मुअनजोदड़ो, दिलायरी और योगनुयोग की एक दास्तान || दिलायरी : १४/०६/२०२५

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प्रियंवदा को लिखी एक और दिलायरी: मुअनजोदड़ो, किताबें और केसरी संध्या



    प्रियंवदा ! जिस समय जो बात याद आए, दो पल निकालकर उसे लिख लेनी चाहिए। क्योंकि बाद में सर के बाल नोंचने पर भी वह याद नहीं आती। ना, यह बात मैं अपने अनुभव से तो कतई नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि मैं बाते याद करते समय आँखे बंद कर लेता हूँ, या कहीं और ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करता हूँ। चलो स्वीकार ही लेता हूँ। आज आलस के कारण एक अनुच्छेद बिसर गया। कोई बढ़िया ढंग की ही बात रही होगी। क्योंकि मैं याद करने की कोशिश तो वाकई कर रहा था। जाने दो, अपनी कलम से कागज़ पर उतरने की उसकी इच्छा नहीं रही होगी।


किताब जो आने को तैयार नहीं थी: 'मुअनजोदड़ो' की प्रतीक्षा

    आज सुबह ऑफिस पहुंचकर पहले तो कल की दिलायरी लिखी। क्योंकि कल समय ही नहीं मिल पाया। हालाँकि समय तो आज - अभी - भी नहीं है, लेकिन मैं यह दो पल किसी और पलों को ठेलकर ले आया हूँ। आज शनिवार है, लेकिन मेरे लिए लाभदायक रहा। कभी कभी अच्छे भले योगानुयोग हो जाते है। सुबह से तो काम पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। और ऊपर से याद आया, मेरी एक ऑर्डर की हुई बुक पोस्ट ऑफिस में पड़ी है। जो मैं लेने नहीं जा पा रहा हूँ। उसकी और मेरी टाइमिंग्स नहीं मिल पा रही थी।


ऑफिस, आदेश और बुधा की बेचैनी

    कभी कभी कुछ आदमी बेफालतू की रजामंदी के चक्करों में पड जाते है, और फिर प्लानिंग्स की ऐसी की तैसी करवा बैठते है। आज भी कुछ वैसा ही हुआ। कुछ काम तो आया ऑफिस का। गजे को कहा, कुरियर भी मांगा ले, और पोस्ट ऑफिस से मेरा पार्सल भी ले आएगा। उसने काम सौंपा बुधे को। बुधा बैठा रहा आदेश के इंतजार में। साढ़े बारह तक। यह तो जब मैंने बुधे को ऑफिस में ही बैठा पाया, तब पता चला, वो तो मार्किट जाने के लिए मेरे ही आदेश के इंतजार में बैठा रहा। पोस्ट ऑफिस से पार्सल ले आने के बावजूद उसने मुझे दी नहीं। वो ऑफिस लौटकर दूसरे कामो में लग गया। इस यात्रा-वर्णन की पुस्तक ने मुझ तक पहुँचने में ही शायद बहुत यात्राएं की है।


    क्या केसरी संध्या खिली है प्रियंवदा ! कुछ देर ही सही, लेकिन जैसे किसी अवकाश में स्थापित हनुमान के प्रतिक स्वरुप पाषाण को, कोई अपनी धून में बहते बादल ने नहलाया हो, और हनुमान का सिन्दूर भीगता - बहता - समस्त आसमान को केसरी कर गया। प्रियंवदा ! कभी कभी हम इतने दूर की देखने की लालसा में मस्त हो जाते है कि नजदीक का ही नजरअंदाज कर जाते है। या तो हम उस नजदीकी की कीमत उतनी नहीं लगाते जितनी दूर वाले की हो। मैं कभी भी पास ही स्थित, हड़प्पा संस्कृति या सिंधु घाटी सभ्यता का अंश धोळावीरा देखने नहीं जा पाया। हर-बार 'यहाँ तो कभी भी जा सकते है' के बहाने के तले नहीं गया। क्योंकि नजदीक है, कभी भी जा सकते है।


    वो जो मैंने कुछ दिनों पहले एक बुक और्डर की थी, वह थी 'मुअनजोदड़ो'.. लेखक ओम थानवी। विशेष कोई जानकारी नहीं है। क्योंकि यह मेरे कलेक्शन की दूसरी ही हिंदी पुस्तक हुई, और मेरे हिंदी वांचन की कोई पांचवी-छठी होंगी। लेखक राजस्थान से है, इतना मैंने फ़िलहाल परिचय से पढ़ा है। लल्लनटॉप के सौरभ द्विवेदी के एक विडिओ में इस बुक का थोड़ा परिचय मिला। और यह एक यात्रा वृतांत है, यह जानकर मैंने खरीद ली। खरीदने का तरीका भी बड़ा कैज़ुअल हुआ। न फ्लिपकार्ट पर मिली, और अमेज़न से मैं खरीदता नहीं। अमेज़न वाले एक तो डिलीवरी करते नहीं, और ऊपर से डिलीवरी बॉय, 'पेमेंट नॉट रेडी' के बहाने के तले डिलीवरी नहीं देता। मतलब इन लोगो को लगता है, जिसने कॅश ऑन डिलीवरी किया है, उनकी जेब में साढ़े-तीनसौ रूपये नहीं रहते है।


    और कहीं इस बुक की उपलब्धता दिखी नहीं, तो मैंने पब्लिकेशन ढूंढा। वह मिला, और उसकी साइट पर बुक ऑर्डर करने का ऑप्शन भी। अनजान वेबसाइट पर ऑनलाइन पेमेंट करने में मन एक बार झिझकता जरूर है, लेकिन इच्छा के अधीन बाकी सारी संभावनाएं कमतर आंकी जाती है। पहली जून को ऑर्डर की थी, वो चौदह जून को हाथ मे आयी। छोटी सी ही बुक है। ज्यादा पन्ने नही है। मुअनजोदड़ो का यात्रा वृतांत है। वैसे वो कौन लोग थे, कहाँ गए आज भी यह प्रश्न अकबन्द है। उनका धर्म क्या था, कोई प्रार्थनाघर उस नगर में क्यों नही था.. ऐसे कई सारे प्रश्न अनुत्तर है। उनकी भाषा - लिपि आज भी कोई सॉल्व नही कर पाया। बस कुछ प्राकृतिक आपदा या किसी आक्रमणों के कारण उस नगर के नाश की कल्पना है।


लाखापर की खुदाई: सिंधु की स्मृतियाँ फिर ज़िंदा

    मुअनजोदड़ो - मोहनजोदड़ो सिंधी का शब्द है, जिसका अर्थ है मुर्दों का टीला..! हड़प्पा गांव में अवशेष मिलने से हड़प्पन संस्कृति नाम दे दिया गया। पाकिस्तान के पंजाब से लेकर गुजरात के कच्छ, हरियाणा, और राजस्थान में इस के अवशेष - साक्ष्य मिले है। दिलचस्प मामला है, ट्रैन की पटरियां बिछाते हुए इस प्राचीन नगर अवशेष की खोज हुई थी..! और योगनुयोग आज ही, जब यह बुक मेरे हाथ मे थी, और मैंने स्टोरी के लिए इंस्टाग्राम खोला तभी समाचार मिले, 2022 में कच्छ में लखपत के पास लाखापर में खुदाई शुरू हुई थी, और उन्हें सफलता मिली। लगभग 5300 वर्ष पुराना नगर, मकान की नींव, मिट्टी के बर्तन, एमेजोनाइट के मोती, शंख के मोती, चूड़ियां, और तांबे के कुछ अवशेष मिले। और 197 कब्र मिली। यह जगह भी वहीं है, पुराने सिंधुप्रवाह के पास। कैसा योगनुयोग हुआ, हड़प्पा संस्कृति की बुक भी मिली, यह लाखापर के समाचार भी..! 


    यही जीवन है, योगनुयोग और भाग्य के चमत्कार.. एक झीनी रेखा से संतुलित है सब कुछ.. तय कर पाना मुश्किल, क्या सच है, क्या सच था, क्या सच होगा? आज जो इतिहास है, वहां कुछ नया संशोधन होता है, तो कल इतिहास बदल जाएगा। नई धारणाएं पुरानी को मात देकर नई धारणा बन जाती है।  बस नही बदलता है तो वह है प्रेम, लोग बदल जाते है बस।


    शुभरात्रि।

    (१४/०६/२०२५)


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