एक मनमौजी की दुनिया में ३६० डिग्री का मोड़
कभी कभी आदमी ३६० डिग्री घूम जाता है, लेकिन उसे पता नहीं चलता। जब कोई टपली मारकर जगाए तब पता चलता है। लेकिन फिर वो बिफोर एंड आफ्टर देखकर खुद से क्या ही बदल पाएगा? ऐसा ही हुआ मेरे साथ। मैं मस्त अपना वो गाना है न, गोविंदा का, "मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेल-पूरी खा रहा था, सिटी बजा रहा था..." उसी तरह बढ़िया हस्ते खेलते गुजर बसर चल रहा था। बड़ी दूर तक चलते चलते चला गया.. पीछे देखना ही भूल गया। जा तो अब भी रहा हूँ, लेकिन आज पीछे मुड़कर देख लिया मैंने।
तो एक दिन ऐसे ही मस्त अपने मनमौजीपने के साथ कल्पना के कंधे पर सवार हुआ जा रहा था। एक सुंदर बगीचा दिखा। रंगबिरंगी फूल थे वहां, मौसम भी नया नया सा था। वहां बहुत सारे लोग अपनी मस्ती में इधर उधर टहल रहे थे। किसी को किसी की पड़ी नहीं थी, सब अपनी हांकने पर उतारू थे। कोई गाना गाता, कोई नाचता, कोई कविता सुनाता, कोई वक्तव्य करता...! एक दूसरे के नकलची बन्दर भी खूब थे। मैं वैसे तो इस बगीचे से अक्सर गुजरता था, लेकिन कभी ध्यान नहीं दिया था।
प्रियंवदा का प्रथम दर्शन: चंपा तले क्रांति
एक दिन एक सुगन्धित चंपा के वृक्ष तले एक नवयौवना बैठी दिखी। वह भी अपनी ही मस्ती में मस्त। किसी की कोई फ़िक्र नहीं। बस उसकी नजरें अपनी चमड़े पर रत्नजड़ित आवरण वाली डायरी में ही गड़ी हुई थी। कुछ पढ़ रही थी, और कुछ बोल रही थी। मैं दूर से देख रहा था, मुझे समझ नहीं आया। थोड़ा नजदीक गया, और पहचान हुई। वही है, प्रियंवदा। निराशा में आशावाद की उद्धारक। और धीरगंभीरता की मूरत। धीरे धीरे मैं उसके पीछे ही पड़ गया। जैसे आवारा सांढ़ पीछे पड़ता है। लेकिन उसने भी कोई आशा खोजी मुझ में।
कोड़े, कविता और कमाल की कायापलट
मैं तो सींग मार देता, लेकिन उसे नथेल कसनी आती थी शायद। उन दिनों मैंने ताज़ी ताज़ी अपनी जुबान गिरवी रखी थी। और नई जबान की खोज में था। प्रियंवदा की मीठी बोली मुझे ठीक लगी। एक लय और लहजा मुझे चाहिए था। गरज में आदमी ग़ुलामी तक कर लेता है। मैं चल पड़ा, प्रियंवदा के पथ पर। उसे भी एक मुफ्त में गुलाम मिल गया। फिर क्या, उसने कौनसे कोड़े नहीं बरसाए मुझ पर। मैंने भी हस्ते चेहरे खाए है। खूब खाए। हाँ ! उस कोड़े में पीड़ा नहीं थी। शब्दों को नए चमड़े में ढालकर वह मुझे कूट दिया करती।
अरे नहीं, पौरुषत्व पर प्रहार मत समझना। अक्सर एक पुरुष, किसी स्त्री के सामने बढ़ा ढीला-ढफ ही मालुम होता है। मैं भी हो चूका था। फिर तो प्रियंवदा मेरे दिमाग में सवार हो गयी। उसने कहा दिन, तो मैंने लिखा आग उगलता सूर्य। उसने कहा रात तो मैंने लिखा अमावस्या। उसने और कोड़े बरसाए। मेरी छोटी छोटी जुबानी भूलो पर। उसके नाजुक हाथ मेरी मोटी चमड़ी पर अपनी कड़ी निंदा द्वारा और नमक रगड़ते। मैं तो उसकी मार को मुहब्बत समझ रहा था। अपनी एकतरफा आशिकी की जाल का नाम भी मैंने उसी के नाम पर प्रियंवदा रख लिया।
गहरी नींद में सोया था मैं। एक दिन एक कसकर लात मारी उसने। कारण पूछा तो पता चला, मेरे सींग गायब थे। मैंने कहा था न, आवारा सांढ़ की तरह प्रियंवदा के पीछे पड़ा था मैं। उसने धीरे धीरे मेरे सींग ही काट लिए। अब बगैर सींग का सांढ़ कहकर वो मुझ पर खूब ठहाके लेने लगी। मैं भी उसके धीरगंभीर अट्टहास्य को देखते हुए मुस्कुरा लेता। धीरे धीरे मैं प्रियंवदा को अपना सर्वस्व मानने लगा था। उसको केंद्र में रखकर, मैं अपनी कलम चलाने लगा। वो मुझे हररोज एक शब्द को खींचकर चिंथङा करने को कहती, और मैं फटेहाल उस शब्द को भी बुरे-हाल कर देता।
मझधार में प्रेम और आत्मा की चीत्कार
प्रियंवदा से एक तरफा प्रेम का आवरण मैंने अपनी आँखों में बसा लिया। और एक दिन मुझे उसने अपनी नाव में ले जाकर मझधार उतार दिया। मैं हँसी-ख़ुशी तो भूल चूका था, अब तो आँखे भी मूँद ली। प्रियंवदा पर विश्वास था, लेकिन उसने तो मझधार बन्दुक तान दी। गुलामी तो लिखवा चूका था, अब हँसी भी उसने गिरवी ले ली। उसने अपने आँचल में मुझे जगह दी, लेकिन मैं ठहाका लगाने वाला स्मित करता हो गया। उसने मारमार कर बहुत कुछ बदल दिया। मैं उसके जैसा सभ्य बन गया। गंभीर सभ्य। आज दिन उसीने कहा, जरा हँसकर दिखाओ।
प्रियंवदा को पुकार — "तुम ही मारी, तुम ही उबारो !"
अब मैं सदमे में हूँ, उसके प्रेम में मैं इतना रो चूका हूँ कि हँसी ही गिरवी रख आया था। प्रियंवदा ! हास्य लिखने बैठा था, इसमें तो कतरा भर नहीं है। जैसे आज का दिन गुजरा है, गंभीरता पूर्ण। सुबह से मैंने अपनी पुरानी पोस्ट्स अपडेट करते हुए, पुरानी हँसी से रूबरू होने की चेष्टा की। लेकिन वो गिरवी रखी हुई वापिस आने में समय लेगी। दोपहर को मार्किट से आते हुए सोचा आज वो अपनी पुरानी वाली हँसी वापिस लाकर रहूँगा। लेकिन नहीं.. फिर से एकबार असफल प्रयास किया है आज।
प्रियंवदा ! यह तो आततायिता है। तुमहीने मारा है, तुम ही बचाओ..!
शुभरात्रि।
(१९/०६/२०२५)
|| अस्तु ||
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"आज आप भी अपने भीतर झाँकिए...
कहीं कोई प्रियंवदा आपकी कल्पना में तो नहीं बैठी?
अगर हाँ, तो उसे एक शब्द दीजिए —
कमेंट में, डायरी में, या दिल में।"
"...कभी-कभी प्रियंवदा की धीरता के बीच भी मन का कोई कोना भीग जाता है।
ऐसा ही एक दिन था जब बारिश, ऑफिस और सपनों के बीच एक सर्फ़िरा खुद से भी सवाल पूछ बैठा था।
उसकी कहानी यहाँ पढ़िए।"