कम्फर्टज़ोन: आलसी नहीं, प्लानर होता है आदमी || दिलायरी : २१/०६/२०२५

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कम्फर्टज़ोन: एक मीठा बंधन या भविष्य की देरी?



    मौसम तो ऐसा है प्रियंवदा ! दिल गार्डन गार्डन हो रिया है। सुबह से लेकर शाम तक सूर्य अपनी पटरानियों के पास मानों पड़े रहते है, फुल कम्फर्टज़ोन में। अपना क्षेत्र (आसमान) बादलों को दिल बहलाने के लिए दे रखा हो जैसे। ना उगने की झंझट, ना अस्त होने की उतावल। गजब ही आराम फरमा रहे है महाराज। वैसे आराम किसे पसंद नहीं होगा? मजदूर से लेकर माफिया तक, हर कोई आराम की जिंदगी चाहता है। उस भविष्य के आराम के लिए ही तो वर्तमान में मेहनत कर लेते है।


आराम और उसके पीछे की चिंता: “आज क्या लिखूं?”

    मैं भी अच्छा भला आराम कर रहा था। पड़े पड़े इतना आराम कर लिया, कि क्या लिखना है, यह सोच भी आराम करने चली गयी। आरामगृह के अपने लाभ है, तो नुकसान भी है। वह समय व्यर्थ ही तो हुआ। और मेरे जैसा तो सुधबुध खोकर आराम करता है। लेकिन आराम करते करते भी चिंता हो आयी, कि आज लिखा क्या जाए? फिर हारे का सहारा .. कलम मित्र हमारा..! पूछ लिया, "आज क्या लिखूं?" यह पूछते समय कुछ ऐसा ही लगता है, जैसे कोई पत्नी अपने पति से पूछती है, आज खाने में क्या बनाऊं? जबकि उसने पहले से तय तो कर ही रखा होता है। 


    लेकिन मेरा कलममित्र भारी चतुर है। सोचता हूँ, इसे भी प्रियंवदा नाम दे ही दूँ। कारण भी है, यह भी प्रियंवदा की तरह बड़ा अजीब है, कुछ कुछ प्रोटोकॉल्स का पालन करने वाला। खेर, उसीने बताया, "तुम आलसी तुम्हारे कम्फर्ट में पड़े रहो, मुझे तो दर्शन करने जाना है।" कम्फर्ट.. माने आराम..! अब उसे कौन समझाए, मेरा कम्फर्ट ही मेरी प्रियंवदा है। प्रियंवदा से भला कैसे अलग होऊं? तो सोचा फिर से एक बार प्रियंवदा को परेशान किया जाए..! और मैं निकल पड़ा अपने कम्फर्टज़ोन से बाहर।


योग दिवस और ऑफिस के बीच कम्फर्ट की कशमकश

    पूरा दिन तो ऑफिस में बैठा रहता हूँ। बैठे बैठे लोगो को पाईल्स होते है, मुझे वहम। अक्सर यह वहम मेरे लिए लाभदायी रहे है। मुझसे कुछ न कुछ मेहनत करवा देते है। तो आज ठहरा योगदिवस। परधान जी भी आज तो दक्षिण दिशा में योग करते पाए गए। मैं भी आजकल कुछ तो करता हूँ, अब उसे योग की व्याख्या में समाहित करूँ या नहीं, वो मैं तय नहीं कर पाया हूँ। सुबह सुबह मैदान में बड़ी तेज तेज वॉकिंग करके जब सांस फूल जाती है, तो कुछ देर खड़ा होकर स्ट्रेचिंग करके, फिर सूर्यनमस्कार करता हूँ। और फिर एक जगह सुखासन में बैठकर लम्बी लम्बी छोड़ता हूँ... साँसे..! भाई.. साँसे। पंद्रह मिनिट की यह खींचतान के बाद घर जाता हूँ। और फिर पूरा दिन ऑफिस के कम्फर्टज़ोन में मौज करता हूँ।


जब खुद पर हँसी आती है: टाइल्स और टेम्पो की कथा

    तो आज जब उस कलम मित्र ने ताना मारा तो याद कर रहा हूँ, मैं कितनी बार इस "कम्फर्टज़ोन" के बाहर निकला हूँ? इतना ही याद आता है, कि जब जब कम्फर्टज़ोन छोडा है, मुँह की खायी है। एक बार क्या हुआ, घर पर टाइल्स लगवा रहा था। आठ बजे करीब टाइल्स का टेम्पो आया। रात आठ बजे मजदूर तो मिलने थे नहीं, और मैं अपने कम्फर्टज़ोन से बाहर कूद पड़ा। ज्यादा नहीं, पांच बोरी सीमेंट, और डेढ़सौ पेटी टाइल्स की थी। 'जय महिष्मति' बोलकर पहली बोरी उठायी, और पटक दी जहाँ उसे रखनी थी। नया नया जोर था, और केपेसिटी भी.. तीन बोरी उतारने के बाद मर्द को दर्द होने लगा।


    टेम्पो वाले को कुछ चायपानी देने के नाम पर उससे सहायता ली। दो बोरी और उतार दी। लेकिन  पहाड़ तो अब उठाना था। पचासेक पेटी टाइल्स की उतारी, होंसले डगमगाने लगे। लेकिन हिम्मत नहीं डगमगायी। सौ पेटी के बाद तो हिम्मत में कटौती हुई। पानी के बहाने कुछ देर विश्राम लिया। सवासो पेटी के बाद तो खुद पर ही खीज होने लगी। क्योंकि खुद को अंडर-एस्टीमेट के बदले ओवर-एस्टीमेट कर लिया था। दूसरे दिन तो दवाखाने जाना पड़ा। क्योंकि कम्फर्टज़ोन छोड़ा था न मैंने।


स्वास्थ्य बनाम घुटनों की हड़ताल: कम्फर्ट बाहर, झंझट भीतर

    थोड़े दिनों बाद इस खुद पर ही शर्मसार होने वाली क्षण के सामने खड़ा होकर, मैंने कड़ी निंदा की, खुद की, और स्वबोध लिया। शारीरिक श्रम या कसरत करनी चाहिए। फिर क्या, एक बार फिर मैं कम्फर्टज़ोन के बाहर काछ बांधकर कूद पड़ा। मोटा मैदान में उतरा, दौड़ लगाने। पहले ही दिन ग्राउंड के तीन चक्कर दौड़कर लगा दिए। ऑफिस में बैठे बैठे घुटने भी आलसी हो चुके थे, और एक दिन अचानक ही उनसे अधिक काम ले लिया तो हड़ताल पर उतर आए। इस बार तो मैं अच्छा काम कर रहा था, स्वास्थ्य बना रहा था। लेकिन घुटनों ने हड़ताल की, और कमर ने उग्र विरोध प्रदर्शन..! ऊपर से अपन ठहरे बापु। दूसरे दिन ऑफिस के अंदर बाहर चला न जाए, पूरा शरीर जैसे जकड़ा गया था। तो कलीग्स मजा लेने लगे, बोले, "बापु ! अब तो लड़ाई झगड़ा छोड़ दो..!" अब उन्हें कौन समझाए, कि मैं कम्फर्टज़ोन से निकला था।


शादी-ब्याह और बस की मुसाफरी: क्यों छोड़ा कम्फर्ट?

    एक बार तो हद्द ही हो गयी। कुछ ज्यादा ही कम्फर्टज़ोन से निकल गया। एक रिश्तेदार के यहां शादी में गया था। कन्यापक्ष के बाद वरपक्ष में भी शामिल होना था। विवाह प्रसंग में खूब दोड़धाम हुई। थक के बेहाल ही था। प्रसंग के बाद घर वापसी में एक पहचान वाले भी मेरे ही शहर लौट रहे थे। उन्होंने खूब आग्रह किया कि मैं उनके साथ उनकी कार में चला चलूं। लेकिन नही, मैं तो कॉम्फोर्टजोन से बाहर निकला था। शादी के सीजन में बसों में भारी भीड़ के बावजूद चार घण्टे की सफर खड़े खड़े तय की.. वो भी नींद की अपार झपकियों को द्वंद्व करते हुए। अचानक लगते ब्रेक्स और एक्सलेटर की बौछार के बीच भी अडिग खड़ा रहा था। जैसे ध्रुव खड़ा था एक पैर पर - अडिग। घर पहुंचकर पलंग पर मृतप्राय शव की भांति पड़ा रहा था।


    कम्फर्टजोन अच्छा है प्रियंवदा। यह ऊर्जाओं को बचाए रखता है। हालांकि वे बची ऊर्जा भी बैकफायर करती है, लेकिन असह्य तो नही होती कम से कम। दवाखाने का मुंह तो नही दिखाती..! मेरा कम्फर्टज़ोन भी कुछ संकरा ही है। मुझे अनजान लोगों से बात करने में, या लोगो से घुलने-मिलने में बड़ी झिझक होती है। एक बार बस की मुसाफरी में कम्फर्टज़ोंन से बाहर निकला, सोचा कुछ बातें की जाए। लोगों को जानना चाहिये, पता नही मुझे कौन सी upsc में इन व्यवहारिक आचरणों पर उत्तर देना था..! बातचीत शुरू की, फिर तो उसका अंत जल्द आए, उसी की प्रार्थना मनोमन चलने लगी। वो चाचा बड़े बातूनी निकले। अब उनके सामने कान में इयरफोन डालूं तो भी सही न लगे..! पूरी मुसाफरी दरमियान उनकी बकबक को मेरे कानों ने अश्रद्धा के साथ सुना है.. मेरे एक दो उबासी लेने के बावजूद वे रुके नही, बल्कि और उत्साहपूर्वक जिह्वा चलाने लगे। और मैं मन ही मन अपने कम्फर्टज़ोन के बाहर निकलने पर पछताता रहा।


    कम्फर्टज़ोन से निकलने की हद्द तो तब हो गयी थी, जब एक कोमल कन्या पर मेरा मन मुग्ध हुआ..! उन दिनों मैंने अपने तमाम कम्फर्ट्स को किसी कोने में धकेल दिए थे, धकेलता रहा था जैसे नाविक भरपूर नदी में पानी धकेलता है। हालांकि एक कम्फर्ट उस दिन भी हावी रहा था मुझ पर, वो था लड़कीं से बात न कर पाने का, या बात न करने का कम्फर्ट। फिर क्या, दिल फेंक न पाने वाला आशिक़, दिलजला बना.. सब अपने कम्फर्टज़ोन के मजे है, या मुश्किलियाँ।


कम्बल, करियर और ख्वाब: इंट्रोवर्ट का गुप्त संसार

    कम्फर्टज़ोन एक कम्बल है। जब मन उठने की चाहत लेता है, तब शरीर मना कर देता है, क्योंकि कम्बल में ही करियर प्लानिंग ज्यादा गर्म लगती है। सुहानी लगती है। इस कम्बल में पड़े पड़े एक दिन विचार आता है, कि सक्सेस कब मिलेगी? लेकिन यह विचार भी कचौड़ियां खाकर जिम की मेम्बरशिप लेने जैसा है। फिर शोले के ठाकुर की तरह - चाहे गर्मियां हो या सर्दियां - यह कम्बल लपेटे ही रखना पड़ता है। कम्फर्टज़ोन में आदमी आलसी नही होता। बड़ा कमाल का planner होता है। बस प्लान्स execute नही होते। इंट्रोवर्ट होने के बड़े आरामदायक तमगे को छाती पर बांधे घूमते है, नजरें नही मिलाते, लेकिन ख्वाब वे सारे ही देखते है, जिसमे कम्फर्ट की छांट भी न हो। और हाँ ! कम्फर्टज़ोन में बसा आदमी, फिर सदा अपने रास्ते बदल लिया करता है।


कम्फर्टज़ोन मत्थे मढ़ने की आदत

    लो प्रियंवदा ! साढ़े दस बज गए शनिवार रात के। अब कम्फर्ट का उपासक दिनभर किये हुए जुठमुठ के अथाह परिश्रम की फलश्रुति स्वरूप निंद्रा का सेवन करना चाहेगा। दोपहर को छोले-समोसे दाबकर बैठा कम्फर्ट का आराधक, शाम को दो घण्टे मानसिक तनाव को झेलकर, जैसे समरांगण का कोई शेष योद्धा थककर गिर पड़ता है, उसी तरह पलंग में पड़े पड़े कम्फर्ट कम्फर्ट करता है। और अपने अनुभवों की सारी नकारात्मकता, इसी तरह कम्फर्ट के मत्थे मढ़कर, मुस्काता है, कि आज तो कलम मित्र की मेहरबानी से काफी सारा लिख दिया..!


शुभरात्रि।

(२१/०६/२०२५)


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कल्पना, हड़ताल और प्रियम्वदा


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