मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 25/05/2025Time & Mood - 11:06 || शोर-शराबे के बिच शांति तलाश रहा हूँ..
आधी-अधूरी चिट्ठी..
प्रियंवदा, तुम्हारा नाम लिखते ही जैसे किसी उत्साह के अतिरेक से मेरे हाथ कांपने लगते है। ह्रदय की गति बढ़ जाती है, मैं जानता हूँ, यह चिट्ठियां तुम तक कभी नहीं पहुंचनी, न ही तुम जान पाओगी की तुम ही प्रियंवदा हो, और मैं वही हूँ जो उस ट्यूशन क्लास में तुम पर जान छिड़कता था.. फिर भी एक मीठा संशय मेरे मन में लगातार रहता है कि काश तुम जान लो मुझे..!
वह चिट्ठियों का ही तो दौर था, कीपैड फोन्स तो आ गए थे, लेकिन आज की तरह किशोरावस्था वालो के पास नहीं थे। वह 'लवगुरु' वाला जमाना था.. लोग लव के एक्सपर्ट से राय लिया करते थे.. न्यूज़ पेपर में कॉलम भी आया करती थी..! फुलस्केप बुक का एक पिन-पेज मेरी नोटबुक से भी निकला था, वही रूखे सूखे शब्द, कोई साहित्यिक या कविता वाले रूपक नहीं, सीधे-सिम्पल सादे शब्द..!
लेकिन वो चिट्ठी पूरी नहीं हो पायी थी.. क्योंकि वो पत्र तुम तक पहुंचाता कैसे? इतनी हिम्मत नहीं थी मुझ में..! दो घंटे के ट्यूशन क्लास में वो पत्र मेरे बेग से बाहर ही नहीं निकल पाया था..! मुझे डर था - मेरी कल्पनाओ में - तुम्हारी प्रतिक्रिया का। आशाओं से ज्यादातर वास्तविकताएं भिन्न देखि है मैंने। वो चिट्ठी अपना पता न पा सकी..!
एक सवाल :
दुनियामे कई चिट्ठियां है जो आजतक अपना मुकाम नहीं पा सकी..! ऐसा क्यों? क्या सिर्फ हिम्मत की ही कमी होती है?
सबक :
एक बार हिम्मत कर लेने की बात नहीं है यह.. यह तो एक चक्राकार प्रक्रिया है, जहाँ एक साथ कई परिबल कार्यरत होते है.. समय से लेकर स्थान, भावना से लेकर भविष्य तक..!
अंतर्यात्रा :
मुझे दोनों मत सही लगते है, एक बार की हिम्मत दिखाकर अभिव्यक्ति कर देनी चाहिए, लेकिन साथ ही साथ यह भी अनुभवता हूँ, जब तक विश्वास न आए, सामने वाले पात्र का इस प्रणयपत्र पर क्या अभिप्राय आएगा, तब तक शांति सर्वोपरि रखी जाए।
स्वार्पण :
मुझे कोई बात कैसे कहनी है, कैसे प्रस्ताव रखा जाए, इस पर विशेष ध्यान देने का अवसर मिला।
उस कागज़ ने उस दिन वे शब्द उससे पहले सुने थे..!