चुम्बन और चुम्बक : आकर्षण का विज्ञान और भावना || दिलायरी : २३/०६/२०२५

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प्रियंवदा के नाम – एक भावनात्मक शुरुआत


पहले कौन.. चुम्बक या चुम्बन?

    प्रियंवदा ! हम फिर से आ गइल बानी, तोहार छाया तले कुछो कलम चलावे खातिर..! देखो ऐसा है, यह एक वाक्य लिखते तो लिख दिया..! ऐसा ही लगता है की बिहारी भाषा में लिखा है। लेकिन बिहारी बोली तो शायद है ही नहीं। क्योंकि भाषा तो भोजपुरी है, मैथली है। मैंने पहला वाक्य किस में लिखा यह मुझे भी नहीं पता। बस फिल्मो के जरिये पाए, भाषाकीय ज्ञान से गठ दिया है। ऐसा ही है, फिल्मे बहुत कुछ सिखाती है वैसे। लेकिन हम बस उस नाटकीय अंदाज को देखकर ही राजी हो जाते है। दिखावे से प्रसन्न होते है, सन्देश से नही। 


चुम्बक और चुम्बन : समानता या संयोग?

    आज एक रील देखते देखते ख्याल आया, "चुम्बक" और "चुम्बन" दोनों शब्दों में कितनी साम्यता है..! फिर तो मेरे ओवरथिंकर दिमाग ने अपने सारे घोड़े छोड़ दिए। चुम्बक पर से चुम्बन बना होगा या चुम्बन पर से चुम्बक? एक पदार्थ है, तो एक क्रिया। फिर भी दोनों में भरपूर मात्रा में विजातीय आकर्षण है। और आकर्षण के अनुरूप तुरंत ही चिपक जाते है। दोनों में ही सजातीय विरोध होता है। हाँ, चुम्बन में आजकल सजातीयता हो आयी है। लेकिन चुम्बक अपने निर्णय पर अडिग है। एक विज्ञान है, एक भावना। लेकिन दोनों ही बगैर आवाज के असर करते है। दोनों ही स्पर्श से ऊर्जा अनुभवते है। और दूरी बनते ही निष्क्रिय। दोनों की शक्ति - स्मृति अलग हो जाने के बाद भी बनी रहती है। एक विज्ञान का प्रेम है, दूसरा प्रेम का विज्ञान। 


बारिश की बूँदों में भावनाओं की परछाई

    बताओ, बगैर काम का आदमी क्या क्या सोचता है..! अरे नहीं, नहीं.. आज दिनभर काम में व्यस्त ही था। यह तो अभी लिखते लिखते चुम्बक-चुंबन पर विस्तार कर दिया। खेर, सुबह नियत समय पर ऑफिस पहुंच गया था। और ऑफिस पहुंचते ही सोमवार होने के बावजूद अपार काम आ चूका था। कब दोपहर हुई, और कब शाम ढली, कुछ पता न चला। हाँ ! दोपहर को बुलंद बारिश हुई तब कुछ देर बारिश को तकते बैठा रहा था। बारिश होती देखना किसे पसंद नहीं होगा? मंद हवाएं, अधजला आसमान, मोटे मोती से बूंदो के गिरने से होता निनाद, उन बूंदो का धरा से होते स्पर्श से, अल्पायु जन्मते बुलबुले। एक कतार में बैठकर इस भारी बौछार का आनंद लेते कपोत। कुछ ही दिनों के लिए, लेकिन जैसे वर्षा की रौनक बढ़ाने आए वे मैरून मखमली कीड़े.. प्रकृति भी अपना दिल खोल देती है। लेकिन तुम प्रियंवदा?


प्रियंवदा: स्मृतियों की त्रासदी

    तुम भी त्रासदायी हो प्रियंवदा ! बिलकुल इन बरसाती मच्छरों की भाँती। कभी तुम्हारी यादें मन कुरेद जाती है, तो कभी यह रक्तपिपासु मच्छर आ जाते है। मच्छरों से तो बचाव के कई तरिके है, लेकिन तुमसे निजाद कैसे पाया जाए? तुम्हारे मोह में, तुम्हारे आकर्षण में यह मन बाकी सारी बातें भूल जाता है। आठ बज गए, अँधेरा छा गया। हाइवे पर एक लंबा ट्रैफिक जैम लगा है। कहीं मेरे ह्रदय की तरह यह जैम करने में भी तुम्हारा ही हाथ नहीं न प्रियंवदा?


ब्लॉगिंग का प्रारंभ और स्मृति की गलियाँ

    पुरानी पोस्ट अपडेट करते करते एक वो पोस्ट सामने आ गयी, जिस दिन एक मित्र ने रूठ कर रात को खाना नहीं खाया, फिर चोरी-छिपे किचन खंगाला। वो वाकिया अक्षरसः आँखों के आगे से गुजर गया। पीछ ले कुछ दिनों में अपनी ही पुरानी पोस्ट्स अपडेट करते हुए उन्हें पढता हूँ, और सारा भूतकाल वर्तमान में आँखों के आगे खड़ा हो जाता है। इस ब्लॉग की दुनिया के आरंभिक सिरे तक पहुँच गया था मैं। कैसे इसकी जरुरत पड़ी मुझे, और कैसे मैं प्रतिदिन लिखता हो गया। बहुत सही है, कभी कभी भूतकाल में झांकना चाहिए। 


यात्रा की प्रतीक्षा और मन की अधीरता

    हाँ ! दिनमे एकाद बार उस नक़्शे में बसी यात्रा की कल्पना भी हो आती है। और कोई उसी यात्रा के किसी बिंदु में, गोते लगा रहा हो, तब तो और प्रबल इच्छा जागृत हो जाती है। और फिर तो मन गिनती करने लगता है, अभी तो कितने दिन बाकी है? वहां यह यह प्रवृतियां करनी है, वहां यहाँ यहाँ तो जाना ही जाना है। खाने-पिने की यह आइटम तो ट्राय करनी ही करनी है.. लेकिन सिवा इंतजार और हताहत मन के, शेष खामोशियाँ ही सामने आ खड़ी होती है। मेरा मन उतावला भी बड़ा है। जो इच्छा हुई, उसे अभी अभी पूरी करने तक का उतावलापन.. कोई प्रश्न है तो उसका अभी अभी समाधान चाहिए मुझे। इंतजार करना मेरे लिए सबसे विकट समस्या है।


    चलो फिर, आज इतना ही.. बाकी कल किसी नए पन्ने पर मिलेंगे, तब तक के लिए, 

    शुभरात्रि।

    (२३/०६/२०२५)


|| अस्तु || 


वैसे बारिश की बूँदें सिर्फ खिड़की नहीं भिगोतीं, कभी किताबों के पन्नों पर भी बरसती हैं – 

प्रिय पाठक!

यदि आपने कभी बारिश को चुपचाप निहारते हुए किसी की यादों से भीगना सीखा है,
यदि चुम्बक की तरह किसी के पास खिंचकर, चुम्बन की तरह मौन होकर अलग हुए हैं,
तो यह दिलायरी आप ही के लिए है।

पढ़िए, सोचिए… और साझा कीजिए — उस ‘प्रियंवदा’  के साथ, जो अब सिर्फ स्मृतियों में रहती है।


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