मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 24/05/2025Time & Mood - 18:26 || पिघल रहा हूँ..
आँखों में जो बात थी..
आँखों में जो बात थी, वो कहाँ मैं कह पाया कभी..! मेरी आँखों में तो तुमने शायद अपना अक्स देखा होगा, तभी तो तुम शरमा के अपनी नजरें चुरा लेती थी। वैसे सच कहूं तो मैं कहाँ तुमसे नजरें मिला पाता था। मुझे तुम्हारी आँखो में एक सौहार्द नजर आता था.. लेकिन बस न कभी कह पाया, न कभी पूछ पाया..! तभी तो तुम्हे यह लिखते हुए पूछना चाहता हूँ,
क्या मेरी पलकों ने तुम्हारे दिल को कंपित किया था कभी? तुम कहाँ कह पाओगी, मैं तो लड़का होते हुए भी वो हिम्मत नहीं जुटा पाया था। कि कभी रूबरू तुमसे पूछ लूँ। मैंने शायद हमेशा तुम्हारा कहीं और ध्यान होने पर तुम्हे खूब निहारा है। तुम्हारे मुलायम गालों से होते हुए गले के उस नजरबट्टू से तिल तक। तुमने भी उस दिन ऐसे देखा था जैसे कोई कविता खुद को पढ़ रही हो, धीरे, शांत। उस एक नजर में तो मुझे समस्त कविता ग्रंथो का सार मिला था.. प्रणय.. लेकिन वो कभी परिपक्व न हुआ..!
एक सवाल :
प्रियंवदा, मैं अगर इज़हार कर लेता तो तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या रहती? पढ़ाई में तो मेरी और तुम्हारी रेस लगी हुई थी, कभी मैं आगे था, कभी तुम.. बस मेरे हृदय में पलती इस भावना से तुम जरूर अनजान थी, या शायद मैं तुम्हारे मौन या शर्म के भेद को न भेद पाया। कितना कुछ बदल जाता उस एक इज़हार से?
सबक :
आँखो से जो प्रवाह निकलता है, वह गर्म या ठंडा नहीं होता..! हमारी स्थिति उसे गर्म या ठंडा होने की अनुभूति करवाती है।
अंतर्यात्रा :
अच्छा हुआ, आँखों में जो बात थी वह आगे नहीं बढ़ी.. शब्दों के पहनावे से वह परे ही है।
स्वार्पण :
मेरा वह अनुभव अन्यो से कुछ अलग न था, बस फर्क यह रह गया कि कईयोंने भुला बिसरा दिए।
आँखों की बाते जिह्वा उस दिन न कह पायी,अच्छा ही है अब, शब्दों से खेलता है अनंत..!