दिन की शुरुआत – छाले और चाल
सुबह की सैर और पैरों की पुकार
प्रियंवदा ! समय हो चूका शाम के सात। वैसे तो दिनभर हमेशा की तरह कुछ ख़ास किया नहीं है, जिस पर मैं कुछ ताना-बाना बुन सकूँ। लेकिन हाँ ! आज तो सुबह जल्दी जाग गया था। लगभग छह बजे। रात को ग्यारह बजे तक तो सो ही जाता हूँ। प्रियंवदा ! मेरे पैर पुरुष होने के बावजूद बड़े कोमल है, कठोरता नहीं पनपते दी बूट्स ने कभी भी। हुआ ऐसा कि दो दिन से यह जो ग्राउंड में सुबह-शाम वाकिंग पर निकलता हूँ, तो चप्पल पहनकर ही जाता हूँ। चलने की आदत थी नहीं पैरो को, तो छाले पड़ गए। बताओ, धरम करते धाड़ पड गयी। ठीक है, कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है।
सुबह सुबह ग्राउंड में कुछ बुजुर्ग टहलते है, और २-३ नौजवान दौड़ लगाते है। सूर्य इतना प्रखर होता है कि व्यक्ति उससे नजरें न मिला पाए। मैंने कुछ ५-६ चक्कर लगाए, हाँ चलकर ही, दौड़ने का अभी से जिगरा कहाँ? बड़ी शर्म भी अनुभव होती है, कि मैं भी बुड्ढों की तरह टहलता ही हूँ। लगभग लगभग पांचसौ मीटर का परिघ बन जाता होगा उस ग्राउंड का। मतलब सुबह सुबह चार चक्कर लगाए मतलब दो किलोमीटर से थोड़ा कम.. ठीक है। शुरुआत तो सही है। बस आज के छाले दिनभर चिढ़ाते रहे मेरी आलस को। जैसे कोई तमगे हो, सालो बाद की हुई मेहनत के परिणाम के।
बूट नहीं, अब चलेंगे रनिंग शूज़
सुबह वही, नित्य समय पर ही ऑफिस पहुँच चूका था। लेकिन दिमाग में बात घूम रही थी, एक रनिंग शूज लेने की। तो सवेरे पोस्ट शेयर करनी भूल गया, और लगा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर अच्छे शूज ढूंढने में। दसेक बजे याद आया कि कल की दिलायरी शेयर करनी बाकी पड़ी है। अगर मैं भूल भी जाऊं तो स्नेही बड़ा कमाल का रसिया है। एक दिन तो दिनभर कोई प्रतिभाव नहीं आया, रात के दस ग्यारह पर प्रतिभाव मिला। स्नेही का मैं ऋणी हो चूका हूँ।
लस्सी और लाल रंग की लपटें
दोपहर तक तो मैं और गजा इसी असमंजस में रहे, कि मार्किट जाकर शूज ले आएं, या ऑनलाइन ही खरीद ले? क्योंकि मार्किट जाना होता तो दोपहर के १ से ३ के मध्य। और मैं फिर से बीमार होना नहीं चाहता था, भरी दोपहर में मार्किट घूमकर। गजा इस मामले में हिम्मती है या बेफिकरा मैं तय नहीं कर पाता हूँ। उसी के आग्रह पर हम दोनों मार्किट के लिए निकल गए ठीक १ बजे। सोचा भाव-ताल कराने की झंझट में पड़े बिना सीधे मॉल चले जाते है। वहां कुछ न कुछ मिल जाएगा। और मिल गया। दोनों ने एक ही ब्रांड के एक से मॉडल, बस रंगभेद देखकर खरीद लिए। वापिस आते हुए एक एक ग्लास लस्सी पेट में उड़ेली।
दोपहर बाद मैं तो लग गया था मेरी वही पुरानी पोस्ट्स को ठीक करने के कार्यक्रम में। आज पता चला मुझे, कुछ पोस्ट्स तो इतनी लम्बी है कि मुझे ही समस्या हो गयी, उसका मैन पॉइंट निकालने में। मुख्य मुद्दे को ही तो पोस्ट के टाइटल के रूप में स्थापित करना होता है। वैसे तो मेरे लेखन में कोई मुख्य मुद्दा होता ही नहीं है। क्योंकि मैं लिखता हूँ, मेरे लिए, जो मेरा मन करे। जैसे अभी यह अनुच्छेद बेमतलब का लिखा है। और आगे भी बेमतलब का लिखने वाला हूँ।
जब बाइक पर पीछे बैठा कोई पसीने से बातें करता है
अभी जब यह लिखने बैठा हूँ, तो इसे थोड़ा और बेमतलबी बना दिया जाए है न? चलो फिर.. दोपहर को जब मैं सर पर कफ़न का छोटा भाई रुमाल बांधकर मार्किट से वापिस लौट रहा था, गजा बाइक दौड़ा रहा था, और मैं पीछे बैठा गर्मी से बातें कर रहा था, और उन्हें अपनी ऑफिस तक बातो बातो में ले आया।
एक लाल - रक्त टपकती जिह्वा सी लाल - चुन्नी ओढ़े, हाथ में अग्निदण्ड को धारण की हुई, और तेज नजरो वाली गर्मी देवी को अपनी ऑफिस में मेज की उस और चेयर पर सविनय बिराजने की अरज की, और मैं अपनी सीट पर आरूढ़ हुआ।
"मेरे मन में कई प्रश्न थे, जो मुझे पूछने थे, मैंने रुमाल से अपना कपाल पोंछते हुए पूछा, "गर्मी जी, आप प्रतिवर्ष और ज्यादा क्रूर होती जा रही है? क्या बात है, कोई शिकायत की जा सकती है आपसे?"
सूरज की बेटी के तीखे उत्तर
"गर्मी जी : मैं कोई रेलवे की शिकायत पेटी हूँ जो तुम जैसे तुच्छ की अर्जियां सुनती बैठूंगी? मैं तो मौसम हूँ जंतु, जब आउंगी, होश उडाऊंगी।"
"मैं : मैंने सुना है, आप ग्लोबल वार्मिंग से मिली हुई है। क्या कहना चाहेंगी आप?"
"गर्मी जी : ग्लोबल वार्मिंग तो मेरी मौसी है, हम साथ मिलकर ही काम करते है। मैं रिजाइन कर दूँ अगर इंसानी-जंतु सुधर जाए।"
"मैं : A.C., कूलर, डिओड्रेंट.. सबने हथियार डाल दिए है। आपको शर्म नहीं आती कुछ?"
"गर्मी जी : शर्म ? वो ठंडियों की फितरत में होती है, मैं तो सूरज की बेटी हूँ। जलाना मेरा संस्कार है।"
जब गर्मी बनी सामाजिक उपदेशक
"मैं : आपके कारण लोग आपके पिता से द्वेषी हो चले है.. हरेक प्रेमी रात्रि को छत पर आता है। दिन में नहीं, क्या आपकी महोब्बत से शत्रुता है?"
"गर्मी जी : इश्क की आंच पर पकने दो उन प्रेमियों को। मैं तो तापमान बढ़ाउंगी, मोहब्बत की हदें नहीं।"
"मैं : आपका आगे का प्लान क्या है?"
"गर्मी जी : अब तो लू भेजने वाली हूँ। थोड़े चक्कर, थोड़ी उल्टियां, थोड़ी घुटन.. जून तो मेरा प्रिय महीना है। जलवा जारी रहेगा।"
"मैं : आइसक्रीम और कोल्ड्रिंग्स आपके कारण बड़े पसरने लगे है.. आप क्या कहेंगी?"
"गर्मी जी : अरे वो तो मेरे ही बच्चे है, बिना मेरे तानों के बिकेंगे कैसे?"
"मैं : क्या आपको किसीने जलते तवे की सौगंध दी है?"
"गर्मी जी : हाँ ! एलपीजी की भावनाएं भी मैं ही सम्हाल रही हूँ। गैस भी जल रही है, रोटियां भी, और तुम भी।"
"मैं : छुट्टियों का सीज़न है, लोग पहाड़ों की ओर भाग रहे है। जवाब दीजिये।"
"गर्मी जी : भागने दो, लौटकर यही आएँगे, मुझसे जलने। ठंडी वादे कर सकती है, मैं तो न्याय करती हूँ।"
"मैं : आपने जून का जिक्र किया था, कोई स्पेशियल टॉर्चर प्लान है?"
"गर्मी जी : पंखे बेअसर होंगे, हर दिल में उबाल आएगा, इमोशन से लेकर एनवायरमेंट का।"
छाँव का सपना और हमारी जिम्मेदारियाँ
"मैं : तो गर्मी जी, जाते जाते कुछ कहना चाहेंगी, इस जलती इंसानियत के नाम..!"
"गर्मी जी : हाँ ! सुनो इंसानो, तुमने पेड़ काटे, हवाओं को दूषित किया, धरती जलाई। और अब मेरी तपिश से परेशां हो? मैं तो एक मौसम मात्र हूँ। तुम्हारे ही कर्मो की गर्म हवा। तुम्हे ठंडक चाहिए तो ac मत बढ़ाओ, संवेदना बढ़ाओ, वृक्षों के प्रति। छाँव चाहिए, ठंडी रातें चाहिए, पेड़ लगाओ। प्रदूषण हो सकें उतना कम करो। आदतें सुधारो। वरना न मैं कम होउंगी, न ही तुम्हारी जलन।"
धीरे धीरे शाम ढल गयी, गर्मी जी किसी परदे के पीछे छिप गयी। शायद कल के लिए अपना नया परिधान बदलने..! मैं भी लिखता हुआ रुक रहा हूँ, मेरे वे तमाम प्रश्न शायद हर कोई जानता है, समझता है, स्वीकारता है। लेकिन उन प्रश्नो के उत्तरों से हर कोई कतराएगा। आठ बजने को आए है। लेकिन गर्मी जी का प्रभाव अभी तक कमरा पूर्णतः छोड़ नहीं पाया है।
शुभरात्रि।
(०५/०६/२०२५, १९:५७)
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