जोश में होश नहीं: प्रियंवदा को लिखी आत्ममंथन की डायरी || दिलायरी : २९/०५/२०२५

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जोश में होश नहीं : जब विचारों में उठता है तूफ़ान


विषय सूचि :

  • त्रियाचरित्र, त्रासदी और आत्मस्वीकृति का सवेरा
  • गलतियाँ और ज़िम्मेदारी: जब हम अपने ही शब्दों से उलझते हैं
  • पुराने यार, अधूरी इंजीनियरिंग और अब अधूरी ख्वाहिशें
  • कविता का भूला हुआ रस: जब शब्दों की प्यास फिर से जगती है
  • ‘झाँसी की रानी’ से ‘रश्मिरथी’ तक: कविता के महासागर में डुबकी
  • कर्ण और जाति का विमर्श: क्या गुण और कर्म वंश से ऊपर हैं?
  • विचारों की थकान: जब आत्ममंथन थाम लेता है क़लम


आत्ममंथन की ओर अग्रसर दिलावरसिंह..!

त्रियाचरित्र, त्रासदी और आत्मस्वीकृति का सवेरा

    प्रियंवदा ! वो बड़ी सही बात है, कहा जाता है न कि जोश में होश नहीं खोना चाहिए। ऐसे ही किसी ने नहीं कहा होगा, अनुभव से कहा होगा..! आज ऐसा ही कुछ हुआ। दिन भी भारी जोशीला था आज का। कल रात को देखे झगड़े के कारण सुबह सुबह यही बात दिमाग में घूम रही थी, कि स्त्रियाचरित्र से भयंकर कुछ भी नहीं है। मेरे स्त्रीद्वेषी मन को पोषक तत्व जैसे मिला हो। अरे नहीं, नहीं.. मैं उन में से नहीं हूँ जो कहते है स्त्री को जूते की नोंक पर रखना चाहिए, या उनमे से भी नहीं हूँ जो मानते है कि स्त्री का दिमाग उनके घुटनो में होता है। लेकिन तब भी मैंने त्रियाचरित्र देखे है। झूठ और फरेब की मायाजाल से मैं भी गुजरा हूँ। वे मगरमच्छ से आंसुओं से परिचित हुआ हूँ। खेर, जोश में होश नहीं खोना चाहिए।


गलतियाँ और ज़िम्मेदारी: जब हम अपने ही शब्दों से उलझते हैं

    क्या हुआ कि आज सुबह आकर अपनी पोस्ट्स अपडेट कर दी, शेयरिंग आदि प्रवृत्तियों से निपटा ही था, कि एक फोन आ गया..! वो कुछ लोग होते है न प्रियंवदा, अपनी भूल तो स्वीकारते है, लेकिन भूल का दंड नहीं स्वीकारते। कुछ वैसा ही ताल था। कल शाम को एक बिलिंग करते समय कुछ गलती रह गयी थी। हालाँकि गलती दोनों पक्षों की थी। उसकी भी और मेरी भी। उसने मुझे जो डिटेल्स प्रोवाइड की मैंने उस अनुसार बिलिंग कर दी। मैंने वेरिफाई नहीं की यह मेरी भूल थी। मैं तो समझ रहा था मामला लेकिन अगला कुछ ताव में आ गया। फिर क्या, अपना एक ही उसूल है, 'शान्ति से रहो और रहने दो। शांति भंग करने वाले की शांति को भंग करो।' लगभग बारह बजे तक उसका स्वर तीव्र से कोमल हो चूका था। प्रियंवदा, यह कुछ परप्रांतीय भारतीय सोचते है हर कोई परप्रांतीय ही है इस शहर में। लेकिन समझ जाते है, शालीनता के साथ वास्तविकता से रूबरू कराते है तो।


पुराने यार, अधूरी इंजीनियरिंग और अब अधूरी ख्वाहिशें

    मेरी भी भूल थी, कल कुछ मेरे हॉस्टल काल के मित्रो का फोन आ गया था। एक बात तो है, मैंने उनमें से किसी के भी साथ सम्बन्ध नहीं रखा है, लेकिन वे नहीं भूले है। कोई न कोई याद कर लेता है। एक तो हॉस्टल काल का रूममेट हिन्द महासागर के उस पार से, रात्रि के ग्यारह बजे फोन करके हाल-चाल पूछता है, और वहां से सिगरेट ऑफर करता है। हालाँकि यह मैं अपनी गलती मानता हूँ, कि मैंने उन्हें कभी भी सामने से याद नहीं किया। खेर, कल शाम साढ़े छह को उन्ही में से एक हॉस्टल-मेट का कॉल था। कई सालो बाद बाते हुई, सबकी एक ही राय थी, जो पढ़े है उसके लक्षी हम में से कोई भी काम नहीं कर रहा है। 


    कोई कंप्यूटर इंजीनियरिंग के बाद अकाउंटेंट बन बैठा है, तो कोई अपने पिताजी की दूकान संभाल रहा है। कोई इन्फॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी का इंजीनियर तहसीलदार बन गया है। तो कोई मिकेनिकल इंजीनियर खेती कर रहा है। और एक दो विदेश चले गए है, वही गुजरातियों वाले प्रसिद्द मोटेल बिज़नेस में लगे है। सबने ही शायद जोश में होश खो दिया है। और बहुतो ने मेरी तरह आधी-अधूरी इंजीनियरिंग छोड़ दी है। यही सब बाते करते हुए बिल बना रहा था, और छोटी सी मिस्टेक हो गयी।


कविता का भूला हुआ रस: जब शब्दों की प्यास फिर से जगती है

    दोपहर को मैं चले गया मार्किट, गजा साथ ही था। एक कुरियर आया था मेरा, तो लेने जाना पड़ा। हाँ कुरियर वाले कुछ दायरे के सिमित ही डिलीवरी करते है। अन्यथा खुद लेने जाना पड़ता है। दोपहर को एक मित्र की पोस्ट पढ़ रहा था। जुनूनी है बहुत ज्यादा। लेकिन कविता में उनके द्वारा दिए गए रूपक बड़े सही लगे। प्रियंवदा ! कवि विचारक हो उतना काफी नहीं है, उसे तुलना करनी आनी चाहिए, रूपकों से अलंकृत बातों का जोर बढ़ जाता है। रूपक दे पाना ही एक कला है। अपनी स्थिति को किसी और परिस्थिति में ढालकर प्रस्तुत करना कोई आसान काम नहीं है। और मेरी वो नकल करने की इच्छा जागृत हो गयी.. मेरी वो रूपक दे पाने की क्षमता कहीं दब चुकी है जिम्मेदारियों के भार तले।


‘झाँसी की रानी’ से ‘रश्मिरथी’ तक: कविता के महासागर में डुबकी

    कई महीने बीत चुके है, अब तो मुझे कविता लिखने की इच्छा तक नहीं होती है। एक दौर था, इस मित्र की उम्र में छंद लिख देता था। शायद मैं आगे बढ़ चूका हूँ, लेकिन पीछे छूट गया हूँ। अब तुमसे क्या छिपाऊं प्रियंवदा ! यहाँ मैं जोश में होश खो बैठा..! उस मित्र से सीधे ही पूछ लिया, मुझे कुछ हिंदी कविताएं सजेस्ट कीजिये। शायद मेरी सोई कविताएं जागृत हो जाए। उन्होंने कुछ प्रसिद्द रचनाओं के बारे में मुझसे पुछा, 


    "आपने सुभद्रा जी की 'झाँसी की रानी' तो पढ़ी ही होगी.."


    शर्मसार होते हुए मैंने कहा, "बस मात्र वो पंक्ति - जो कहती है, 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी..' ही पढ़ी है।"


    फिर भी उन्होंने बड़ी धीरजता पूर्वक कहा, "निराला जी को पढ़ा है?"


    फिर से उनके उत्साह को ठंडा करता जवाब मेरी ओर से गया, "नाम सुना है।"


    "कोई बात नहीं, आप पहले तो 'झाँसी वाली रानी' पढ़िए, और फिर सुप्रसिद्ध रामधारी सिंह दिनकर की 'रश्मिरथी'.."


    मेरा जोश शिखर चढ़ चूका था। और होश.. वो क्या होता है भला? ऑफिस का नवरा लग गया कंप्यूटर स्क्रीन के आगे.. गूगल को पूछा, "बता - झाँसी की रानी का पता", उसने पता बताया, कविताकोश.. 'झाँसी की रानी' पढ़नी शुरू की। जोश तो भरपूर था। पढ़ ली पूरी.. फिर उनसे पूछा, "रश्मिरथी ऑनलाइन पढ़ सकते है?" तो प्रत्युत्तर आया, "हाँ ! है ऑनलाइन, लेकिन मैंने भी पूरी नहीं पढ़ी है।" यह जो उनका 'पूरी नहीं पढ़ी' वो मैंने ध्यान से पढ़ा नहीं। फिर से गूगल ने उसी कविताकोश के पते पर भेज दिया मुझे। जब मैंने रामधारीसिंह दिनकर नाम के पन्ने पर रश्मिरथी का अध्याय खोला तब पता चला, यह तो एक सागर है..! इसे पार करने के लिए धीरज और हिम्मत दोनों ही चाहिए। मैं वापिस उस मित्र के पास लौटा, और अब मेरा ध्यान गया, जहाँ लिखा था, 'मैंने पूरी नहीं पढ़ी है।'


    सात सर्गों में विभाजित इस महाकाव्य को पढ़ना मैंने शुरू तो किया, लेकिन मेरी वो पुरानी समस्या सामने आ खड़ी हो गयी। एक तो हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं, और दूसरा मैं अधीरा हूँ। मातृभाषा न होने के कारण मुझे रसप्रद नहीं लगते हिंदी काव्य। क्योंकि इनमे कुछ वे शब्द आ जाते है, जिसका शब्दार्थ गूगल से पूछने जाना पड़ता है। दूसरा मेरे होंसले बड़े जल्द डगमगा जाते है, इस साहित्य-सागर में। मैं अधीरा बनकर कूद तो तुरंत ही पड़ता हूँ, लेकिन डूबने के भय से तुरंत किनारे आ खड़ा हो जाता हूँ। हाँ अब वो पहले वाला रस शायद कम हो चूका है, या फिर असमय इच्छाएं जागृत कर बैठता हूँ।


    खेर, लगभग चार भाग पढ़े और मन भर आया मेरा। क्योंकि प्रथम सर्ग के प्रथम भाग में ही मैंने बड़ी प्रभावकारी पंक्तियाँ पढ़ ली, 


"तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते है जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के.."


    कितनी सही पंक्तियाँ है न.. हमारी जाति या वर्ण बहुत बाद में आता है, हमारा कर्म या हमारी क्षमताएं ही हमें गौरव देती है। पिता की प्रसिद्धि या पूर्वजो का इतिहास हमे बस याद रखना चाहिए, लेकिन उस भव्यरेखा का विस्तारण करना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है। लेकिन आगे चौथे भाग में मुझे सोच-विचार पर उतर आना पड़ा। कारण था कि कर्ण से उसकी जाति पूछी गयी.. और कर्ण के मुख से कवि वीरोचित वर्णन करवाते है।


कर्ण और जाति का विमर्श: क्या गुण और कर्म वंश से ऊपर हैं?

    खेर, मुझे यह विचार आया, कि यह जातियां वास्तव में मात्र जाति नहीं है, गुणधर्म है एक सिमित समुदायों का। जो जिस क्षेत्र में प्रबल था, वह उस जाति का हुआ, उस वर्ण का हुआ। कर्ण का ही उदहारण लेकर कहूं यदि तो क्षत्रिय माता की कूख से जन्मा वह सूत के घर पला-बड़ा हुआ। यहाँ एक तरह से दो जातियों के गुणधर्म उसमे उतरे। क्षत्रियों वाली उत्तेजना तो थी उसमे लेकिन एक सिमित सोच का दायरा भी बंद गया था। एक ऋणानुभाव जो जातिगत स्वभाव से निर्माण हुआ होगा। दुर्योधन के प्रति एक ऋण को इतना अधिक मान लिया कि द्रौपदी चीरहरण के समय भी वह विरोध नहीं कर पाया था। हालाँकि उस सभा में तो और भी बड़े बड़े क्षत्रियों की मौन उपस्थिति थी। लेकिन एक विरोधाभास यह भी था, कि जिस क्षात्रत्व का कर्ण में अभाव रह गया था, वह राजा बनने के बावजूद उसमे नहीं आ पाया। शायद पालनपोषण के कारण, गुणधर्म में कुछ बदलाव हुआ हो, क्या यह संभव नहीं?


विचारों की थकान: जब आत्ममंथन थाम लेता है क़लम

    इस विचार के चलते मैं आगे नहीं पढ़ पाया, और यह लिखने चला आया। कर्ण उस ऋण के भार को सर्वस्व मान चूका था, तभी तो वह द्रौपदी चीरहरण के समय विरोध नहीं कर पाया, तभी तो अभिमन्यु वध के समय सारे नियमों का उल्लंघन करके सहभागी हुआ। उसकी शिक्षाप्राप्ति का तरीका भी थोड़ा कैज़ुअल नहीं था..? पता नहीं, मैं यह प्रश्न कोई पूर्वाग्रह से नहीं लिख रहा। मुझे जब जातिगत बातें आती है तो मैं भी थोड़ा सिमित दायरे से मुक्त नहीं हो पाता हूँ। जबकि कवि ने तो प्रथम भाग में ही कह दिया था, कि 'तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के..'


    अस्तु और शुभरात्रि।

    (२९/०५/२०२५, १९:४१)


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