"राजा-सोनम, स्त्री-पुरुष विमर्श और खाखी की कहानियां – दिलावरसिंह की कलम से" || दिलायरी : १०/०६/२०२५

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राजा-सोनम की खबर और स्त्री-पुरुष विमर्श की चिंगारी



    देखो प्रियंवदा ! अपना वो मामला सेट है, जब लिखने के लिए कुछ भी न हो, तो स्त्री-पुरुष का मुद्दा, या फिर फकीरचंद प्रेम का मुद्दा तो होता ही है। और दोनों मुद्दे ऐसे रटे-रटाए है मेरे, कि मुझे बस माचिस की तीली लगानी होती है, और वाक्य अपने आप जलने लगते है। तीली तो इस बार समाचार वालो ने जला ही रखी है। सोनम और राजा रघुवंशी..! इंदौर का नवविवाहित युगल, मेघालय के शिलॉन्ग में घूमने गया। समाचार आया, कि राजा की लाश मिली है, और सोनम गुमशुदा है। फिर एक दिन यूपी-बिहार के किसी ढाबे से सोनम पकड़ी गयी या मिली..! और फिर तीन आरोपियों के और नाम आए।

    प्रियंवदा ! वो गाना है न.. 'मेरा देश बदल रहा है... आगे बढ़ रहा है..' सच में बदल रहा है। वो दौर तो जैसे अपनी लाइमलाइट चूक गया, जब हम अक्सर समाचारों में सुनते थे, या आसपड़ोस में सुन लेते थे, कि फलाने घर में स्त्री ने अग्निस्नान किया, या पंखे से लटक गयी। कारण होता था पति का त्रास। या तो दहेज़, या तो दारू..! मैं जब भी स्त्री पर हुए अत्याचार की बात सुनता था, तो मुझे वही गुजराती कहावत याद आती, 'नबळो धणी बैरी पर शुरो !' मतलब, शाब्दिक भाषांतर कमजोर पुरुष स्त्री पर शूरवीरता दिखाता है। तात्पर्य, जो पुरुष बाहरी दुनिया में अपनी धौंस नहीं दिखा पाया, वो घर पर ज्यादा जोर करता है।

‘सेव मेन’ ट्रेंड: मौन स्त्रियों के शोर का उत्तर?

    स्त्री तो वैसे ही गौ की तरह जहाँ ले जाया गया, वहां गयी है। स्वघर से श्वसुरघर तक..! बिना बाप के आदेश पर शंका किये। लेकिन पुरुष, पुरुष की वह नैतिकता क्षीण हो गयी, जिसमे वह अर्धांग शब्द को भूल कर, अपनी ही स्त्री को प्रताड़ित करने लगा, जैसे कोई निर्जीव संपत्ति पर अपना अधिकार दर्शाता हो। वह बे-लगाम होकर अपनी ही स्त्री से अभद्रता से वर्तणुक करने लगा। जैसे उस स्त्री का कोई स्वाभिमान ही न हो। उस स्त्री के साथ साथ उस स्त्री के परिवार को भी अपमानित करने लगा। वह भूल गया, की उसने कन्या का दान लिया है। वह याचक था, दाता नहीं था।

    लेकिन आज जब स्त्रियों के द्वारा पुरुषो को प्रताडने की ख़बरें चलती है, तो पुरुष हो हल्ला करने लगा है। जैसे वह दबा-कुचला रहा हो, सदियों से स्त्रियों द्वारा। २-४ खबरों से ही इतनी छटपटाहट होने लगी है, जैसे वह सदा से शिकार बना हो। सारे के सारे सेंसेशंस एक साथ होने लगे हो। क्यों? जब स्त्रियां अग्निस्नान करती थी, जब वरमाला के बाद रस्सी गले में डाल लेती थी, तब भय नहीं लगता था? मैं न्याय या निति की बात नहीं कर रहा हूँ। वो बात अलग है, कि अपराध अपराध होता है, चाहे कोई करे। लेकिन मैं यह कहना चाह रहा हूँ, कि जैसे अचानक से सोसियल मिडिया पर save mens ट्रेंड होने लगता है।

नैतिकता बनाम सोशल मीडिया – न्याय या सनसनी?

    यह खासकर ट्रेंड से जब विरुद्ध कुछ होता है, तब लोगो का ध्यान खींचता है। इतने वर्षो से स्त्री पर हुए अत्याचारों की खबरे सुन रहे थे, तब बस दो मिनिट की चर्चा करके भूल जाते थे। लेकिन यह स्त्री प्रताड़ित पुरुषों की चंद खबरे सोसियल मिडिया पर बड़ी फेम पाती है। हाँ ! स्त्रियों के लिए यह भी कहा जाता रहा है, कि स्त्री के कारण ही रामायण और महाभारत हुई। स्त्री के कारण ही समस्याएं उत्पन्न हुई। लेकिन वहां भी वर्णन-गाथा तो पुरुषो के ही सामर्थ्य की हुई है न..! जैसे कुछ पुरूषोंने परस्त्री के लिए अपनी स्त्री का शिकार किया हो, वैसे ही परपुरुष के लिए स्त्री शिकार करें तो पुरुष का पौरषत्व पर संकट खड़ा हो जाता है। 

द्रौपदी, अंबा और आज की नारी-शक्ति

    जैसे पुरुष की शक्ति उसका बाहुबल है, वैसे ही स्त्री की शक्ति उसका बुद्धिबल है। कृष्ण जब शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जा रहे थे, तब द्रौपदी ने वचन मांगते कहा था, 'शांति का सन्देश लेकर जरूर से जाओ, लेकिन युद्ध लेकर लौटना।' वरना पुरुषत्व तो पांच ग्राम में भी राजी था। वहां स्त्री की बुद्धि ने पुरुष के बाहुबल को भारतवर्ष का सम्राट बनाया था। अम्बा की स्त्री हठ.. भीष्म को इच्छामृत्यु की ओर अग्रसर करवा दिया था। मुझे लगता है, आज का पुरुष या फिर यह सोसियल मिडिया की राय.. बड़ी शीघ्र उठते दूध के उभार सी है। कब, कहाँ, किस ओर पलट जाए कोई नक्की नहीं।

    पुरुषो को स्त्रियों की तरह अधिकारों के आरक्षण की जरूरत आन पड़े, यही अपने आप में एक मुद्दा है। शायद इसी लिए नैतिक मूल्यों की जरुरत होती है। एक स्त्री किसी और पुरुष के लिए, या पुरुष कीसी और स्त्री के लिए अपने जीवनसंगी, जिसके साथ वचनो का आदानप्रदान हुआ है, उसीके साथ विश्वासघात करे यह नैतिक मूल्यों का हनन नहीं तो और क्या है? वचन की कीमत न रखे सकें, उनसे छल के अलावा क्या ही अपेक्षा की जाए? मुझे नहीं पता, मेरा मंतव्य क्या है.. पुरुषो के लिए कोई विशेषाधिकारों की मैंने कल्पना ही नहीं की है। स्त्रियों के लिए आवश्यक है, यह मैं जरूर मानता हूँ।

निष्कर्ष: नैतिक बाढ़ से पहले का बाँध

    वैसे गुजराती में कहावत है कि 'पाणी पेहला पाळ बांधी लेवाय..', मतलब बाढ़ आने से पहले कुछ आवश्यक पूर्व-तैयारियां जरूर कर लेनी चाहिए। ऐसा ही कुछ इस मुद्दे पर भी हो तो ठीक रहेगा। क्योंकि भोली स्त्री है, तो कुछ पुरुष भी भोले है। दोनों ही कपटी युगल हो तब तो कोई समस्या थी नहीं। या दोनों ही भोले हो तब भी कोई समस्या न थी। लेकिन युगल में से कोई एक कपटी और एक भोला हो तब बात जान पर आ जाती है। खतरे का निशान तो दोनो तरफ भयजनक ही था, लेकिन लगातार एक पक्ष की ज्यादा हानि हुई थी, इस कारण से इतनी गहमा-गहमी न थी। न ही कोई भयस्थान था उस और से, शायद अशिक्षा के प्रभाव से। 

दोस्ती के अनु-समूह और खाखी की गिरफ्त

    खेर, आज सुबह जब ग्राउंड में वॉर्निंग वॉक पर निकला था, तब यूट्यूब पर यही सोनम राजा के केस पर मीडिया ट्रायल चली हुई थी.. मुझे ऐसे मुद्दे सुबह सुबह रास नही आते। तो मैं अपना मस्त गुजराती हास्य सुनते हुए सारी कसरतों के बाद घर लौटा, तैयार होकर ऑफिस पहुंचा और दिलायरी पोस्ट की। चश्मा के शीशों की परत बढ़ाने वाले थोथो पर आज भी, पूरा दिन, फूल पर मंडराते भंवरे की तरह भिनभिनाता रहा..! क्या करें? इसी का नाम नौकरी है। वैसे आज एक हचमचा देने वाली खबर सुनी है। बड़ी ही विचित्र खबर है। और तर्कसंगत भी नहीं। 

    प्रियंवदा ! मित्र-वर्तुल में छोटे छोटे अनु-समूह होते है। मैं पहले कह चुका हूँ। हमारा मित्र वर्तुल एक समय पर छह-सात मित्रो का हुआ करता था। धीरे धीरे हर कोई अपने निजे जीवन मे व्यस्त होते गए, समूह बिखरते गया। आखिरकार पांच बचे। पांच में से एक बड़े ही अलग लेवल पर चला गया। थोड़े चाल-चलन बदल गए, और खाखी की झपट में आ गया। उसके दूर होने के बाद बच गए चार। अब चौथे ने भी धीरे धीरे ग्रुप चेंज किया। बाबाओं वाले निजानंदी समूह का वह सदस्य बना। उसको हमने चेताया भी था, मानसिक तौर पर व्यक्तित्व को नष्ट कर देने वाली राह है। लेकिन वह नही समझा। उसने भी थोड़ी दूरी कर ली। हमने भी। वह आज झपटे चढ़ गया। बच गए तीन। मैं, पत्ता और गजा.. गजा भी एक समय पर बिगड़ा था, लेकिन सुधर कर जहरीले व्यक्तित्व को प्राप्त हुआ। हमारे उस समूह में, जो मैं अनुसमूह की बात कर रहा था, वो बच गया मैं और पत्ता। तथा मैं और गजा। 

'मैं ही खरगोश हूँ' – एक तीखा तंज

    हाँ, मेरी पत्ते के साथ भी खूब बनती है, और गजे के साथ भी। इस कारण मैं इन दोनों के साथ अलग अलग द्विपक्षी अनु-समूहों का सदस्य हूँ। और मुझे तो अकेले भी निजानंद बड़ा आता है, इस कारण मैं अकेला भी काफी रहता हूँ। खेर, उस चौथे को एक दिन मैंने बुधा नाम दिया था, हालांकि यह ऑफिस वाला बुधा नही है। बुधा निजानंदी। खाखी के आगे किसी की नही चलती, और खाखी अपनी ही चलाती है वह भी देख लिया आज। वो जौक बड़ा सटीक लगता है कि एक बार देश विदेशी खाखी की क्षमता कसौटी के लिए एक बार एक खरगोश को जंगल मे छोड़ दिया गया। टास्क यह था कि कौन सी खाखी सबसे पहले उस खरगोश को पकड़ लेती है। सबसे पहले काली खाखी जंगल मे गयी, डेढ़ घंटे में खरगोश पकड़ लायी। फिर छोटी आंखों वाली खाखी भेजी गयी, पौने घण्टे में पकड़ लायी, फिर श्वेत खाखी भेजी गई, आधे घण्टे में पकड़ लायी। फिर बारी इस ओरिजिनल खाखी की। शाम होने को आई, न खाखी वापिस आयी, न खरगोश..! फिर तो यह काली-गोरी, और छोटी आंखों वाली खाखी इन ओरिजिनल खाखी को ढूंढने गए। तो जन्होने देखा कि यह खाखी तो एक सियार को पकड़े पिट रही थी, और उससे कहलवा रही थी, 'बोल, मैं ही खरगोश हूँ..'

    शाम होते होते हमारे बुधे के भी यही समाचार मिले, बुधा बोल पड़ा, 'मैं ही खरगोश हूँ।'

    शुभरात्रि।
    (१०/०६/२०२५)

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