गठबंधन जो टूटते नहीं — प्रेम या सत्ता?
प्रियंवदा ! कुछ गठबंधन बेतोड़ होते है, टूट नही सकते, चाहे तब भी। उनपर बेड़ियां लगी होती है, कुछ नियमो के बंधन की। या यूं कहा जाए कि तानाशाही बन जाती है। जहां अहम के टकराव होते है, मेरा सच ज्यादा बड़ा सच है तुलना में। और इस सच का स्वीकार्य होना अनिवार्य है। यह गठबंधन कितने ही टकरावो को झेल सकता है, इसमें सहनशीलता ही सबसे बड़ा नायक है, और प्रेरकबल भी।
ऑफिस, आलस और चने की चिंगारी
खेर, आज सुबह ऑफिस पहुंचकर, काम तो इतना ही था, जितना हररोज होता है। नौकरी चीज ही ऐसी है, आलसी या ऊर्जाहीन, या मोटी चमड़ी के लोगो की चीज है। जिनमे नूतन विचार रुक गए हो, या जो और कहीं पर सेट न हो पाए वे इसी चिड़िया के प्रेम में पड़ते है। दोपहर को भुना चना खाकर जो तनबदन मचला है शाम तक..! बात जाने दो.. ऐसी उमस वाली गर्मी में एक तो वैसे ही मोटा शरीर रह नही पाता, ऊपर से पाचनतंत्र की कसौटी करने चना मैदान में उतार दिया। फिर तो शाम तक बस चक्कर काटने पड़े। मतलब वॉकिंग करते रहनी पड़ी। थोड़ी थोड़ी देर में या तो ऑफिस की सीढ़ी चढ़-उतर करता, या फिर ऑफीस के बाहर थोड़े दूर तक पैदल चल आता।
पंखा बनाम प्रेमिका – गर्मियों की दिलचस्प तुलना
इस उमसभरी गर्मी में पंखा प्रेम से भी ऊपर आता है। एक बार को आदमी प्रेयसी के दिए धोखे को नजरअंदाज कर जाए, लेकिन पंखा अगर थोड़ा भी धीरा हो जाए तो सातों महासागर रसातल चले जाए, ब्रह्मांड कांप जाए, दसों दिगपाल दिशाहीन हो जाए, गुरु अपना गुरुत्वाकर्षण त्याग दे..! पंखा और प्रेमिका में समानता क्या है पता है प्रियंवदा? दोनो ही फेंकते है..! एक काल्पनिक मीठी बाते, और एक हवा। दोनो में मजा बड़ा आता है। दोनो किसी एक ऋतु में रास नही आते। गर्मियों में प्रेयसी, और सर्दियों में पंखा..! गर्मियों में पसीने से लथपथ प्रेमी, प्रेमिका की गोद मे सर रखा हुआ अच्छा नही लगता, चिपचिपा लगता होगा..! सर के तेल से होते हुए बहते पसीने भरे माथे में प्रेमिका कैसे हाथ फेरे? बीभत्स रस यही तो है..
शाखा, सहगान और संवाद की मिठास
शाम को जहरीले गजे का मैसेज आ चुका था शाखा में आने के लिए। आज मन तो नही था, क्योंकि यह दिलायरी पूरी ही बाकी पड़ी थी, तो मैने मना करते कहा, "मैं नही आ पाऊंगा, जुम्मा है, नमाज पढ़ने जाना है.." गजा भी तो होशियार है, बोला "रात को नही होती, चुपचाप समय से आ जाना।" मजे लेने के इरादे से मैंने कहा, "मुसलसल इबादत का इल्म है, दिने इलाही रसूल लबेक रात को होता है.." गजा भी जानता था इस वाक्य का कोई अर्थ होता ही नही है, बोला, "हाँ ! वो आज शाखा में कर लेना।" तो मैं और क्या ही कहता, "ok" के सिवा। शाखा में आज का सहगान भी बड़ा सही था।
"किसने मुझे कहा था, धोखा कभी न दूंगा,
मैंने कहाँ कहा था, तेरा प्यार ही मैं लूंगा..!"
प्रेम की अर्थव्यवस्था – इमोशन का निवेश
अक्सर हम किसी एक के प्यार को ही सब कुछ मान लेते है, और दूसरों के प्रेम की अवहेलना कर जाते है। शायद उम्र का प्रभाव? या फिर प्रेम की समंदर में छोटे झरनों का अहसास नही होता, या प्रेम के हैलोजेन में छोटी टॉर्च की रोशनी नही दिखती। किसी एक व्यक्ति की भावना हमे इतनी चाहिए होती है, कि दूसरे दस आदमियों की भावना हम नजरअंदाज कर जाते है? क्यों? क्योंकि शायद ज्यादा की लालच है हमे। जैसे कोई एक व्यक्ति अकेला दस हजार दे, या सो आदमी सो-सो रुपए दे, कीमत समान हुई, लेकिन मन उस अकेले दस हजार देने वाले व्यक्ति का आदर करता है। प्रेम भी कुछ ऐसा ही है.. उस विजातीय आकर्षण का अनुभव करते हुए उस एक व्यक्ति के पीछे अंध हो जाता है।
ठीक है, यह सुबह सुबह लिख रहा हूँ, और आज इतना बहुत है। आजकल लिखने का शिड्यूल खराब हो चुका है।
शुभरात्रि।
(१३/०६/२०२५)
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