"प्रियंवदा! आज विचारों ने हड़ताल कर दी है"
ऐसा है, दो दिन से अपनी ही पुरानी पोस्ट्स पढ़कर, कुछ खुद के भीतर क्रांति जगाने में लगा हुआ हूँ। क्योंकि मेरा मन और कुछ पढ़ने में लग भी तो नही रहा। वैसे समय भी नही बच रहा है और कुछ सोचने में। दिनभर तो ख्याली पुलाव पकाता हूँ, बाकी बचे समय मे सोसयल मीडिया को भी तो न्याय देना रहता है। प्रियंवदा ! आजकल मुझे धृतराष्ट्र की तरह अंधता से भी इश्क़ हुआ है। अपनी ही लेखनी से संतुष्ट नही होता। बस वो स्नेही वहां कुछ न कुछ मुझे आशा के छौर में बांध कर चला जाता है।
आजकल दिन भी आलसी हो चुके है, और सूरज भी..! दिन में एकाध बार आसमान में सूर्य दीखता है, वर्ना वह भी बादलो के पीछे आराम फरमाता मुझे मालुम होता है। मौसम थोड़ा ठंडकपूर्ण है। और इसी वजह से आलस भी खूब हो जाती है। सुबह ऑफिस आकर दिनभर अपनी पोस्ट्स को अपडेट की है। किसी में थोड़े शाब्दिक बदलाव किए, तो किसी में कुछ बंधारण के। शाम तक यही किया है, तब भी आधी दूरी तय नहीं कर पाया हूँ।
“जब कलम रूठ जाए, और प्रेरणा कहीं खो जाए”
कटाक्ष, व्यंग, या हास्य का एक सिमित दायरा होता है, मैं उस दायरे से बाहर आ गया हूँ शायद। और अब गंभीरता के खंड में बैठा हूँ। पता नहीं क्यों? ऐसा लगता है, जैसे मैं कोई मिल चला रहा हूँ - शब्दों की। जहाँ अचानक से हड़ताल हो चुकी है। संवेदना, भाव हर कोई हड़ताल पर उतर गया है। प्रियंवदा की प्रेरणा जो कल तक मेरे पन्नो पर थी, वह जैसे रूठ चुकी है। और मनाना - वो तो मुझे आता नहीं। कहानियों ने रेसिग्नेशन भेज दिया है, उन्हें रील्स से दिक्कत है। कहानियों के पास लौट कर कौन आ रहा है?
“संवेदनाओं की यूनियन और लेखक का आत्मसंवाद”
हेडिंग्स, और टाइटल के शब्दों ने बगावत कर दी है। अनुच्छेद के शब्द विरोध प्रदर्शन पर उतरे है। सबकी एक ही मांग है। एक नन्हा सा वेकेशन..! यह हररोज की नौकरी से मुक्ति..! हररोज उन्हें प्रकटना पड़ता है, इन्ही पन्नो पर। कुछ कहना पड़ता है, कुछ समझाना पड़ता है।
शाम को घर लौटते हुए दिमाग में कई सारी बातों ने युद्ध किया। किसी की जीत नहीं हुई। सब की लाशें सुबह तक अंतिम संस्कारों को प्राप्त हो चुकी थी। और तर्पणादि विधिओं से रहित अमोक्षी रहे वे सारे विचार जो इस पन्ने पर उतरे नहीं। उन्हें लौट आना चाहिए था, अबतक तो। उन्हें कोई सन्देश रच लेना चाहिए था। गंभीरता सचोट संदेशवाहक होती है। जब की हास्य मनोरंजन के साथ सन्देश देता है। लेकिन यह वाक्य जिनका आपस में ही तालमेल नहीं बैठ रहा है, वे क्या ही सन्देश देंगे?
“सपनों का नगर, और ‘काश’ की नींव पर बसा प्रेम”
सुबह से लेकर शाम तक में यह हवाएं भी जिधर से बहना शुरू किया था, वहीँ की ओर लौटती है। जहाँ से आरम्भ किया था, वहीँ आना एक अनंत यात्रा है। जहाँ कोई विराम नहीं। जहाँ कोई - कुछ देर बैठने के लिए जगह बनी ही नहीं है। हाँ ! प्रियंवदा, तुम्हे कहाँ पता होगा, हमारे बिच यह जो अनंत यात्रा मेरे भीतर चल रही है उसके विषय में। क्योंकि तुम वहीं हो, उस अनंत के केंद्र में। मैं तुम्हारी वाम तरफ भी एक वर्तुलाकार प्रदक्षिणा कर आता हूँ, तो तुम्हारे दक्षिण की और भी। लेकिन लौटता तुम्हारे ही पास हूँ। जैसे लौटता है एक खोटा सिक्का।
तुम्हे नहीं समझा पाउँगा, मैं तुम्हारी ही आकांक्षा लिए बैठा हूँ। लेकिन जब यह दूरी नापी जाती है - बंधनो की - तो मैं तुमसे जुड़ नहीं पाता। फिर वही आशाओं की, और काशों की भूमि पर मैं अपना एक नगर बसाता हूँ। तुम और मैं वहां होते है। तुम्हारे शब्दों से मैं स्वयं को उजला पाता हूँ। तुम्हारी बांहों में खुद को सर्व भारों मुक्त पाता हूँ। मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक - तमाम भारो से मुक्त। लेकिन कुछ ही देर में वह नगर बिखर जाता है। और वास्तविकता में तुम कोसो दूर हो। तुम अलग हो.. मैं भी..!
|| अस्तु ||
और जब शब्द थक जाएँ, तो हँसी भी गंभीर हो जाती है...
एकतरफ़ा प्रेम, लेखक का आत्मसंघर्ष, और प्रियंवदा की मौन उपस्थिति —
इन सब पर एक झीना-सा हास्य डालती हुई मेरी पिछली डायरी भी पढ़ें:
प्रियंवदा, एकतरफ़ा प्यार और गंभीर हास्य
प्रिय पाठक !
कभी आपके भीतर भी शब्दों ने चुप्पी ओढ़ी है?
विचारों ने हड़ताल की हो?
तो जानिए — आप अकेले नहीं हैं।
मेरी यह प्रियंवदा भी कभी लौटती नहीं,
बस प्रतीक्षा करवाती है...
आपकी चुप्पी भी कुछ कहे — नीचे लिखिए।
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