"पुराने वक़्त की 'सफारी' और आज की शिक्षा: एक आत्ममंथन डायरी" || दिलायरी : ०४/०६/२०२५

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प्रियंवदा! यह सुबह और सफारी दोनों अधूरी रह गईं...


पुराने दिनों की बात अलग थी..

सुबह के संकल्प और हार की स्वीकारोक्ति

    प्रियंवदा ! मैं शायद कभी नहीं सुधर सकता..! अभी अभी कोई प्रण लिया था, एक मनोसंकल्प, लेकिन टिका नहीं। तुरंत ही बिखरे कांच सा टूट गया। संकल्प लिए ही जाते है तोड़ने के लिए.. है न? अरे कोई ख़ास बात न थी, वो तो क्या है कि, स्वास्थ्य सुधारने के लिए सोच रखा था, कि प्रतिदिन सुबह मैदान में जॉगिंग के लिए जाऊंगा.. कल गया भी था.. लेकिन आज.. आज फिर से साढ़े सात को आँखे खुली..! वही अपनी पुरानी आदतों को जाने में समय लगता है न, वही हुआ। वैसे तो सुबह साढ़े पांच को जाग गया था एक बार, लेकिन फिर से सो गया।


गांव का ग्राउंड, बच्चों की जीत और नाईट टूर्नामेंट

    ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि कल रात मैं खूब चला हूँ। कल ग्राऊंड में नाईट टूर्नामेंट का फाइनल मैच था, उधर आईपीएल का भी फाइनल था। मैं तो लगभग दस बजे तक अपने १०००० स्टेप्स का टारगेट पूरा करके वापिस लौट आया। और सो भी गया था। पता नहीं क्या टाइम हुआ था, अचानक से स्काई-शॉट्स से पूरा आसमान भर गया। शायद ग्राऊंड में कोई टीम फाइनल मैच जित गयी होगी। अच्छा आयोजन था, कम से कम बच्चो में खेलभावना तो जागृत होंगी। वैसे ही आजकल बच्चे मैदानी रमतो से ज्यादा मोबाइल या कंप्यूटर पर डिजिटल गेम्स ही खेलते है। 


जगन्नाथ यात्रा और स्कूल की यादें

    घर से निकलकर पहले गया जगन्नाथ। कुछ ही दिनों में आषाढ़ आने वाला है। जगन्नाथ की रथयात्रा तथा उससे पहले होने वाले धार्मिक अनुष्ठानो की तैयारियां चल रही होती है। दर्शन करके पहला स्टॉप दुकान। सिगरेट और मावा का सेवन करके निकल रहा था तो याद आया, कुँवरुभा की प्लेस्कूल फीस भरनी बाकी है। पास ही है, तो चला गया। फीस भर दी, और कुछ ७-८ किताबो का भार मुझे पकड़ाया गया। जो आने वाले साल में कुँवरुभा को सीखना है। खेर, अभी तो वे ननिहाल के मजे ले रहे है। वहां से बुक्स वगैरह घर छोड़कर चला आया ऑफिस। 


    काम आज दिनभर ही कुछ न था। तो बस दिनभर लगा दिया अपने ब्लॉग पर ही। आजकल लंच में बाहर जाने के बजाए मैं और गजा ऑफिस पर ही सलाद वगैरह का नाश्ता कर लेते है। आज तो गजा स्पेशियल चाट मसाला भी ले आया था। सलाद पर छिड़कने के लिए ही तो। हाँ स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा, और बाहरी नाश्ता से बहुत बेहतर है। खेर, शाम तक तो मैंने बस आज अपनी काफी पुरानी पोस्ट अपडेट ही की है। और एक बिल था, वो भी निपटा दिया। अभी अभी याद आया, मैंने एक बुक ऑर्डर की थी, उसका कोई अभी तक अतापता नहीं है। आर्डर भी मैंने गेस्ट मोड़ में ही की थी। यह तो भला हो की मैंने उसकी इनवॉइस की प्रिंटआउट ले ली। अन्यथा मेरे पास तो कोई प्रूफ ही नहीं था ऑर्डर का। 


‘सफारी’ की वापसी की गुहार

    प्रियंवदा, यह स्वास्थ्य सम्बन्धी भागदौड़ में मैं एक बात बतानी भूल गया। हम जब छोटे थे, स्कूल में थे। तब एक सामयिक खूब पढ़ा करते थे। नाम था 'सफारी'.. मैं जिस शाला में पढ़ा हूँ, वहां बचपन से एक नियम था, जो मुझे बड़ा प्रिय लगता है। वहां अध्यापक को 'गुरूजी' से सम्बोधित करना होता था, और अध्यापिका को 'दीदी'। सर या मेडम का कोई रिवाज न था। अंग्रेजी की अध्यापिका को भी दीदी कहकर ही सम्बोधित करते थे। विज्ञान के गुरूजी ने हमसे एक विषय से अतिरिक्त बात कही थी, जो घर कर गयी थी। बोले थे, सिर्फ शाला से प्राप्त ज्ञान पर ही निर्भर रहोगे क्या? कुछ अन्य ज्ञान भी लो, कार्टून नेटवर्क या पोगो मत देखा करो, यह मैगज़ीन है, 'सफारी' इसे पढ़ा करो..!


    अन्य विद्यार्थीओ का तो पता नहीं, लेकिन मैंने पढ़ी, और मुझे बड़ी ही रुचिकर लगी। ज्ञान-विज्ञान की बाते, वो भी बहुत ही सरल, और सामान्य उदाहरणों से समझ आ जाए इस तरह। अमूल्य ज्ञान बिलकुल ही सरल भाषा, और बच्चे भी समझ सके इस तरह से प्रस्तुत किया जाता था उस सामयिक में। महीने में एक बार प्रकाशित होता वह सामयिक मेरा तो बड़ा ही प्रिय हो चूका था। महीना होते ही, घर आकर सबसे पहले पोस्ट ऑफिस जाता। डाकिया तो आज तक पोस्ट घर पर नहीं पहुंचता है, तब तो कहाँ पहुंचाता? एक-दो दिन के इंतजार में ही मुझे वह पुस्तिका मिल जाती। और फिर तो सिलेबस रहा एक तरफ और एक ही बैठकी में इसे ही पूरी पढ़ ली जाती।


    विश्व की बाते, खगोल की बाते, भूगोल की बाते, हथियारों की बाते, इतिहास के सन्दर्भ, वैश्विक इतिहास की बातें.. यह मात्र एक मैगज़ीन नहीं थी.. एक ज्ञान का सागर हुआ करता था। सागर भी सूखते है, प्रियंवदा। और यह अविरत बहता सागर भी सूखा.. मैंने शाला के बाद भी कई बार पढ़ी है यह मैगज़ीन। इसी लिए मेरी कई यादें जुडी है इससे। लेकिन तीन-चार दिन पूर्व गजे का मेसेज आया, सफारी बंद हो गयी। गजे को भी इसकी लत मैंने ही लगाई थी। गजा माने जहरीला गजा। उसे भी बांचन का शौख है। वो तो अभी तक इसे पढ़ रहा था। जबकि मैं अन्य साहित्यो में प्रवृत्त हुआ और मेरी सफारी छूट गयी थी। बड़ा दुखद समाचार था। और लगभग साहित्य-रसिको ने एक मुहीम चला दी है। फिर से इस मृतप्रायः सफारी को जीवित करने के लिए। 


शिक्षा, अभिभावक और बदलते मूल्य

    तंत्री नगेन्द्र विजय से लोग पूछ रहे है। उनका कहना स्पष्ट है। वे अपना वाचक वर्ग खो चुके है। उनका मत स्पष्ट है, आजके अभिभावक अपने बच्चो को पिज़्ज़ा खिला रहे है, लेकिन एक अमूल्य ज्ञान की पुस्तिका नहीं दे रहे है। मोबाइल दे रहे है, लेकिन ऐसी ज्ञानवर्धक मैगज़ीन्स के प्रति जागरूक नहीं कर रहे है। बड़ी सही बात भी है। मैं खुद ही आजकल स्क्रीन पर ही सब कुछ पढता हूँ। पन्नो की सुगंध लिए एक अरसा बीत गया है। ऐसा नहीं है की ज्ञान सिर्फ पुस्तिका से मिलता है, प्रिंट मिडिया से मिलता है। लेकिन प्रिंट मिडिया से अर्जित ज्ञान एक केन्द्रलक्षी होता है। क्योंकि मैगज़ीन या बुक्स कभी नोटिफिकेशन नहीं देती। सोसियल मिडिया के माध्यम से शोऑफ को बढ़ावा मिल गया है, और ज्ञान? उसे कौन बढ़ावा देगा? 


एकांत, आत्ममंथन और निष्कर्ष

    आज की स्कूलिंग सिस्टम भी एक्स्ट्रा-कोचिंग क्लासेज पर निर्भर नहीं हो गयी है? वो शिक्षक या शिक्षिका का आभाव नहीं हो चूका है, जो मात्र पगार के आकांक्षी नहीं थे? यह कैसी शिक्षण पद्धति हो गयी है जो साल भर एक ही पाठ्यपुस्तक को बार बार दोहराती है? क्या शालाएं अब भी सिलेबस के अलावा कुछ और पढ़ने को प्रोत्साहित करती है? क्या इस डिजिटल युग में भी सफारी जैसा ज्ञान सागर अपने हिचकौले यथावत रख सकता है? मुझे याद है, हमारी शाला में लड़के यदि फैशनेबल हेअरकट करवाते तो भी पेरेंट्स को चिट्ठी लिख दी जाती थी। लम्बे नाख़ून से लेकर बगैर मौजे के स्कुल शूज पर भी डांट-फटकार सुननी पड़ जाती। 


    शायद अब दौर अलग है। आजकल के बच्चे भी तो अलग है। पहले अभिभावक स्वयं से शिक्षकों को बच्चे की गलती पर शिक्षा करने की कहते थे। आज अगर बच्चे को डांट भी दिया जाए तो अभिभावक शिक्षकों को ही डांट लगा देते है। उलटी धारा बहने लगी है प्रियंवदा। बहुत कुछ बदल गया है। मैं भी। मैंने भी अपना ह्रदय खाली कर दिया है। पत्थर दिल बन जाना बेहतर है। विमुख होकर चल कर देखना है। प्रवाह से विपरीत तैरकर ही तो पता चलता है सामर्थ्य का।


शुभरात्रि।

(०४/०६/२०२५, १९:५८)


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