शारीरिक नित्यक्रम में बाधा और झुकाम का व्यंग्यपूर्ण स्वागत
प्रियंवदा ! एक शारीरिक मेहनत का नित्यक्रम हो, और उसमे यदि भंग आ जाए, तो तुरंत शरीर रियेक्ट करता है। भले ही कम दिन हुए हो, लेकिन मेरी सुबह सुबह कसरतों का एक नित्यक्रम तो बन गया था। रविवार को वह भंग हुआ, और हो गया झुकाम। हालाँकि मुझे तो केलों से भी झुकाम लगता है। हाँ ! वैसे मैं कसरत करने के अलावा प्राणायाम नहीं कर रहा था, तो शरीर ने अपने आप आज मुझसे अनुलोम-विलोम करवाया है। हालाँकि यह अनुलोम-विलोम एक एक सांस के लिए नहीं, बल्कि आधे-पौने घंटे तक एक नासिका द्वारा चलता रहा। खेर, झुकाम को तो वैसे भी कोई रोग की श्रेणी में मानता कहाँ है, बेचारे की कोई वेल्यू नहीं है। किसी भी छोटे से मेडिकल से एक गोली खरीदो और राहत पाओ.. जो रोग जितना सरल होता है, उतने ही उसके वैरी होते है। मार्किट में तरह तरह की गोलियां मिलती है सिर्फ झुकाम के लिए।
ऑफिस के अधूरे थोथे और कानों की लत
खेर, आज पुनः नया नित्यक्रम बना है। सुबह जल्दी जागकर, जल्दी जल्दी अपनी मैदानी कसरतें निपटा लेने का। क्योंकि कुंवरुभा को आठ-सवा आठ बजे शाला भी छोड़ने जाना होता है। लेकिन आज अच्छे से मैनेज हो गया, और नौ बजे ऑफिस भी पहुँच गया था। कल की दिलायरी पोस्ट की, और फिर लग गया ऑफिस से एक दिन की छुट्टी के पीछे छूटी अधूरे कामो की लाशें सँभालने। हाँ, बेचारे अधमरे हो जाते हे मेरे बिना। वैसे तो गजे ने सीपीआर दिया हुआ था, तो मेरे पहुँचते ही कम से कम कोई इमेरजैंसी नहीं थी। सोमवार का खाली दिन देखकर सरदार भी थोथे ले आया। बोला, 'ढाई महीना होने आया, लेकिन इन थोथो पर किसी ने कृपादृष्टि नहीं डाली।' फिर क्या, मेरी चारों आँखों का भरपूर दृष्टिपात पाया है आज थोथो ने।
‘जमावट’ पॉडकास्ट और हास्य के दो शिल्पकार: जगदीश त्रिवेदी और शाहबुद्दीन राठोड
प्रियंवदा ! मैं जब भी इन थोथो में अपना सर फोड़ रहा होता हूँ, तो कान को भी कुछ चाहिए होता है। बच्चे का मुँह लॉलीपॉप देखकर लपकता है, वैसे ही मेरे कान इन थोथो का नाम सुनकर बजने लगते है। फिर क्या इन्हे और कुछ बजता हुआ सुना देता हूँ। क्या करूँ, सवेरे कसरत करते हुए कानो को कुमार विश्वास के संभाषणो का श्राव्यरस प्रदान करता हूँ। लेकिन दिनभर यही भक्तिपूर्ण सुन ने की क्षमता मुझ में नहीं। तो क्या सुना जाए? एक तो झुकाम, ऊपर से यह ढाई महीने के अपूर्ण थोथे, और यह पीड़ा अलग की सुने तो सुने क्या? pd के तो सारे वीडिओज़ सुन चूका था मैं। तो आज विचार आया, फोक सुना जाए। लेकिन यह विचार भी तुरंत बाष्पीभूत हुआ। क्योंकि राजस्थानी फोक तो मैं कल रात को ही सुन रहा था। और गुजराती फोक तो अक्सर सुनता हूँ।
तभी एक पॉडकास्ट नजर आया। आदमी को जब कानो में ब्लूटूथ लगाकर विडिओ न देखना हो तो पॉडकास्ट सबसे बेस्ट है। गुजराती में एक चैनल है, 'जमावट।' यह कुछ कुछ मुझे लल्लनटॉप से प्रेरित लगती है, क्योंकि शैली बड़ी मिलती-जुलती लगती है मुझे। पता नहीं क्यों? उधर सौरभ द्विवेदी, इधर देवांशी जोशी। दोनों ही बड़े चयनित शब्द बोलते है। आज सवा दो पॉडकास्ट सुने। एक में थे जगदीश त्रिवेदी। बड़े ही प्रख्यात हास्य कवि तथा कलाकार है। लेकिन उनकी जीवनी के विषय में मुझे कुछ ज्यादा पता नहीं था, तो रसप्रद लगा। और फिर उन्हें जिनकी शैली इन जगदीश त्रिवेदी ने अपनायी है, वे सुप्रसिद्ध 'शाहबुद्दीन राठोड।' नाम में ही हिन्दू-मुस्लिम का एक बेजोड़ गठबंधन मालुम होता है। अति वयस्क व्यक्तित्व है। १९३७ में उनका जन्म है। शाला में प्रधानाचार्य रहे है। तथा एक अलग दृष्टिकोण है उनका जीवन के प्रति। वे साफ़ साफ़ कहते है, अगर आप हास्यरस नहीं दे पा रहे है, तो स्टेज से उतर जाइए, लेकिन कक्षा से नहीं। खासकर जो यह वल्गर जोक्स का एक साम्राज्य खड़ा हो चूका है उनपर।
हास्य में जीवन के दर्शन और सांस्कृतिक समरसता के किस्से
प्रत्यक्ष उदाहरणों से और जिवंत व्यक्तिओं पर सूक्ष्म दृष्टि रखकर उन्होंने कुछ १३-१४ पुस्तकें लिखी है। उन्होंने बड़े कमाल के दृष्टांत दिए, जब बात आयी हिन्दू-मुस्लिम के बिच उत्पन्न हुए वैमनस्य पर। भारत की आज़ादी पर मध्य रात्रि को उस्ताद बिस्मिला खान ने शहनाई बजाकर आज़ादी का उद्घोष और अभिवादन किया था। कुछ प्रसिद्द गुजराती मुस्लिम वाद्य कलाकार मंदिरो में ही अपनी वाद्य सेवा देते है। फिर चाहे जैन मंदिर हो या हिन्दू मंदिर। लेकिन एक बड़ी सुन्दर स्पष्टता भी की, 'जब तक कलाकार अपने वाद्य को साध्य समझता है तब तक सदैव सरस्वती की कृपाद्रष्टी बनी रहेगी, जब वह उसे साधन समझने लगे तो वह कलाकार नहीं रहेगा।' उनकी लेखनी बड़ी जबरजस्त है।
Warning Walk, Burning Walk, Darling Walk और Turning Walk
जगदीश त्रिवेदी की एक व्याख्या बड़ी दिलचस्प लगी मुझे। जो मुझ पर अभी अभी लागू भी हो रही है। बोले, "चावल के बोरे जैसा शरीर हो चुका हो, कपड़ो में समाए न जाते हो, लंबाई में प्रगति न कर पाने के बाद चौड़ाई-मोटाई में बढ़े हो, उनको डॉक्टर द्वारा जब कड़क सूचना मिले कि थोड़ा चला करो, वरना गुजर जाओगे, और तब जाकर चलना शुरू करे उन्हें मॉर्निंग वॉक नही कहते, उन्हें वॉर्निंग (Warning) वॉक कहते है। अब यह वॉर्निंग वॉक वाले जहां चलते है, वहां पहले से जो नियमित वॉक करने आते है, और उनका कसा हुआ शरीर देखकर फिर इनकी जो जलन के मारे वॉक निकलती है, उसे बर्निंग (burning) वॉक कहते है। फिर एक और वॉक है, जब पति को चलने की जरूरत हो लेकिन पत्नी को जरूरत न हो, या फिर पत्नी को चलने की जरूरत हो, और पति को न हो, फिर भी यह कपल जब एक दूसरे की भावना का सम्मान करते हुए, साथ मे वॉकिंग पर निकलता है, उसे डार्लिंग (darling) वॉक कहते है। और सबसे मुश्किल और कठिन वॉक वो होता है, जब आप चलने निकले हो, क़ुदरते के साथ कुदरत की करामात को देखते हुए, सामने से कोई ऐसा ही सुंदर पात्र दिख जाए, और अपनी दिशा बदल जाए - उस पात्र के पीछे - उसे टर्निंग (turning) वॉक कहते है।
I is always capital..
जीवन मे बुद्धि तो ठीक लेकिन, विशुद्धि चाहिए। इतनी गंभीर बात को एक सहज जोक के माध्यम से जनमानस में उतारनी वह शाहबुद्दीन साहब के लिए आज भी बहुत सरल है। जीवन मे देश विदेश की यात्राएं करने के साथ साथ इतिहास के भी रसिक रहे है। अंग्रेजी लेखकों की कलम भी उन्हें सविस्तर याद है। उनका एक डायलॉग बड़ा सुप्रसिद्ध है, 'अंग्रेजी भाषा मे I (आई) है, वो हंमेशा बड़ा ही होता है। I is always capital. क्योंकि आई मतलब मैं। यह जो मैं है वह घमंड का प्रतीक है। जितना बड़ा घमंड उतना बड़ा आई.. लेकिन उस आई को हॉरिजोंटल कर दो, समतल कर दो, तो वह पुल का काम करता है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का काम करता है।' बड़ी बात को कितने सरल दृष्टांत से समझाई। यही तो खूबी है।
हास्य से बेहतर साथी कोई नहीं - प्रेम से भी नहीं!
दिनभर यही सब सुनता रहा, आखिरकार कान तो नही थके, लेकिन इन ब्लुटूथस की जीवाडोरी टूटने लगी। वैसे भी आठ बजने को थे। और मैं यह आधा-अधूरा लिखकर घर लौट आया, जैसे कोई अतुल्य पराक्रम करके सिपाही लौटता है, बस फर्क उतना था कि उनके घाव से रक्त बहता होता है, और मेरे नाक से पानी.. नही बह रहा था। बंद नाक है, कैसे बहेगा? वही मजबूरी की आत्मश्लाघा सी दवाइयां खाकर भोजनादि से निवृत होकर ग्राउंड में चला आया। लगभग ढाई किलोमीटर चलकर, देशी बबूल के नीचे टिटौली की टें-टें-टें सुनते हुए यह दिलायरी का समापन खोजने में व्यस्त हूँ। जो कि मुझे हमेशा की तरह मिलने वाला नही, और मैं अचानक से ब्रेक मारकर शुभरात्रि कह देने की फिराक में हूँ।
और वैसे भी आज इन हास्य लेखकों, और कलाकारों के पॉडकास्ट सुनने के बाद कोई गंभीर और प्रियंवदा के प्रेम में नासिकाडूब समापन कैसे लिख सकता हूँ? देखो, नाक बंद हो तब आदमी गलाडूब नही होता है..! खेर, जीवन मे हास्य उतना ही जरूरी है जितना एक पेन को ढक्कन.. और वैसे भी हास्य पर अधिक भरोसा करना चाहिए, प्रेम से भी अधिक..! वरना आजकल तो हनीमून पर भी पति सेफ नही है..! मीडिया की माने तो पत्नी ने ही सुपारी दे दी.. क्या चल रहा है दुनिया मे। हनीमून से सीधे हेवन?
चलो फिर, यह तो गंभीरता की और अच्छी भली दिलायरी मुड़ जाए उससे पहले ही विदा दो..
शुभरात्रि।
(०९/०६/२०२५)