मैं खुद से मिलने निकला हूँ..!
Date - 22/05/2025Time & Mood - दोपहर के ढाई के आसपास || खालीपन से भरा हुआ..
तुम्हारे नाम की डायरी..!
प्रियंवदा ! अब यह मेरी जिद्द कह लो या कुछ और..! लेकिन अपने मन ही मन मैंने कुछ शब्दों को एक रूप में ढालना शुरू कर दिया। कविता तो नहीं कहता मैं उन्हें..! लेकिन था कुछ तो, जिसमे एक लय था, एक ताल..! सच बताऊँ प्रियंवदा, मैंने हम दोनों के साथ होने के कई ख्वाब देखे थे। मैं जानता था कि यह असम्भव है। लेकिन हकीकत यही थी कि तुम ही मेरे मन में, हृदय में बस गयी थी। वो बात भी मैं कभी नहीं भूल सकता जब उस क्लास के दौरान कभी हमारी आँखे चार हो जाती थी। वो स्पर्श.. जो बस एक किताब बदलने के कारण सम्भव हुआ था.. आज भी मानो मेरे रोम रोम में बसा है।
प्रियंवदा ! मैं पुरे यकीन के साथ कहता हूँ, मैंने कभी नहीं सोचा था डायरी लिखने की। लेकिन आज मेरे प्रत्येक वाक्यों की शुरुआत तुमसे होती है..! बोर्ड्स के बाद हम दोनों के ही रास्ते अलग हो गए थे। मैं जो तुम्हे चोरी-छिपे देख लिया करता था, उसे भी किसी की नजर लग गयी। स्कुल तो हमारी अलग ही थी.. फिर शायद हम बड़े हो गए..! तुमने शहर छोड़ा, लेकिन मैं आज भी उस ट्यूशन क्लास के आगे से गुजरता हूँ तो वे हसीन यादें अकाल के बाद खिलती कोंपलो की भाँती फूट निकलती है। इस डायरी में शायद तुम ही तुम हो प्रियंवदा, जहाँ तुम नहीं हो, मैं आज भी वहीँ हूँ..!
एक सवाल :
मेरी दिनचर्या में तुम नहीं हो तो क्या हुआ? मैंने तुम्हे अपनी डायरी के प्रत्येक पन्नो पर बसा लिया है। तुम वास्तविकता में मिलो या नहीं, लेकिन मेरे शब्दों में हमेशा रूबरू होती हो। मेरा इसी तरह तुम्हे अपने पन्नो पर प्रतिदिन पुकारना गलत तो नहीं हैं न?
सबक :
शायद कुछ लोग समय पर अव्यक्त रह जाते है वे इसी तरह अपनी बातों को बाद में बहुत व्यक्त होते है। यह पत्र तुम तक - तुम्हारे ह्रदय पहुंचे, न पहुंचे.. लेकिन मैं लिखता रहूंगा..!
अंतर्यात्रा :
समय और स्थिति अनुसार अपनी अभिव्यक्ति दे देनी चाहिए.. अन्यथा वह शूल बन जाती है, सदा के लिए..! इस शूल का दर्द दीखता कम है, बहता ज्यादा है। असमय भी स्मरण हो आता है।
स्वार्पण :
आकर्षण के बाद संवेदनाएं प्रकटती है। लेकिन समय रहते उन संवेदना को प्रारूप न दिया तो वह वेदना बन जाती है।
सिमट गए है सारे रास्ते तुम तक पहुँचने के प्रियंवदा..
मैं भी जिद्दी हूँ, अपना रास्ता खुद तय कर रहा हूँ..!