नही जाता। पानी की कई बोतले बहादुर भरता है। लेकिन गर्मियों की प्यास भी अमिट है, तुम्हारी तरह।
कुछ देर पूर्व ही शाखा से लौटा हूँ। आज बौद्धिक बड़ा अच्छा लगा.. सामाजिक धारणा का मुद्दा था। नैरेटिव। कैसे किसानों के नाम पर, अल्पसंख्यकों के नाम पर, कैसे दलितों के नाम पर एक एक करके नैरेटिव स्थापित किये गए। ब्राह्मणों और राजपूतो को दरकिनार कर दिया गया। प्रियंवदा, नैरेटिव का ही जमाना है, नैरेटिव की ही बोलबाला है। हर किसी का अपना नजरिया और नैरेटिव है, जिसे वह स्थापित करना चाहता है।
मेरा भी एक नैरेटिव है.. तुम प्रियंवदा.. एक मात्र तुम। लेकिन मैं बस अपने शब्दों में तुम्हे स्थापित कर सकता हूँ। यही मेरी सीमा है।
शुभरात्रि।
- वह जो तुम्हे हर रोज तुम्हे लिखता रहा, बिना तुम्हारे जाने।