नवरात्रि 2025 का अनुभव और हवन
हवाओ के साथ जवार की फसल लहलहा रही है। वातावरण में एक मधुर शीतलता व्याप्त है। बीती रात भी बारिशने अपनी मौजूदगी से वाकिफ करवाया था। मैं तो भीगता हुआ ही घर आकर सो गया था। सवेरे उठने का जरा भी मन नही था, लेकिन दुर्गाष्टमी थी। लगभग हर जगह हवन का आयोजन होगा आज। हमारे यहां भी हवन था। वह दैनिक हवन के अलावा। सवेरे सवेरे दैनिक हवन वाले मित्रो के फोन पर फोन आ रहे थे। उन्हें चौक की चाबी चाहिए थी। जो कि मेरे पास भी नही थी। वैसे भी मैं उठा नही था, तो हवन में क्या ही जाता। लेकिन नवरात्रि के हवन में मुझे अचूक जाना पड़ता। कारण यही है कि मुझे साफा बांधना आता है। दशहरा के दिन भी यही हाल होना है मेरा। खेर, आज तो सवेरे से मौसम ने फिर से अपना ग्रे रंग धारण कर लिया था। और सुबह से ठंड से स्निग्ध वायु विचरण कर रहे थे।
सवेरे ऑफिस जाने से पूर्व गरबी चौक में जाना अनिवार्य था। आखिरकार नवविवाहित जोड़ो में पत्ता शामिल था, जो हवन में यजमान थे। हवन के लिए वह तैयार होकर पहुंच चुका था, और मेरी ही राह देखता मिला, हाथ मे साफा लिए। नौ बज गए थे, और मुझे ऑफिस के लिए लेट हो रहा था। पुष्पा भी छुट्टी पर था, वह भी अपने गांव हवन में हाजरी देने गया था। मैंने तीनों हवन के यजमानों को फटाफट साफा बांधा, और निकल पड़ा ऑफिस की ओर। मौसम में बस बारिश होने की देर थी, माहौल पूरा तैयार था। ऑफिस पहुंचकर आज तो इतना काम किया है, कि तुम बात जाने दो प्रियम्वदा। सवेरे से फोन को भी काम के अलावा छेड़ा नही है। दोपहर को बेशक घर चला गया था, लंच में आन पड़ते कामों से बचने ही। (अभी नींद आ रही है।)
ऑफिस व्यस्तता और जीवन की अनिश्चितता
कईं बार अनहद काम आ जाते है प्रियम्वदा। वे भी खर्चालु काम..! मैं मेरे गांव से कईं किलोमीटर दूर हूँ, फिर भी वहां होते हवन, एवं कुलदेवी के मंदिर में प्रतिवर्ष निश्चित राशि पहुंचानी होती है। दोपहर को ऑफिस लौटने बाद तो जाने समय कहाँ सरका है। लेकिन कुछ भी कहो, आज मौसम बड़ा ही मस्त है। जेठालाल की भाषा मे कहूँ तो रोमांचित मौसम..! आसमान काले और श्वेत बादलों से लबालब भरा पड़ा है। तेज हवाएं, सामने खेत मे जवार की फसलों को डोला रही है। पास ही बरसो से खड़ा नीम का पेड़, कुछ पत्ते गिराकर तेज हवाओं का मूक साक्षी बना है। रात्रि घिर चुकी है, और समय हो रहा है आठ। समस्या यह है प्रियम्वदा, कि अब थकान अनुभव होती है। दो - चार दिनों से दिलायरियाँ न ठीक से लिखी जा रही है, ना ही समय पर पब्लिश। आज अनुभव कर रहा हूँ, कि मुझे स्नेही का खालीपन अनुभव हो रहा है।
खालीपन, इच्छाएँ और आत्ममंथन
प्रियम्वदा, खालीपन अक्सर उमड़ आता है मुझे। पता नही क्यों? मेरे आसपास जैसे एक घेरा बना हुआ है, और कोई नजदीक नही आता। वैसे तो मैं ही किसी को भी अपने ज्यादा नजदीक नही आने देता। अनजानो में से सिर्फ वह एक ही मेरे इतने करीब आ गया, कि मुझे कमी लगने लगी। मुझे कभी भी किसी की कमी नही खली आजतक। मैं अपने स्वार्थ में मस्त और व्यस्त रहता हूँ। अपनी मौज का अनुसरण करता हूँ। और सबसे ही एक पर्याप्त दूरी रखता हूँ। मैं समय समय पर अवलोकन भी जरूर से कर लेता हूँ। मुझे कितनी आवश्यकता है किसी की, और किसी को मेरी..! अक्सर मुझे ही किसी न किसी की आवश्यकताएं रही है। मैं चाहे कितना ही किसी से दूरी रखूं, पर कुछ समय आते है, जहां मुझे अपना घेरा तोड़ना भी पड़ता है।
आज शरीर हार मान रहा है, लेकिन मन चाहता है दिलायरी पूरी कर लेने को। तीन-चार बार ऐसा हुआ, जब एक ही दिन में मैंने दो दिलायरियाँ लिखी। आज भी कुछ ऐसा ही था। बीते कल की दिलायरी भी शाम साढ़े सात को पब्लिश की है। वह दिलायरी तो निरी नकारात्मकता और हताशा से भरी मालूम हुई। जबरजस्ती लिखी है, वह स्पष्ट दिखता है। क्योंकि आज दिनभर काम की बहुत ज्यादा व्यस्तता थी, फिर भी जैसे तैसे कर के लिख ही ली। यूँ तो आग और पानी एक साथ नही रह सकते, उसी तरह यह लंबी दिलायरियाँ एक ही दिन में दो अलग अलग लिखनी भी कुछ ऐसा ही है। आग के साथ पानी मिलता है, तो अग्नि की लपटें अपना वर्चस्व खो देती है। लेकिन जाते जाते धुंआ फैला जाती है। फिर धुआं कईं देर तक उठता रहता है, पानी के को धीरे धीरे बाष्पिभूत करता रहता है।
काम और त्यौहार में संतुलन कैसे करें?
फिलहाल यह काम और त्यौहारों के बीच भयंकर खिंचाव भी महसूस कर रहा हूँ। मेरे सारे ही नित्यक्रम, सारे आयोजन सब कुछ ही अनियोजित हो चुका है। सवा आठ बज रहे है, और काम अभी तक बाकी है। मन तो नवरात्रि चौक पहुंच चुका है। लेकिन शरीर नींद भी मांग रहा है, आराम भी मांग रहा है, और ऑफिस के काम निपटाने को बाध्य भी। बारिश और काम, दोनों ही मेरी तरह अनिश्चित हो चले है। समय हो चुका है साढ़े नौ.. मैं अभी भी ऑफिस में बैठा हूँ। कारण यही है, काम.. एक बिल बनना है, जिसमे शायद आज ग्यारह बजे जाएंगे। अनिच्छा से भी करनी पड़े, वही नोकरी है।
प्रियम्वदा ! मैं कईं बार समझ नहीं पाता हूँ, मुझे जो मिला है, वह मुझे पसंद नहीं। जो मुझे पसंद है, वहां तक मेरी पहुँच नहीं। कईं लोग इस तरह त्रिशंकु की तरह जुलते रहते है। यह भी पसंद है, वह भी पसंद है.. लेकिन दोनों ही कभी अपने हो नहीं सकते। कुछ इच्छाओं की आपूर्ति नहीं होती। वे अनैतिक नहीं होती, बस समयानुसार उनकी पहचान मिट जाती है। प्रियम्वदा, कुछ विषय ऐसे भी होते है, जहाँ कभी मन नहीं भरता, और न ही दिल..! जैसे सुंदरता से मोह होता है, और कुरूपता से घृणा... सुंदरता कितनी ही निहारी जा सकती है। लेकिन कुरूपता देखना एक पल भी सेंकडो घड़ियां सा लगता है।
जीवन दर्शन – भीतर का कूप और पीड़ा
आज मन कर रहा है, अपने भीतर के कूप को खाली कर दू.. जो कईं समय से दूषित पानी को संगृहीत किये बैठा है। वही छिछरा कूप, जिसमे मैंने पीड़ा, प्रपंच, छल, चरित्र, विश्वासघात जैसे कईं घाव को कैद करके सड़ाया है। वहां न ही नूतन प्रकाश पहुँच सकता है। न ही कभी मैंने उस कूप की दुर्गन्ध को भी मुक्त किया है। उस सड़न की दुर्गंधों से मैं कितना ही स्वयं को घोंटने की कोशिश कर लू, लेकिन कभी भी मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। विकल्पों की गैरमौजूदगी, या मेरे स्वयं की पंगु जिह्वा, सब दोषी है। मैं स्वयं भी.. मेरी सावधानियों ने मुझसे विदा ले ली थी, विदा ले ली है.. और अब, मेरा मन मोहान्ध है, हर उस क्षेत्र में, जहाँ असम्भावनाएँ होती है।
शुभरात्रि।
३०/०९/२०२५
|| अस्तु ||
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