प्रकृति, पक्षी और पुण्य: एक अकेलेपन की डायरिस्टिक कथा || दिलायरी : २५/०६/२०२५

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देर रात की गलतफहमी और सुबह की बेचैनी


पाप या पुण्य?

    कल रात ऑफिस पर ही साढ़े दस बज गए थे। गलती से ही बजा दिए थे, गलतफहमी में। होता है, कभी कभी ऐसा भी होता है, कि आप अपने मन में कुछ और सोचकर उस हिसाब से प्लांनिंग्स कर लेते हो, लेकिन अगले की प्लांनिंग्स कुछ और ही होती है। घर पहुंचा तब लगभग ग्यारह बज गए। कल भी तबियत थोड़ी ऊँची-नीची हो गयी थी, लेकिन बारह बजे तक ठीक हो गया, और अच्छी नींद आ गयी। सुबह वही छह बजे जगा दिया गया। वही ग्राउंड, वही बादलो से घिरा आसमान, और वही थोड़ी वॉकिंग, और फिर सूर्यनमस्कार।

लस्सी और एक छह बाय छह की घुटन

    दोपहर तक मन बेचेन रहा। लंच टाइम में मार्किट चला गया। मन बहलाने और थोड़ी पेट पूजा करने। बढ़िया लस्सी का रसास्वाद लिया, और वापिस इस छह बाय छह कमरे में घुटन भरने आ गया। आजकल खिड़कियां खुली रखता हूँ अपनी केबिन की। पीछे नीम पर अक्सर कुछ न कुछ जिव-जंतु देखने मिल जाता है। अकेलापन भारी कुरेद रहा है। पता नहीं क्यों? आज कुछ अलग ही अनुभव हो रहा है। मन पर जैसे विषाद छाया है। स्नेही भी गायब है, कल की पोस्ट पर कुछ भी प्रतिभाव नहीं मिला। 

    आसमान में वर्षा के बादल घिरे है, और मन में निराशा के। कारण नहीं जानता। दोपहर को ऑफिस पर लौटते हुए, बाइक पर बैठे बैठे जैसे विषाद का आक्रमण हुआ, और मैंने शरणागति स्वीकार ली। प्रकृति भी बड़ी नीरस सी मालुम होती है। अक्सर मुझे यह ग्रे मौसम बहुत पसंद होता है। लेकिन आज नहीं आ रहा है। जिसे जानता नहीं, जिससे शायद मेरा वास्ता भी न हो, ऐसी कोई निराशा मन में आन पड़ी है। काफी देर सोसियल मिडिया चलाया, लेकिन बेमन ही। काफी देर किसी से बातचीत होती रही, कॉलेज के दिन याद किये, और निराशा ने और घेर लिया।

चींटियों के दर पर पुण्य की चुटकी

    सुबह जब ग्राउंड में चक्कर लगाता हूँ, तो कुछ लोग कटोरी में आटा लेकर ग्राउंड में यहाँ वहां चुटकी भर-भर डालते देखता हूँ। आदमी तो आलसी है, लेकिन आदमी आसपास के जीवो को भी आलसी करने में लगा है। पुण्य कमाने की लालसा में ही तो। पहले तो सिर्फ औरते यह सेवा करती पायी जाती थी, अब तो आदमी भी.. हाथ में कटोरी लेकर यहाँ वहाँ घूमता देख, बड़ा अजीब लगता है। यह लोग चींटियों के दर पर आटा डालते है। ग्राउंड में कईं जगह चीटियों के दर है। फिर एक आदमी तो ढाई-तीन किलो ज्वार ले कर कबूतरों को डालता है। 

मछलियों का भोजन और तालाब की सड़न

    गाँव में तालाब पर अक्सर कोई न कोई मछलियों की आटा खिलाते दिख जाते है। मछलियों का प्राकृतिक आहार गेंहू नहीं है, लेकिन तब भी लोग आटे की गोलियां बना बना कर पुण्य कमाने के चक्कर में खिलाते है। तालाब में डाली गयी वे आटे की गोलियां जिन्हे मछलियों ने नहीं खायी, वे बाद में वहीँ सड़ती है। तालाब की मछलियां हरे शैवाल, सूक्ष्म पौधे, या किनारो पर लगी काई खाती है। लोग उनका आहार नहीं बदल रहे? चींटियां..! इनको को सब कुछ चलता है। जहाँ कुछ भी गिरे वहां पहली गवाह चींटियां होती है। उनके दर के ठीक बहार यह आटा डाला जाता है, उनको मेहनत ही न करनी पड़े, कुछ भोजन ढूंढने की। क्यों? क्योंकि हमे पुण्य चाहिए। 

    एक तरफ कुछ लोग कबूतरों को दाना डालते है, दूसरी तरफ शहर के बड़े बिलबोर्ड्स पर एड पढ़ने को मिलती है, "कबूतरों के मल से बचने के लिए जाली लगवाएं।" कबूतरों की तादात भी तो खूब बढ़ी है। बड़ा इजाफा लगता है मुझे तो। बदले में मैनाएं शहर छोड़ गयी। छोटी चिड़ियाँ कम हो गयी। काली चिड़िया तो देखना दुर्लभ है। प्रत्येक बड़ी बिल्डिंग्स में कबूतरों से बचने के लिए जालियां दिखती है। अंग्रेजी में जिन्हे DOVE कहते है, वे भी कम हो गए है। जहाँ देखो वहां बस कबूतर.. दाने खाखा कर दादा बन बैठे हो शायद?

पेड़, घास और हमारी स्मृतिहीन पहचान

    तोते तो बिलकुल ही नहीं दीखते.. वैसे भी सोसायटी में पेड़ कितने है..! उनका आश्रय हमने नहीं रखा, क्यों? क्योंकि सूखे पत्ते समेटने नहीं थे। इंसानो ने आसपास के जीवो को हटाकर अपनी स्वार्थी सोसायटी बनायीं है। फिर इच्छा होती है, तो प्राणी संग्रहालय चले जाते है। वृक्षों की भी पहचान कहाँ है हमे..? मैं अपनी ही बात करू तो गिनती के पचास वृक्षों के नाम मुझे नहीं पता होंगे। क्यों? क्योंकि आसपास वृक्षों को रहने कहाँ दिया है? वृक्षों की उपयोगिता हमारे लिए केवल छांया तक सिमित है शायद। वृक्ष तो फिर भी कुछ गिने चुने पहचान में तो है, घास तो सारी ही एक है हमारे लिए..! दर्भ - जिसे स्थानिक भाषा में दाभडो कहते है, वे भी नहीं पहचानी जाती।

ट्रेकिंग: प्रकृति से मेल या बस मन बहलाव?

    शायद उपयोगिता ही सबकुछ होता है, हमारे लिए। जिनका कोई उपयोग नहीं, उन्हें हम स्टोर रूम में सड़ने के लिए फेंक देते है। तभी तो वनस्पति जन्य प्रकृति हमारे बहुत दूर के स्टोर रूम में हमने फेंक दी है। आजकल ट्रेकिंग का खूब चलन है। लोग पहाड़ ट्रेक करते है, जंगलों में घूमते है। लेकिन यदि उनसे पूछ लिया जाए, कि यह पौधा, या पेड़ कौनसा है, क्या नाम है इसका, या क्या लाक्षणिकता है उसकी तो नहीं बता पाएंगे। दरअसल वे लोग अपना मन बहलाने जाते है ट्रेकिंग पर। वास्तव में प्रकृति से मिलने नहीं। तभी फ़ूड पैकेट्स साथ लेकर चलते है।

    खेर, अभी आठ बज गए है। आज भी ऑफिस पर देर होगी। कम से कम आज जानता हूँ, कोई गलतफहमी नहीं है।

    शुभरात्रि।
    (२५/०६/२०२५)

|| अस्तु ||


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प्रिय पाठक!
कभी चींटियों को आटा डाला है?
कबूतरों को दाना?
मछलियों को आटे की गोली?

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