प्रियंवदा के नाम—एक चुभती हुई रात की डायरी
प्रियंवदा ! जख्म कुरेदना कितना आसान है, अपना भी और जाने-अनजाने किसी और का भी..! मैं अक्सर ही जब अकेला होता हूँ, तो कुछ पुराने घावों को कुरेदकर फिर से मलहम लगा लेता हूँ। उस पीड़ा की जो टीस उठती है, वह मुझे बार-बार मेरी नाकामयाबी और मेरी सहनशक्ति की क्षमता - दोनों की अहमियत समझा देती है। मैं बार बार भूल जाता हूँ। या भूल जाने का नाटक करता हूँ। जो याद आता है वे कुछ अपराध क्षमायोग्य नहीं थे प्रियंवदा ! लेकिन फिर भी अपराधी को क्षमा देने का आडम्बर बनाए रखना पड़ता है। वरना बहुत कुछ बिखर जाता है।
क्या कुतूहल अब विलुप्त होता जा रहा है?
कहाँ इन सब में अपना मन और कलुषित करूँ? सबके भूतकाल में कुछ न कुछ घना होता है। सुबह आज ऑफिस आते हुए यूट्यूब पर कुछ सुन रहा था, वहां से एक शब्द दिमाग में बैठ गया। हालाँकि प्रचलित शब्द है, कोई नया नहीं, 'क्यूरोसिटी'.. माने जिज्ञासा, कुतूहलता, उत्सुकता। बहुत से लोगो में इसका लोप हो चूका है। कुछ नया जानने की, नया खोजने की जिज्ञासा होती ही नहीं। कभी भोजन करते हुए, चने की सब्जी बनी हो तो, यह जानने की उत्सुकता नहीं होती है, कि यह चना ऊगा कहाँ होगा, चने के उत्पादन में कौनसा राज्य आगे है, या चने के बीज में कितनी वेरायटी होती है..? नहीं होती। क्योंकि क्या मिलेगा यह जानकर? या फिर स्वाद अनुसार रसोई में डलता नमक, बनता कैसे है? नहीं उत्सुकता होती, क्योंकि सुना सुनाया है, समंदर का पानी सूखता है, और श्वेत नमक दृष्टिभूत हो जाता है। चने के बीज जमीन में जाते है, पौधा उग आता है। प्रक्रिया में कैसे दिलचस्पी हो? यह दिलचस्पी के लिए कुतूहलता तो होनी चाहिए न।
प्रियंवदा ! थोड़ी सी तबियत ठीक क्या हुई, जुबान तुरंत लपलपाने लगती है। यह ककड़ी टमाटर का सलाद किसको स्वादपूर्ण लगता है भला? दोपहर को चल पड़े होटल.. पनीर पुलाव की थाली चट कर गए, मैं और गजा..! दोपहर बाद आज पूरा ही खाली समय था, लिखने के लिए पर्याप्त। लेकिन कलम है कि चली ही नहीं। बड़ी गंभीर शुरुआत हुई थी, और वह आरम्भ ही बाकी के रस निगल गया शायद।
शब्दों की उत्पत्ति: क्या वे जन्म लेते हैं या प्रकट होते हैं?
यह जो शब्द अचानक से बिछड़ जाते है, बिन-बताए.. यह जन्म लेते होंगे क्या? जैसे किसी शांत पल में कोई शब्द आंधी बनकर छा जाता है। और विनाश बिखेरकर चला जाता है। क्या वह पहले से वहीँ छिपा हुआ बैठा था? या जन्म लिया उसने? या कोई माया से उसी क्षण प्रकट हुआ? यह जो शाम है, वह कभी तो अकेली लगती है। लेकिन कभी लगता है उसके पास तो दिन और रात दोनों का साथ था, फिर वो अकेली कैसी? प्रेम - क्या उसे अनुभवने वालो के भीतर वह जन्मता है, या फिर वह उसकी मौजूदगी से अनभिज्ञ था? अनुभूति होती है, लेकिन कुछ समय पूर्व वहां खालीपन था.. मतलब अनुभूति आई और गयी? शब्द को भी ब्रह्म इसी कारन से माना गया होगा, क्योंकि यह अमाप है। प्रकटते है, और अदृश्य हो जाते है। जैसे कुछ कार्य-सिद्धि के लिए ही आए हो।
क्या हम रोज़ जीते हैं या बस आदतन चल रहे हैं?
दिनभर में कुछ न कुछ करते रहना चाहिए प्रियंवदा। दोपहर बाद पूरा दिन ऑफिस में यही सोचते बैठा रहा था, यही जो कुछ ऊपर लिखा, या लिख पाया। शाम ढल गयी, अंधेरा घिर गया, और वही घर पहुंचो। घर से ग्राउंड। कुछ देर टहलो, और सो जाओ। इन सब मे एक भी बार कहीं भी कुतूहलता नही होती। क्योंकि वही डेली रूटीन है। जैसे मोबाइल जेब मे डालते समय मेरे मगझ ने आदेश नही दिया था, वह अपने आप हो जाता है। दिनभर में हम ऐसे बहुत से काम बेध्यानी में कर जाते है। दिमाग कुछ और सोच रहा होता, लेकिन शरीर कुछ और काम कर रहा होता है। ऐसी बहुत सी चीजें है, जो हम करते तो है लेकिन हमारा मगझ उसमे सम्मिलित नही होता है। बस एक आदतन हम वो काम कर जाते है।
कुमार विश्वास और सौरभ द्विवेदी: दृष्टि और दृष्टिकोण
खेर, रात को तो दस बजे ही, आंखे इस तरह घेराने लगी, जैसे सदियों के युद्ध से थका मुचकुंद हूँ। आजकल कोई गाने नही सुनता, वक्तव्य सुनता हूँ, भाषण - लेक्चर्स सुनता हूँ। फिलहाल तो दो अलग अलग मापदंडों पर आते कुमार विश्वास, तथा सौरभ द्विवेदी को सुनता हूँ। जहां एक और दृष्टि की बात है एक और दृष्टिकोण की.. दोनो की ही बोलने की शैली मुझे अति पसंद है। और मैं सुनता रहता हूँ। सतत। सोने से पूर्व बनारस में सौरभ द्विवेदी को सुन रहा था। मजेदार उसकी यह बात लगती है, कि वह जो पढ़ता है उसे वह और लोगो को पढ़ने के लिए कहता है।
डाकघर का दुःखद हास्य: शिकायतों का समाधान या भटकाव?
प्रियंवदा ! पोस्ट ऑफिस एक ऐसा तंत्र है, जहां पोस्टमेन या डाकिया.. मेरे घर आजतक नही पहुंचा। न कभी किसी का शादी का कार्ड पहुंचा, न कभी कोई 'सफारी' या 'दिव्य संस्कृति' की मेगेज़ीन। यह सब तो न पहुंचे यह चल जाए लेकिन, आधारकार्ड, मोटरसायकल की R.C., या बैंक के एटीएम भी घर नही पहुंचते। यह तो तुक्के से किसी दिन पोस्ट आफिस पहुंच जाता हूँ, और अपने नाम से जो जो आया हो वो इकट्ठा ले आता हूँ। आज पोस्ट ऑफिस याद आने का एक और कारण है। मैंने एक बुक आर्डर की थी, उसकी ट्रैकिंग करने पर वह मेरे शहर तक पहुंच गई है, यह दिखा रहा है। लेकिन घर तक नही पहुंचेगी। कारण है डाकिया। फोन भी नही करते यह लोग। पिछली बार मेरा एटीम उसके पास पंद्रह बीस दिन पड़ा रहा, मेरे घर नही पहुंचा। मैंने इंडियन पोस्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर कंप्लेंट रेज कर दी। और फिर मैं बैंक गया, और उनसे झगड़ा कर लिया कि एटीएम क्यों नही भेजते तुम लोग? तब उन्होंने ने सारी ट्रेकिंग दिखाकर कहा, पोस्ट ऑफिस पर जांच कीजिये। पोस्ट ऑफिस पहुंचा तब वह एटीएम वहां सकुशल एक कोने में मेरी राह देखता मायूस पड़ा मिला। डाकिये से क्या झगड़ा करे कोई? केंद्र सरकार का पदाधिकारी है वह। इनसे सीधे मूंह झगड़ा नही मोल लेना चाहिए।
चार-पांच दिनों बाद डाकिये साहब का फोन आया मुझ पर। बोले, आपने कंप्लेंट की है, आपकी कोई पोस्ट यहां ऑफिस पर है नही। यह तो हाल है इनके। मैंने पुराना वाला डाकिया समझकर कंप्लेंट डाली थी, लेकिन यह बदली होकर एक नई भर्ती का नौजवान था। अब इससे तो मुझे क्या ही आपत्ति होती, इससे तो पाला ही पहली बार पड़ा था। फिर भी कंपलेंट वापिस नही ली मैंने। उसपर ऊपर से प्रेशर आता रहा होगा। फिर दो दिन बाद उसका फोन आया, कारण वही था, कि मैंने कंप्लेंट वापिस नही ली थी। हालांकि एक और बात भी थी, मुझे कंप्लेंट वापिस लेने का कोई ऑप्शन ही नही मिला था.. लेकिन फिर उसको समझाया कि, 'आगे से मेरी पोस्ट अगर आप घर नही पहुंचाते हो, तो कम से कम फोन कर दिया करो, मैं खुद पोस्ट आफिस से कलेक्ट कर लूंगा। और आप खुद ही अपने ऊपरी को कह दो, समस्या का समाधान हो चुका है।' प्रियंवदा ! यह समय ऐसा है कि फरियाद के निवारण होते है। वो दौर कुछ संस्थाओं में से चला गया है जहां कम्प्लेंट भी किसी कोने में बहुत नीचे दबी पड़ी रहती थी।
शुभरात्रि।
(११/०६/२०२५)