गर्मी और जिम्मेदारियों की शुरुआत
प्रियंवदा ! इस गर्मी में कहीं भी नही निकलना चाहिए। और मैं तो अपनी जिम्मेदारियां लेने चल पड़ा.. तबियत नादुरुस्त होनी तय ही थी। सुबह सुबह चार बजे माताजी द्वारा जगा दिया गया। और साढ़े पांच तक तो मैं घर से निकल भी गया था.. लगभग 220 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी, जिसमे आम तौर पर चार-साढेचार घंटे लगते है। और मेरी तो ड्राइविंग भी अजीब है, तो मुझे थोड़ा ज्यादा समय लगता है।
सड़क पर अकेलेपन का स्वाद
सुबह साढ़े पांच को जेब मे ईंधन का छेद हुआ.. टोल अलग..! पचास किलोमीटर पर पहला स्टॉप लिया सिर्फ मावा खाने को। फिर से रोड पर चढ़ाई, और भारतमाला का भरपूर लाभ उठाया। जामनगर-अमृतसर इकनोमिक कॉरिडोर का वैसे तो काम अभी चालू है। लेकिन जितना बन चुका है वह अफलातून बना है। वैसे भी गडकरी साहब का रोड के मामले में क्या ही कहने.. जहां नए बने है वहां तो कोई शिकायत का स्कोप नही, और जो पुराने है, उनपर कोई शिकायत की सुनवाई नही। आज मालिया से जामनगर रोड पर पिपलिया के बाद जामनगर तक गजब की सड़क मिली है। हालांकि पहले भी इस रोड पर चल चुका हूँ। लेकिन अकेले चलने के मजे अलग है।
भारतमाला परियोजना का अनुभव
पिपलिया चौकड़ी पर दूसरा स्टॉप लिया था चाय का। क्योंकि सुबह जल्दी जागने के बाद आज कसरत नही की थी, तो सरदर्द होने लगा था। चाय पी, और कुछ देर वहीं टहलने के बाद इस भारतमाला के आरसीसी रोड पर गाड़ी दौड़ने लगी थी। एक बड़ी विचित्र समस्या है इस रोड की.. रोड इतना बढ़िया और खाली होता है, कि स्पीड अपने आप बढ़ जाती है। मैंने कई बार सुबह स्पीड कंट्रोल की है। चलते चलते पता ही नही चलता, कब कार सौ के पार चली जाती है। इस रोड पर न तो कोई पेट्रोल पंप का अंबार लगा था, न ही कोई होटल..। अभी तक काम चालू है शायद इस लिए। काफी खेत कटे है, इस फोर लेन रोड के लिए। और कई ओ के साथ ऐसा भी होता है, कि खेत के बीचोबीच से सड़क निकलती है, इस कारण से रोड के दोनो तरफ छोटे छोटे तिकोने टुकड़े बचते है किसान के। हाँ वो बात अलग है, कि सरकार किसानों को जमीन का मूल्य भुगतान कर देती है।
ननिहाल से लौटते कुँवरुभा की मुस्कानें
लगभग साढ़े नौ - पौने दस को मैं जामनगर सिटी में था। कुँवरुभा को उनके नाना जामनगर तक छोड़ने आ रहे थे। सवा दस तक उनकी बस आ गयी। और पौने ग्यारह को हम फिर से एक बार रोड पर थे, इस बार घर की और। ननिहाल से लौटे कुँवरुभा थकते नही थे, कि उन्हें क्या क्या सौगाद मिली है। पेन, बुक्स, स्कूल बैग, कपड़े, घड़ी, चश्मा और कई सारे खिलौने... बालकों को और क्या चाहिए। ध्रोल के आसपास नाश्ते के लिए रुके.. छोटी सी आहुति पेट को अर्पण कर फिर से एक बार रोड पर थे.. वही रोड, जिससे सुबह आया था। लेकिन भेद इतना था कि अब सूर्यदेव कहर बरसा रहे थे। कभी ac चालू करता, कभी उसे फुल करनी पड़ती। तो कहीं लू का भी स्वाद लेना पड़ता। ध्रोल के बाद तो कहीं रुकना हुआ ही नही। सामखियाली में जब घुटन और थकान दोनो ने इतना घेर लिया कि स्टॉप लेना मजबूरी बन गयी।
कच्छ की लू और ‘गांडो बावळ’ का साम्राज्य
स्टॉप के लिए जगह भी तो छांव वाली चाहिए। ताकि गाड़ी को भी तो आराम मिले। और प्रियंवदा, रन के किनारे बसे कच्छ में कोई ऐसा छांयादार पेड़ मिलता ही नही। हर जगह बस 'नेल्टुमा जुलिफ्लोरा' का ही साम्राज्य है। पता नही इस पेड़ का क्या योगदान है? इसे रन को आगे बढ़ने से रोकने लिए बोया गया था। लेकिन अब इसी को रोकने का कोई प्लान नही.. गुजराती में इसे गांडो बावळ कहते है। है तो यह भी एक बबूल ही, लेकिन पागलों की तरह फैलता है। पागल माने गुजराती में 'गांडो'.. यह 7-8 फुट की ऊंचाई को प्राप्त पेड़ न ही छांया देता है, नही कोई रसाल फल। कच्छ में हर जगह यही दिखता है। अब कार रोकने को कोई अच्छी जगह ढूंढनी बड़ी मुसीबत हो गयी।
सामखियाली की छांव और होटल की हकीकत
खेर, सामखियाली के पास फिर एक होटल में ही रोकी। इस रोड पर एक और विचित्र मुद्दा है। ज्यादातर होटल्स मुस्लिम की है, लेकिन नाम - सहयोग, राज पैलेस, स्वागत.. (यह नाम सिर्फ उदाहरण है।) इसी तरह के होते है। मैंने जहां स्टॉप लिया उसका का भी यही हाल है। नही, मैं हिन्दू मुस्लिम नही कर रहा। लेकिन तात्पर्य यह है, कि घर की स्त्रियों को ऐसी होटल में भोजन के लिए ले जाने में एक झिझक तो अनुभव होती है। मैंने फिर उस होटल की पार्किंग में ही छांया तले कार रोकी, खाना खाने के लिए तो घर अब बस एक घण्टे की ही दूरी पर था। कुँवरुभा के लिए एक पैक्ड कुल्फी खरीद ली। मुझे घुटन सी लग रही थी, तो मैं वहीं पार्किंग में छांया तले कुछ देर नंगे पैर टहलता रहा।
घर की ओर थकी हुई वापसी
थोड़ी देर बाद राहत महसूस हुई, और फिर से कार दौड़ा दी। ढाई बजे तो घर पर थे। सुबह साढ़े पांच से दोपहर के ढाई.. लगभग चारसो पार किलोमिटर्स.. और थकान इतनी की भोजन करने की होंश नही बची थी। माताजी ने फिर भी कुछ खा लेने को कहा। दवाई लेकर थोड़ा भोजन करके जो सोया हूँ, सीधे पांच बजे आंख खुली है। पांच बजे कुछ काम से फिर मार्किट जाना पड़ गया। और मेरा पूरा शरीर दर्द कर रहा था। लेकिन कुछ काम टाले नही जा सकते। फिलहाल झुकाम लग गया है। और आराम है नही। नींद तो अब भी आ रही है। लेकिन कुछ देर ग्राउंड के चक्कर काटने के बाद, एक देशी बबूल के नीचे यह लिखने बैठा हूँ। शुरुआत की थी लिखने की तब यही ख्याल था, कि आज रहने देता हूँ।
फिलहाल इतना ही,
शुभरात्रि।
(०८/०६/२०२५)