मुझे सरप्राइज भी सरप्राइज नही लगती..
प्रियंवदा ! पता नही मेरी क्या हालत है..! मुझे ही समझ नही आ रही है। मुझे सरप्राइज भी सरप्राइज नही लगती, टेंशन हो जाती है। शायद सरप्राइज से ज्यादा चिंताओं का डर?
मौसम सुबह से ही गर्म हो जाता है..
सुबह ऑफिस पहुंचने में लेट हो गया था। वैसे तो सात बजे जाग गया था लेकिन उठने का मन नही था तो पड़ा रहा। फिर तो आठ बजे धूप के ही कारण आंखे खुल पाई। मौसम सुबह से ही गर्म हो जाता है। गर्मी भी ऐसी की आदमी बगैर मेहनत के भी लीक करने लगे। पसीना गंगा-जमनी धार की माफिक बहता है। जगन्नाथ के दर्शन करके दुकान पर खड़ा सिगरेट पी रहा था, तब एक सांड आकर खड़ा हो गया। तो मैने दुकानदार से कहा, तुम्हारा ग्राहक आया है, इसे कुछ तो दो, या तो कुछ खाने का, या फिर एक लाठी..!
सांड भी भारी डरावना, कहीं कीचड़ में सींग-माथा मारके आया होगा। दुकानदार ने एक बिस्कुट का पैकेट डाला, और वो भी गजब की आइटम थी। बिस्कुट खाकर आगे बढ़ गया..! बताओ, क्या जमाना आया है? सांड भी बिस्कुट खाने लगे है। खेर, आज तो एक साथ पांच गाड़ियां आ गयी थी। काम ही काम लेकिन मजेदार बात यह थी कि आज एक भी नही निकलनी थी। इस लिए पूरा दिन आराम था। खेर, दोपहर तक कल वाली पोस्ट को पब्लिश करने के पश्चात की विधियां चलती रही।
लगभग सत्तर वर्ष का अनुभव..
दोपहर को गजे को जरूर बाहर नाश्ता वगेरह करने जाने की इच्छा थी, लेकिन मेरी जरा भी नही थी। तीन बजे इच्छा हुई एकाध मावा खाया जाए। शाम को भी समय ही पसार करना था। अच्छा समय पसार का साधन मिल गया। एक बहुत पुराना व्यापारी अपना हिसाब नील करने आ पहुंचा। रिटायर हो रहे थे। आंखों की भंवर भी सफेद हो चुकी है, लगभग सत्तर वर्ष का अनुभव.. और तरह तरह की बाते। मुझे बड़ा रसप्रद लगा, तो और बातें निकलवाने लगा। क्या करता मुझे भी तो अंधेरा करवाना था।
उन्होंने तो बाते शुरू की, '69 में मैं मुम्बई हुआ करता था, उस टाइम भी मैं फ्लाइट में जाता था। खाने-पीने में खूब पैसा उड़ाया है। रोज पीकर घर आता था तो वो खूब चीड़ जाती थी। फिर उसी ने कहा था, जो भी पार्टी करनी हो घर मे करो। तब से लेकर उसके चले जाने तक मेरा एक ही नियम, शाम होते ही चार पेग फिक्स हुआ करते थे मेरे। तीन पेग के बाद वो मुझे रोक लेती थी, लेकिन वह मेरा खाना लाने जाती तब तक चौथा पेग मैं बना लेता। खाने में मैंने कभी समझौता नही किया। अपने शहर की अच्छे से अच्छी होटल तब 'फलानी' हुआ करती थी। मैं बाहर खाता तब भी वो मुझे टोक देती और कहती थी, 'जो खाना हो मैं बना दूंगी, लेकिन घर पर ही खाया करो।' फिर भी एक दिन वो मुझसे पहले चली गयी.. मुझे अकेला छोड़कर। मेरा एक फ्लैट एक दामाद को दे दिया, मेरी कार दूसरे दामाद को। अब एक घर है, जिसमे रहता हूँ, सुबह शाम टिफिन सर्विस बंधवा ली है। लेकिन भाई इस उम्र में अकेले रहना भी बड़ा खलता है।'
अंधेरा हो चुका था। शायद उनकी जिंदगी में भी। यह जो अकेलापन मेरे जैसे कुछ लोगों को खूब रास आता है न, वह भी इतना भला है नही। आठ बजे गए थे। और मैं इसी ख्याल में डूबा हुआ था, कि एक पुरुष भी कितना बेबस हो जाता है, जब सब कुछ होते हुए भी सामाजिक संरचना की बेबसी को अनुभवता है। प्रियंवदा, यही जीवन है, पता नही चल पाता कि रंगीन जीवन कब संगविहीन हो जाए..!
सरप्राइज के चक्कर मे..
घर आकर कुँवरुभा से विडियोकॉल पर बात कर रहा था तो गुड़िया का कॉल बीच मे आया। सोचा बाद में फोन करता हूँ। लेकिन दूसरी बार आया तो लगा कुछ काम होगा, फ़ोन उठाते ही उसने कहा, मुझे घर ले जाओ, मैं यही हूँ। दरअसल गर्मियों के वेकेशन में गुड़िया अचानक घर आयी। सरप्राइज के चक्कर मे उसने बताया ही नही। और सीधे ही फोन करके कहा, 'मैं यहां हूँ, घर ले जाओ.!' मेरा एक चोट गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। 'कोई जिम्मेदारी नाम की चीज है या नही, कम से कम एक फोन करना चाहिए..' उसका सरप्राइज तो रह गया बाद में, पहले मुझ से खूब डाँट सुन ली उसने..! कुँवरुभा की कमी अब भाणीबा (भांजी) भुला देंगे। माताजी को भी अब घर मे अकेलापन नही लगेगा कम से कम। वैसे सरप्राइज अच्छा था, लेकिन मुझे चिंताओं ने ऐसे घेर लिया था कि समझ ही नही पाया कि कैसे रियेक्ट करूं।
अभी भाणीबा पूरी छत, अपने छोटे छोटे कदमो से नाप रहे है। ऊपर खुला आसमान है। मंद पवनो की लहरखियाँ सारी गर्मियों का नाश कर चुकी है। एक बात तो है, कच्छ की राते हमेशा ठंडी होती है, दिनभर चाहे कितना ही तापमान गया हो। क्रिकेट की कॉमेंट्री यहां सुनाई पड़ती है।
ठीक है प्रियंवदा, अब विदा दो, और यह बताना कि अकेलापन यदि अच्छा है तो कितना अच्छा है? और अगर गलत है, तो कितना?
शुभरात्रि।
(२२/०५/२०२५)