सुंदरकांड से सरपंच तक : एक देसी शाम की डायरी || दिलायरी : 25/05/2025

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भक्ति से फिल्मी सुरों तक का अचानक बदलाव..



प्रियंवदा ! बड़ी जोर जोर से उत्तर प्रदेश के गाने बज रहे है। 'भौजिया' शब्द समझ आया मतलब भोजपुरी गाना ही होगा। हालांकि स्पीकर्स पर बज रहे है, इस कारण से भद्र है। कमाल का रिवाज अनुभव किया है आज.. सुंदरकांड का पाठ हुआ, और हनुमानचालीसा के खत्म होते ही, तुरंत वो गाना बजा, 'आज की रात मजा हुस्न का आंखों से लीजिए..' हनुमान चालीसा सुनने के बाद इतना वाहियात गाना सुनना भी अपने आप मे बड़ा बुरा लगता है। जन्मदिन था एक पहचान वाले के बच्चे का। तो उसने सुंदरकांड का आयोजन किया था। और बर्थडे पार्टी के नाम पर भोजन समारंभ..! 


शहरों में, छोटी मोटी पार्टियां घर की छत पर ही जो जाती है। तो लगभग दो घण्टे का सुंदरकांड का पाठ सुना, उसके बाद हनुमान चालीसा। हालांकि छत पर अधिकतर स्त्रियां थी, तो मैं ऊपर गया ही नही था, नीचे ही बैठा रहा। स्त्रियों के झुंड में से निकलने की जुर्रत का जिगर मैं नही रखता। पता नही, स्त्रियों का झुंड खड़ा हो तो मैं अक्सर रास्ता बदल लेता हूँ, या वह काम ही टाल देता हूँ, जिसमे वहां से गुजरना पड़े। पता नही कौनसी ऐसी शर्म का पहाड़ मुझ पर टूट पड़ता है।


दफ्तर की दिनचर्या और रूबिक का सुकून..

सुबह ऑफिस पहुंच गया था साढ़े नौ को। गजा आज आया नही, और सरदार ग्यारह बजे आया। दो बजे तक सारा काम निपट गया था। घर आकर कुछ देर रुबिक्स क्यूब सोल्व किया और लगभग पांचेक बजे मार्किट चला गया, सबसे पहले नाई के वहां..! आज फिर से मेरी वो सबसे गंदी आदत वे कारण पंगा होते होते रह गया। मैं कम बोलता हूँ। ना के बराबर। शायद इसी कारण से मेरी भड़ास लिखकर निकालता हूँ। और अगर मैं बोलता हूँ, तो मुझे याद नही रहता कि क्या बोलना चाहिए था और खासकर 'क्या नही बोलना चाहिए था।' ऐसा हुआ, मेरी हेयर कटिंग चालू थी, और पास की ही चेयर में सरपंच बैठा दाढ़ी बनवाने।


नाई की दुकान और राजनीति का कटिंग सत्र..

बेचारा सरपंच.. उसको अभी तीन साल ही हुए थे सरपंचगिरी में, और महानगरपालिका लागू हो गयी। बेचारे की फोरव्हीलर नही आ पाई। अब मेरे वाले नाई की तो जुबान है ही धारदार.. तो उसने तो कुतरना शुरू किया, बोला, 'अरे सरपंच, आपको तो पूरा कार्यकाल ही न मिला..' और नाई लगा उस सरपंच को लपेटने..! St की सीट थी सरपंच की, तो उस व्यक्ति को सरपंचगिरी का कोई ज्ञान नही था, बेचारा बोल पड़ा, 'बड़ी मुश्किल से सारी सेटिंग्स सीखा था, और उसे आजमाऊँ उससे पहले पद ही नाबूद हो गया।' उनकी इस सब बातचीतों के बीच मेरी कटिंग हो चुकी थी, मैं अपनी सीट से उतरते ही उससे पूछा, 'आप थे क्या यह आखरी वाले सरपंच?' उसने हामी भरी। तुरंत मेरी जीभ लपलपाई, 'अच्छा हुआ यह सरपंच वाली सीट ही खत्म हो गयी, पिछला वाला रोड खा गया, आप गटरलाइन खा जाते..' अब मूंह से निकल गयी बात वापीस तो कैसे आये.. मुझे मनोमन अफसोस भी हुआ कि ऐसी बात मूंह पर कौन करता है भला? 


लेकिन अब जब बात कर ही दी है तो थोड़ी मजबूत करने के लिए और जोड़ दिया, 'काका, आजकल गवर्नमेंट ग्रामोत्थान के लिए जो भी फंड्स देती है न, वह सब ऑनलाइन सरकारी वेबसाइट पर हर कोई पढ़ सकता है। जो काम हुआ, उसका भी सरपंच अहवाल देता है। दो तीन साल पहले एक रोड के नाम पर 2-3 लाख का खर्चा तो लिखवा दिया गया था, लेकिन अहवाल अधूरा था। फलाने प्लाट नं से फलाने प्लाट नं तक रोड बनाई गई ऐसा स्पष्ट लिखना पड़ता है। उसके बदले बस इतना ही लिख दिया गया कि फलानी सोसायटी में रोड बना। वहां मुझे याद है तब तक तो कोई रोड बना ही नही था।'


केसर आम और कच्छ की मिठास...

उस भूतपूर्व सरपंच ने बस हाँ में मुंडी हिलाई, और कुछ बोला नही। और मैं बाइक स्टार्ट करके मार्किट की और निकल गया। भाणीबा के लिए आम लेने। प्रियंवदा ! कच्छ का 'केसर' आम नही खाया तो क्या खाया? साइज में बिल्कुल छोटा, रंग बिल्कुल केसरी, और भरपूर मिठाश से भरा स्वाद। सीज़न की शुरुआत में आठसौ रुपये की पेटी लाया था। और आज भाव गिरकर साढ़े तीनसौ हो गया है। पेटी माने पांच किलो। अंजार के कुछ गांवों में फलों के बागान है, तीन फलों की बड़ी मात्रा में खेती होती है, एक तो यह केसर आम, एक अनार, और एक खारेक (dried unripe dates)। तो मार्किट में कई बार एक साथ आम आ जाता है और भाव धड़ाम से गिर जाता है। घर पहुंचा, और फिर चला गया ग्राउंड में। लेकिन पंगेदार पत्ता थोड़े घूंट भरकर आया था, और लगा खींचतान करने। बोला, 'तू भाई है। चल मेरे साथ, बस एक पेग लेना लेकिन तुझे चलना ही पड़ेगा।' शाम के सात बजने आए थे। मैंने मना किया, ऐसी गर्मियों में पीकर हार्टअटैक से थोड़े मरना है। मरने में समस्या नही है, कारण कितना भद्दा लगेगा, 'पेग मारने से हुई मौत..'।


तो पत्ते ने एक और पत्ता खेला, 'बड़ी सब्जी है, चल भाई।' उसे लगा पेग के नाम से नही पिघला वो सब्जी के नाम पर तो दौड़ पड़ेगा। अब उस सब्जी में तेल सबसे ज्यादा गिरता है। चटाखेदार मसाले भी डाले जाते है। और वास्तव में मेरी कोई इच्छा नही थी, न पीने की, न खाने की। वरना इन दोनो के नाम पर तो मैं कसमें भुला देता था कभी..! शायद एक जिम्मेदार बुड्ढा होता जा रहा हूँ मैं। नो मिन्स नो.. नही गया मैं। लेकिन नसीब में तेल ही लिखा था। उस पहचान वाले के वहाँ पूरी - पनीर की सब्जी ही थी। तेल से नहाई पूरियां ही खानी पड़ी।


दिन का अंत और प्रियंवदा को विदा..

रात के एक बजने में बस सात मिनिट की दूरी शेष है। अब विदा दो प्रियंवदा। कल फिर मिलूंगा, तब तक मेरे स्वप्नों को अपनी मौजूदगी से भर दो..


शुभरात्रि।

(२५/०५/२०२५)


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– दिलावरसिंह


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