"चने के झाड़ से लीची तक: एक दिन की दिलायरी, हँसी, सोच और यादें" || दिलायरी : ०७/०६/२०२५

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चने के झाड़ पर चढ़ाने का मुहावरा — हास्य में छिपी सच्चाई


दिलायारी लिखकर फ्री हुए दिलावरसिंह..

    प्रियंवदा ! सब मिलकर मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा रहे है। वैसे यह मुहावरा भी कितना विचित्र है.. चने का तो झाड़ ही नहीं होता है। चने का पौधा होता है। और पौधे पर कोई चढ़े तो चढ़े कैसे? इस लिए ऐसा मुहावरा बना होगा। चने के झाड़ पर चढ़ाना..! जो है ही नहीं उसी ओर दौड़ा देना। तीन सोसियल मिडिया से परिचित मित्र है। और तीनो ने समय समय पर मुझसे कहा, "आप बुक लिखो..!" और एक मैं हूँ, जिसकी अभी तक हिंदी में भाषाकीय वर्तनी की भूलें नहीं जा रही है। हिंदी वाक्य के बिच में एकाध गुजराती शब्द घुसेड़ ही देता हूँ। एक दिन एक मित्र से कहा,"आप तपास करवाना।" वे तपास पर ही अटक गए। मुझे लगा था, 'छानबीन या जांचना' को हिंदी में तपास करना भी कहा जाता होगा। लेकिन यह तो प्रादेशिक शब्द है। गुजरात, महाराष्ट्र तथा उर्दू में उपयोग में लिया जाता है।


किताब लिखने की उधेड़बुन — तबडक तबडक से साहित्य

    चलो अब ख्याली पुलाव पकाते है। अगर मैं कोई बुक लिखने बैठु तो, मुझमे न तो एक पूरी किताब लिखने का सामर्थ्य है, न ही ज्ञान। कहाँ से आरम्भ कर सकते है, कहाँ किसी बात को मोड़ी जाए। न ही विषय। न ही कोई उपदेश। और मैं तो वैसे भी दिनचर्या और कुछ उटपटांग बातो के अलावा कुछ लिखना जानता ही नहीं। न ही मुझमे काव्य स्फुरणा होती है। वो जोक था न, कि एक पागल ने एक किताब लिखी, शुरुआत की, 'एक राजा जंगल में घोडा दौड़ाये जा रहा था..' और अंतिम पन्ने पर लिखा, 'राजा जंगल से महल लौट आया।' इस पर चारसो पन्ने की किताब.. किसी ने पूछा, कि बिच में क्या लिखा है? तो पागल बोला, "तबडक... तबडक..." क्योंकि घोडा दौड़ रहा था, चारसो पन्नो पर दौड़ा.. बस तबडक तबडक.. 


मामा-महीना और बसों की भीड़

    खेर, आज सुबह साढ़े छह को जाग गया। मैदान में जाकर वही कसरतों का दौर चला, लगभग आठ बजे वापिस। घर पहुंचा तो माताजी ने कहा, 'रात को कुँवरुभा को लेने जाना है।' बताओ, आज भी अचानक ही सरप्राइस देते है माताजी। न कोई अग्रिम सूचना, न कोई माहिती। सीधा आदेश..! न ही ऑफिस से छुट्टी लेने का मौका, न ही अपने कामो को समेटने का समय। खेर, तुरंत बस सर्च की। सारी ही फुल है। लोग गर्मियों में रात्रि मुसाफरी ही करते है। दिनभर काली सड़को पर दौड़ती बसों में लू का रसास्वाद किसे पसंद आए? और वैसे भी यह तो मामा महीना समाप्ति का समय है। अरे हाँ ! मई - जून को 'मामा-महीना' भी कहा जाता है प्रियंवदा। ज्यादातर बहने अपने भाई के घर वेकेशन पर आती-जाती है। तो इन दिनों में मामा पर अधिक भार होता है। इस लिए 'मामा-महीना।'


    वेकेशन खुल गए है। तो ज्यादातर मायके खाली होते है, और ससुराल में भर्ती बढ़ती है। शायद यह भी एक कारण है बस फुल होने का। और ज्यादातर बस में पिंक सीट्स दिखती है, बुकिंग एप्लिकेशन में पिंक सीट्स मतलब लेडीज़ के लिए बुकिंग की हुई है। सोचा ! बस में रात भर में पहुँच तो जाऊंगा, लेकिन वहां से तो दिन में ही आना पड़ेगा। AC BUS तो रात को चलती है। दिनभर करूँगा क्या? इस लिए कार लेकर जाने का तय हुआ। आज सुबह ऑफिस पहुंचा तब साढ़े नौ बज गए थे। और कल की दिलायरी अधूरी थी। सुबह सबसे पहले तो वो लिखी। और पब्लिश कर दी। स्नेही आज फिर गायब है। लेकिन भरोसा है। उनके वहां भी देर है, अंधेर नहीं। आ जाएगा प्रतिभाव। दोपहर तक तो सारा काम समेटने में लग गया।


लीची का पहला स्वाद — एक कटोरी में गर्मी की मिठास

    अरे हाँ, आज कई सालो बाद एक फ्रूट टेस्ट किया। लीची। बहादुर कटोरा भर दे गया। पहले लगा स्ट्रॉबेरी है। ध्यान से देखने पर पता चला यह कुछ और है। तो मैंने बहादुर से पूछा, 'यह क्या है?' उसने बताया, 'लीची है, और छिलका उतारकर खाना।' अब यह मगरमच्छ सी खुरदुरी खाल वाली लीची का जब आवरण-हरण किया मैंने तो भीतर से यह जेल्ली जैसी मालूम हुई। कुछ खटमीठा स्वाद लगा। गजे को बुलाया, वो तुरंत पहचान गया इस फल को। एक और व्यक्ति से जानने को मिला, बिहार का फल है, और वहां खूब खाया जाता है। खेर, जो भी हो, उसके इतिहास-भूगोल में उतरे बिना, उसका पूर्ण रसास्वाद अवश्य ही लिया गया। दोपहर को एक मित्र का भी फोन आया, बोले आपकी ईदी ऑफिस पर रखी है। और मुझे याद आया, आज तो बकरा ईद है।


बकरा ईद और बलि प्रथा पर निष्पक्ष मनन

     आज तो रक्तधाराएं बहेंगी। मुझे दोनों मत से कोई टकराव नहीं चाहिए। क्योंकि यहाँ मैं निष्पक्ष नहीं रह पाउँगा। बलि प्रथा हमने भी बड़ी बाद में छोड़ी है। धार्मिक अनुष्ठानो में दी ही जाती थी। अब वो बात अलग है कि जरुरी थी, या नहीं थी, देव ने बलि मांगी थी या नहीं। लेकिन मनुष्यों ने समय समय पर बलि चढ़ाई है। युद्ध प्रसंगो से पूर्व भी दी जाती थी। बहता लहू दो चीज कर सकता है। या तो करुणा या तो आवेग। आवेग आवश्यक है, करुणा भी। लेकिन दोनों का उपयुक्त समय होता है। मैं दोनों से सहमत हूँ, जो कहते है कि बकरों को काटना चाहिए, और उनसे भी जो करुणामय होकर मना करते है। मुझे दोनों ही सही लगते है।


एक अनदेखा चेहरा — जिसे लिखा जाना था

    ठीक है, अब समय हो चूका ढाई। दोपहर के। मैंने और गजे ने दो-दो केले ठूंसे है। और चर्चा कर रहे थे उप्र-देवघर की ट्रिप की। क्योंकि मुझे जाना ही जाना है इसबार। दो साल से टाल रहा था मैं। जो भी हो, देखि जाएगी। फिलहाल तो अब घर जाऊंगा। पिछले बिस दिन में कार अपनी जगह से हिली नहीं है। तो उसे थोड़ा नहलाना पड़ेगा। टायर प्रेशर चेक करवाकर, और ईंधन भरवाकर। रात को लेट, या सुबह जल्दी निकलना पड़ेगा। सारे काम समेट कर गजे को सम्भलवा दिए। आज की दिलायरी भी इसी कारण से दोपहर में ही लिख दी। क्योंकि आज कोई ख़ास बात नहीं है, बस दिनचर्या, और कुछ मन की बाते।


    वैसे लिखना तो उस चेहरे पर था, जो कल अचानक आँखो के आगे प्रकट हुआ था। वो फिर किसी और दिन लिख लेंगे।


शुभरात्रि।

(०७/०६/२०२५)


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