जीवन यात्रा और अनिश्चितता || दिलायरी : 29/09/2025

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जीवन में अनिश्चितता का असर

    अनियमितता हो चली है जीवन में प्रियंवदा। न सोने का तय है, न जागने का, और तो और न ही दिलायरी लिखने का - कोई समय निश्चित नहीं है। अनिश्चितता अच्छी होती है, यह आपको चेतनवंत रखती है। जागरूक रखती है, वर्त्तमान में। लेकिन अनिश्चितता की अति हो जाए तो समस्या है। मेरे साथ फ़िलहाल यह अति चल रही है। सोमवार का दिन था, सोचा था रात को नवरात्री चौक में आराम से बैठकर दिलायरी लिख लूंगा। लेकिन नहीं, बारिश नहीं हुई, गरबा जरूर से हुआ। बारिश भी हुई, लेकिन रात के डेढ़ बजे। 


"जीवन यात्रा और अनिश्चितता पर दिलायरी लेख"

    सवेरे ऑफिस आकर कईं सारे काम थे। लेकिन सुबह का नित्यक्रम तो बरक़रार है। आजकल जगन्नाथ जी के वहां जाने में भी एक अनिश्चितता आ गयी है। क्योंकि सवेरे हवन करते है, वह ज्यादा समय ले जाता है। कुँवरुभा को उनके स्कुल छोड़ने भी हुकुम जाते है। निश्चित है तो वह बस दुकान का स्टॉप है। कईं बार हमें कुछ सुनना भी पड़ता है। क्योंकि अपनी अनिर्णायक शक्तियां हावी हो जाती है। वह किसी एक स्पष्ट चित्र को उभरने नहीं देती। और उस अस्पष्ट अन्धाधुन्धी में कोई न कोई गलत निर्णय ले लिया जाता है। बहुत भारी पड़ता है वह। 


    दोपहर को आजकल ऑफिस में ही पड़े रहते है। लेकिन दोपहर को ढाई बजे फ्री हुए, और तीन बजे ड्यूटी चालु..! ऐसी व्यस्तताएं दीपावली के आसपास आती ही है। कुछ दिन पहले मैं किसी मित्र से उनकी व्यस्तता का राज़ पूछ रहा था, क्योंकि मुझे खालीपन परेशान कर रहा था। और अब यह हालत है, कि मेरे पास दिलायरी लिखने का अनुकूल समय नहीं है। 


व्यस्तता और खालीपन का विरोधाभास

    ऐसा क्यों होता होगा? कभी तो ज़रा भी समय नहीं है, और कभी समय व्यतीत करना भी कठिन हो जाता है। पूरा दिन काफी भागदौड़ के पश्चात फिर भी उत्साह उतना ही था, दिनभर की थकान के बावजूद रात्रि को गरबा में कोई थकान अनुभव नही होती। यह शायद उत्सव के उत्साह के कारण है। प्रियम्वदा, रात्रि को डेढ़ बजे सब कुछ समेटने के बाद मैं, पत्ता और गजा कुछ देर गप्पे लड़ाने की सोचकर बैठे रहे। बस यही भूल हो गयी। कभी कभी समय और स्थिति को समझ लेना चाहिए। पांच मिनिट ही हुई होगी, और थोड़ी तेज बारिश शुरू हो गयी। चौक खुले आसमान के नीचे है। बारिश से बचने के लिए छिपने की कोई जगह ही नही है। ऊपर से रात के पौने दो बज रहे थे। यह तो गनीमत रही, कि कल हवन है, और हवन के लिए मंडप बांध दिया था। लेकिन वह कपड़े का मंडप भी कितनी देर बारिश को रोक पाता। माताजी की गरबी को हमने तिरपाल से ढका था। गजा तो लपक कर उसीमे छिप गया।


    मैं अपनी भारी काया के साथ वहां समाहित न होता। मैंने घर की ओर भीगते हुए ही कदम भर लिए। बारिश भी बड़ी विचित्र है प्रियम्वदा, लेकिन कितना ध्यान रखती है। एक-डेढ़ बजे के बाद ही बरसती है। ताकि खेलने वाले गरबा खेल ले पहले। 


जीवन यात्रा और लकड़ी का दर्शन

    कुछ यूं ही इस जिंदगी के सफर का एक पड़ाव पूरा हुआ। कल सुबह फिर से इसी रास्ते पर और आगे बढ़ना होगा.. यह एक लंबी और थका देने वाला सफर है। बचपन की मासूमियत से यह रास्ता शुरू हो जाता है। इस रास्ते मे मंजिल के कईं सारे पड़ाव है। उनमें से एक पड़ाव है, इन्तेजारी। इन्तेजार किसी भी चीज का, या व्यक्ति का हो सकता है। लोग जीवनभर किसी के इन्तेजार में अपनी उम्र खपा देते है। किसी को प्रेम का इन्तेजार है, किसी को सत्ता का, किसी को संपत्ति का, तो कोई ऐसा भी होगा जो मुक्ति के इन्तेजार में आशावान हो.. यह सफर हर उस मंजिलों के बदले घटता जाता है, जिन्हें हम पाकर कुछ दिनों में नई मंजिल चुन लेते है। वानरों की तरह ही शाखा बदलना हमे भी बड़ा प्रिय है। 


यात्रा का ठहराव और आगे का मार्ग

    इस सफर में ठहराव आता है, लेकिन वह भी बस यूं रातों की नींद सा होता है। थकान उतरते ही सफर में पुनः चलना पड़ जाता है। किसी पेड़ की छाया में बैठना, रुककर पीछे मुड़कर देखना, यह सब कुछ इस यात्रा का ही भाग है। कितने सारे सफर हम एक साथ तय करते है। अनुभवों का सफर, उम्र का सफर, लेखनी का सफर, मनोरंजन के सफर, यह सारे अंत मे तो लकड़ियों के साथ ही समाप्त हो जाते है। कुछ किलों लकड़ियां ही आखिर में काम आती है। लेकिन फिर सोचता हूँ, वह लकड़ियां कितनी कीमती है? उसे पाने के लिए हमने पूरा जीवन खर्च दिया..! 


    रात को जब डांडिया खेल रहे थे, तो एक विचार आया। हमारा जीवन लकड़ी के साथ शुरू होता है, और लकड़ी के साथ ही खत्म.. हमारी संस्कृति में लकड़ी इतनी उपयोगी है, शायद इसी कारण से हमने वृक्षों के प्रति अपना आदर व्यक्त करने के लिए उन्हें पूजना शुरू किया होगा। बालक जन्मता है, तो लकड़ी के पालने में झूलता। बड़ा होते ही क्षुधा जागृत होती है, जो किसी लकड़ी के जलने पर पकते अन्न से मिटती होगी। निवास के लिए लकड़ी के आभारी है हम। वृद्धावस्था में लकड़ी ही हमारे इस देह का आधार बनती है। और अंत मे इन्ही लकड़ियों पर भष्मीभूत हो जाते है। कोई सत्कार्य किया होगा तब भी दुनिया याद करेगी, और बड़े दुष्कृत्य किए हो तब भी..! हम रावण को भी याद किए बैठे है, राम को भी..!


    हाँ, अब कईं जगहों पर लकड़ियां काम की नही रही है, लेकिन तब भी वे निरुपयोगी नही हुई है। फिर यह बात भी तो है, कि हम अपग्रेड होते गए, और फिर इलेक्ट्रिक झूला, इलेक्ट्रिक चूल्हा, और अब इलेक्ट्रिक श्मशान भी अपना लिया। वृक्षों की संख्या कम हुई, तो आविष्कार अपनाए गए। खेर, हमने इस जीवनयात्रा में कितने सारे विराम लिये है। मंजिल तक पहुंचते ही पता चलता है, कि अब वह मंजिल - मंजिल नही रही। यह तो आरंभ बिंदु बन चुका है, अगली मंजिल का। और हम फिर से यात्रा को आरंभ कर देते है। अपने यहां तो पुनर्जन्म की भी फेसेलिटी है। इस जन्म में नही, तो अगले जन्म की आशा में हम कितना कुछ कर जाते है।


    खेर, यह यात्रा गरबा जैसी भी है। घूमती है, वर्तुलाकार..! आरंभ बिंदु और अंतिम बिंदु एक से है। पहले भी कुछ न था, बाद में भी कुछ न होगा। मजा इस बात में है, कि हम इस सफर का आनंद कितना ले सकते है। कितनी नीतियों का अनुसरण कर सकते है, और कितने ठहराव लेते है। 


    जैसे मैं अब इस दिलायरी मे ठहराव ले रहा हूँ।

    आगे कुछ भी लिखने की इच्छा नही है।


    शुभरात्रि,

    २९/०९/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

“आपकी जीवन यात्रा में कौन-सा ठहराव सबसे गहरा रहा है? अपनी सोच कॉमेंट्स में ज़रूर लिखें। दिलायरी के इस सफर में आपके विचार मेरे लिए सहयात्री हैं।”🌿

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