मैं खुद से मिलने निकला हूँ..! || Day 9 || ज़ख्म - जो मीठा सा लगता है..

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मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!



Date  - 29/05/2025
Time & Mood - 17:02 || लालच से भरपूर..

ज़ख्म - जो मीठा सा लगता है..

विरहप्यासी इस धरती का पीयू प्रतिदिन उसके सामने से गुजरता है, बस बरसता नहीं है..! तुम भी उन्ही बादलों सी हो प्रियंवदा, किसी दिन बरसोगी, और मैं अभितृप्त हो जाऊंगा। तब तक, मैं तपता रहूंगा, जैसे यह धरती तप कर रही है, सतत सूर्य के ताप में।


प्रियंवदा ! प्रीत के ज़ख्म को कुछ ही मुझ से मूर्ख पालते है.. क्योंकि एक पीड़ा को पालना सबके बस की कहाँ? नहीं मैं स्वयं का ऊंचा आंकलन नहीं कर रहा, अपनी मुर्खई जगजाहिर कर रहा हूँ.. समय के साथ चलते हुए हर किसी के साथी बदलते हैं। हर कोई कदम बढ़ाते हुए बहुत कुछ पीछे छोड़ आगे बढ़ जाते है, वृक्ष अपनी खाल बदल देता है, ज़हरीला सांप तक अपनी केंचली बदल लेता है। लेकि कुछ यादें - बीती हुई यादें - फिर भी हर पल साथ चलती है। एक ही पंथ के राही भी विरामस्थलों पर अपनी संगत बदल लेते है। 


लेकिन इन बदलावों के बावजूद मन पुराने साथी की कुछ स्मृतियों की गठरी बाँध लेता है, और धीरे धीरे उनमे से एक एक सुई चुभोता रहता है। वे यादों के सुइयां दर्द देती है, और भुलाई भी नहीं जाती। यह ज़ख्म एक लम्बे इंतजार सा है - थका देता है, लेकिन एक उम्मीद भी दिखाता है। असंभव की उम्मीद। 


उस उम्मीद के ही कारण इस ज़ख्म की पीड़ा का वास्तविक अनुभव नहीं हो पाता। किसी को नहीं, किसी ने नाज़ों से पाला हो इस ज़ख्म का उसे भी नहीं, और किसी ने मजबूरी में पाया हो इस ज़ख्म को उसे भी नहीं।


एक सवाल :

इस ज़ख्म की पीड़ा का कोई भी मापदंड नहीं क्यों नहीं है? शायद तुलना न करने लगे लोग इस कारण से? तुलना तो तब भी की जाती है, मेरा प्रेम उससे अधिक है.. ऐसा क्यों?


सबक :

इस ज़ख्म का उपचार तुम ही एकमात्र हो प्रियंवदा, लेकिन मैं उस निदान को पा न सकूंगा।


अंतर्यात्रा :

अपने भीतर झांकता हूँ तो असंख्य यादों की सुइयां खड़ी पाता हूँ।


स्वार्पण :

मैं इसका निदान आज स्वीकार नहीं कर पाउँगा। लेकिन इस ज़ख्म के साथ आगे बढ़ना सीख चूका हूँ।


इस पीड़ा को चीखकर मैं व्यक्त न कर पाउँगा,
बेड़ियों का भार भी दुस्वार लगता है नहीं..!


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