बारिश, शाखा और सर्विस सेंटर की कहानी || दिलायरी : 19/07/2025

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बारिश की बूंदें और टपक सिंचाई पद्धति



    प्रियंवदा ! तुम्हारे वहां भी बारिश हुई है? मेरे यहाँ तो आज जैसे 'टपक सिंचाई पद्धति' (DRIP IRRIGATION) खोल दी थी प्रभु ने। जब स्कूल में पढाई करता था, तब से यह याद रह गया है, कि खेती में अध्यतन टेक्नोलॉजी में 'टपक सिंचाई पद्धति' लागू हुई है..! खेती तो मैंने की नहीं है, लेकिन बड़ी रसप्रद लगी थी यह बात.. कि कैसे एक वाल्व खोलते ही, पुरे दिन बून्द बून्द करके उग आए पौधों में पानी पहुंचा करता होगा..! लेकिन जब वास्तव में यह पद्धति देखि थी, तब समझ आया, कि कैसे एक किसान पहले पुरे खेत में टपक वाली लाइन्स बिछाता है, फिर जब कटाई करनी होती है तब सारी नलियां समेट लेनी पड़ती है। मतलब मगझमारी ज्यादा है, साथ ही पानी की बचत भी। तो आज लगभग सवेरे सात बजे से लेकर एक बजे तक प्रकृति टपक सिंचाई होती रही।


    इस टपक में न पुरे भीगते है, न पुरे सूखे रह पाते है। सोचा था, दोपहर तक सर्विस में दी हुई कार रेडी हो जाएगी, तो उसे घर छोड़कर बाइक लेकर ऑफिस आ जाऊंगा। लेकिन शायद इस टपक के कारण सर्विस स्टेशन वाले का फोन आया कि, कार शाम को ले जाना। जैसी ईश्वरीय इच्छा..! गजे के साथ ऑफिस आ गया। आज तो वैसे ही शनिवार था, काम की भरमार। दिनभर कभी यह कभी वो.. कभी इसको फोन करो, कभी उसको। ऊपर से यह घिरा-घिरा मौसम। फोन-कॉल भी ट्यूबलाइट से हो गए है। फ़ोन रिसीव करने के ६-७ सेकंड के बाद सामने वाले के पास आवाज पहुँचती है। 


शाखा की रात और पुराने मित्रों की बातें

    कल रात को शाखा में काफी देर हो गयी थी। एक काफी पुराने मित्र आ धमके थे। ऊपर से सारा संघ यहाँ पास ही एक जंगल के बिच रमणीय स्थान पर शिबिर करके आए थे। तो वे लोग शाखा के बाद अपने अनुभव सुनाने लगे। यूँही हँसी-ठिठौली करते हुए रात के बारह बज गए थे। संघ की शिबिर इसी तरह समय समय पर लगती रहती है। काफी लोग जुड़ते है। शिस्त, अनुशासन और नियमितता का खूब अभ्यास होता है, साथ ही बौद्धिक विकास भी। काफी सारे लड़के गए थे, मतलब बिस-बाइस के। उनके अनुभव सुनने के पश्चात मेरा तारण यही निकल पाया, कि उन लोगो ने मौज और आनंद की ही प्राप्ति की। क्योंकि वहां अलग दिनचर्या होती है। डेली लाइफ से कुछ अलग करो तो मजा तो आता ही है। लेकिन उन नियम और शिस्त पर किसी ने बात नहीं की।


    आज दिनभर इतनी व्यस्तता थी, कि कब समय निकला है, कुछ पता ही न चला। ३-४ दिनों से अँधेरा भी आठ बजे करीब होता था, जबकि आज बादलों के कारण साढ़े सात को ही छा गया है। फ़िलहाल कार लेने सर्विस स्टेशन जाना है, इस कारन से सोच रहा हूँ, इस दिलायरी को यहीं समाप्त कर दूँ.. या फिर घर जाने के बाद कुछ याद आया, तो इसका विस्तारण कर दूंगा।


कार सर्विस स्टेशन पर हुई मन की खींचतान

    फिलहाल साढ़े दस बज रहे है। आधे घण्टे पूर्व ही कार से घर लौटा हूँ। प्रियंवदा ! अक्सर हमारा ध्यान तब चौगुना हो जाता है, जब हम कोई पेड सर्विस लेते है। सर्विस स्टेशन पर तो नौ बजे पहुंच गया था, लेकिन आधा घंटा वहां और खर्च हो गया जब सहसा मेरी नजर एक डेंट पर पड़ी। एक दो बार रोड पर ट्रैफिक के कारण बाइक वालों ने टक्कर दी है, लेकिन मुझे याद था तब तक किसी ने डेंट तो नही ही लगाया था। ड्राइवर साइड के पिछले दरवाजे के बाद जो कॉलम और  बम्पर के बीच का हिस्सा होता है, वहां एक मामूली डेंट दिखा। ऐसे तो वह पता भी नही चलता है कि डेंट है या डिज़ाइन। लेकिन मैं अड़ गया कि तुम लोगो ने ध्यान नही रखा है, और डेंट कर दिया। अगले को भी पता नही था, उसने भी स्वीकार लिया, कि हो सकता है। तो मेरे शक को और बल मिल गया। काफी देर उसने इधर उधर बूट खोलकर, सीट डाउन करके डेंट तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा। और उसने कहा, 'सर ! कल ले आओ, वैक्यूम से निकाल दूंगा।'


    वैसे भी काफी लेट हो चुका था, तो मैं भी हामी भरकर घर आ गया। हुकुम से डिसकस करने पर मालूम हुआ कि यह पहले से था। इतना घुला-मिला डेंट है कि पता ही न चले। खाली फोकट कल फिर से दिन बिगाड़ने से अच्छा होगा, नेक्स्ट सर्विस में उसे ठीक करा लिया जाए। वैसे अजीब बात है, कि पहले कभी ध्यान क्यों नही गया होगा? या फिर मन ही ऐसा है कि अपनी चीज वापिस लेते समय हम कुछ ज्यादा गौर से देखते है? क्योंकि हमें डर होता है, कि हमारी गैरहाजरी में उसने हमारी वस्तु का किस तरह उपयोग किया होगा? जैसे कम्पनी की मोटरसायकल को सारा स्टाफ रगड़ता है, लेकिन अपनी खुद की हो तो बड़ी शालीनता अपना लेता है। जैसे मैं खुद, शोरूम वालों से लड़ लेता हूँ, सर्विस चार्ज वसूलने के लिए। हालांकि यह कार सर्विस वाला तो बढ़िया बंदा है, और इससे कभी भावताल भी नही किया है मैने। जो वाहन कम्पनी वाले है, वे जब सर्विस कोस्ट वसूलते है, तब ग्राहक भी अक्सर कईं तरह की बातों में उन्हें फँसाता हैं। यही अकाट्य नियम है, हम लोग अक्सर ओवर-वसूली करना चाहते है। जैसे स्त्रियों द्वारा किया जाता मोलभाव, पुरुषों से नही हो पाता।


भीड़ और व्यक्तिगत सोच – कावड़ियों की बात

    मैंने एक बार मोलभाव करने की कोशिश की थी, एक हजार की वस्तु साढ़े सातसौ में खुशी से ले आया। तब माताजी बोले, इसके तो तीनसौ से ज्यादा देने ही नही चाहिए। सारी खुशी वहीं तत्क्षण चकनाचूर हो गयी। भावताल कराने में अक्सर पुरुष कमजौर रहा है। लेकिन एक जगह बहुत सही ढंग से भावताल कर लेता है, वो है मारपीट.. वहां दस का एक, या एक का दस.. पुरुष खूब अच्छे से कर लेता है। कावड़ियों के वीडिओज़ खूब वायरल हो रहे है। एक पुलिस महाशय स्वयं धक्का-लात का स्वाद चखे है।एक जगह एक आर्मी का जवान भी ऐसे ही एक झुंड का शिकार हो गया। लेकिन हरिद्वार से ही एक बड़ा मस्त वीडियो सामने आया। कावड़िये के झुंड ने एक स्कूटी वाले को घेर कर घूंसे-लात बरसा दिए। स्कूटी वाला जैसे तैसे कर उस घीरावे से निकलकर पास खड़े एक व्यक्ति से लाठी ली, और फिर क्या बजाई है... वो कावड़ियों वाला झुंड पलभर में तीतर-बितर हो गया। ऐसा ही होना चाहिए। भीड़ या झुंड की न शक्ल होती है न ही अक्ल..


    चलो फिर, कल की बातें कल करेंगे। अभी तो विदा दो..

    शुभरात्रि।

    (१९/०७/२०२५)

|| अस्तु ||

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www.dilawarsinh.com | @manmojiiii
– दिलावरसिंह


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