नवरात्रि का उल्लास और लेखन की दूरी
यह नवरात्रि में दिन कब गुजरता है, कब शाम होती है, कुछ पता ही नहीं चल रहा है, दिनभर कुछ भी करते हुए बेकग्राऊँड में गरबा ही बज रहा हो ऐसा लगता है... इसे ही आनंद का अतिरेक कहा जाए..! मौज चरम पर है..! और होनी ही चाहिए.. मुझे यह एक ही त्यौहार तो पसंद है। जिसमे शारीरिक श्रम के उपरांत संगीत के प्रति लगनी, और शायद दिनचर्या से मुक्ति भी तो मिलती है। कल लगभग दो बजे सोया था..
लगभग दो दिन हुए कुछ भी लिखा उसे। क्योंकि जब भी मौज चरम पर होती है तो लिखना रास नहीं आता, लिखता हूँ मैं अपनी मौज को संतोषने के लिए। जब कहीं और जगह से मौज का दरिया आ मिला है फिर लिखने में आलस सी भी होती है, और उस दरियाभर मौज का अपमान भी नहीं करना चाहता..!!! प्रीतम गधा टिकट्स (पास) वाली आयोजित नवरात्रिओ में जाता है। मैं थोड़ा रूढ़िवादी हूँ तो वहां जाना उचित नहीं समझता। घमंड है इस बात का की सिर्फ एक बार गया था, वह भी प्रीतम अपने जुगाड़ पर जबरजस्ती ले गया था... आज का लेख थोड़ा विचित्र लगेगा, २-३ जरुरी बातें लिखनी है जो मैंने देखि है और अनुभव भी की है।
मित्रता, सिगरेट और यादों की डोलती कारें
तो हुआ कुछ यूँ था की रात के डेढ़ बजे गरबा खेलना समाप्त हुआ, मैंने और कुछ मित्रो ने साउंड सिस्टम वगैरह खोले और प्लॉट के कॉमन रूम में रखे, सारे अपने अपने घर को चले गए, मैं वहीँ बैठा था, प्रीतम ने ग्यारह बजे बोला था की दस मिनिट में आ रहा हूँ, लेकिन डेढ़ बजे मैंने आशावादी होकर फिर से फोन किया, क्या पता भाई की घड़ी में अभी दस मिनिट न हुए हो ? अगले ने फोन ही काट दिया।
मुझे लगा गोली दे गया, तो मैं उठकर जाने लगा, तभी सामने से नाचते घोड़े की माफिक उछलता आता प्रीतम दिखा। हम लगभग चार बजे तक बैठे रहे.. और सिगरेट के एक पैकेट का भार पृथ्वी पर से कम किया, और वायुमंडल में बढ़ा दिया। अब बातो बातो में बात निकली की यार लिखने के लिए कुछ सूझ भी नहीं रहा है और लिखने का उत्साह भी 'ओट के दरिये' (कृष्ण-पक्ष में पीछे हटता समुद्र) जैसा पीछे चला गया है।
जीवन में एक परममित्र होना अति आवश्यक है... जिसके आगे तुम अपने दुखड़े सुना सको, हालाँकि अगले को उतना ही इंट्रेस्ट होता है जितना उसके दुखड़े सुनते हुए तुमको हो। क्योंकि हम दुखड़े उगलते है और वापिस से निगल जाते है। मेरा और प्रीतम का फिक्स है, हमारी बातो में शब्द कम अपशब्द ज्यादा होते है, और हमारी बाते भी बिना सर-पैर-धड़ की होती है। उसने याद दिलाया की पिछली नवरात्री में जब हम पास(टिकट्स) वाली नवरात्री में 'पहचान' लगा कर घुसे थे, फिर उस आयोजित नवरात्री के पार्किंग में दो-तीन डोलती कार देखि थी।
एक लड़की घुटने से ऊपर की चनिया-चोली पहनकर आई थी, और मैं और प्रीतम उसे देखकर यह सोचकर ठहाके लगा रहे थे की नक्की उसे कोई छोटी बच्ची के कपडे फैशन के नाम पर बेचकर चला गया होगा। पुरानी यादों को याद करते करते एक पैकेट सिगरेट खत्म हुई तब यह सोचकर उठे की अब कोई दुकान खुली मिलेगी नहीं सिवा बस स्टेशन (बस डेपो) के...।
शारीरिक भूख, वासना या प्रजनन—क्या है सत्य?
अभी ऑफिस पहुंचा, और सोचा की डोलती कार वाली बात को ही विषय बना कर लिखा जाए। जिसे हम लोग कई बार वासना कह देते है, विकार कह देते है, वह स्वाभाविक बात है। समय के साथ यदि यह विकार मन में बिलकुल ही नहीं आ रहा तो गंभीर बात है, बाकी उम्र के साथ यह शारीरिक भूख का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जैसे भोजन की भूख होती है वैसे ही यह भूख भी लगती है। भेद इतना है की इस भूख को नियंत्रित किया जा सकता है। मैं कभी कभी सोचता हूँ की यह प्रजनन की विधि बनाई ही क्यों गई है ? या फिर मनुष्य भी उस एक-कोषी जिव की तरह स्वयं ही अपने से अपना अनुयायी उत्पन्न कर लेता तो क्या हो जाता।
एक तो लाखो का खरचा बच जाता विवाह का। दूसरा इस भूख के नाम पर होता बलात्कार अजन्मा ही रहता। एक बात तो तय है की जिसे हम विकार कहते है वह विकार नहीं है। एक स्वाभाविक सा मनुष्य कर्तव्य है। जीवन के चार आश्रम में एक गृहस्थाश्रम का मुलभुत धर्म है की यह प्रजनन से नई संतति उत्पन्न करना और अपने ज्ञान, धर्म, कर्म को और आगे विस्तृत करना। लेकिन शर्म का पर्दा पड़ा है प्रजनन के विषय पर। कोई इसे गन्दी मानसिकता करार देता है, तो कोई सन्यासी या अध्यात्ममार्गी इसे विकार। समस्या तब होती है जब इस विषय पर कोई बात नहीं करता और अगर मित्राचारी में करते भी है तो इसे बस वासना के तौर पर लिया जाता है, मजे के नाम पर।
शिक्षा में प्रजनन की भूमिका और विडंबना
जैसे आजकल नवरात्रि जैसे पावन त्यौहार पर मेडिकल शॉप्स पर कुछ पर्टिक्युलर आइटम्स की बिक्री में उछाल आता है, और इस उछाल पर सर्वे होता है वह अत्यंत गंभीर है। इस प्रसंग को वासना कही जानी चाहिए क्योंकि प्रजनन एक प्रक्रिया है, कोई मनोरंजन का साधन नहीं। यह शिक्षा पद्धति में सिखाना चाहिए, समझाना चाहिए, जैसे हम पढ़ते थे तब लगभग दसवीं कक्षा में विज्ञान विषय में एक चेप्टर था, यही प्रजनन अंगो तथा प्रक्रिया पर। हमारे शिक्षकों ने पहले तो क्लास ही डिवाइड किया, लड़कियाँ अलग कमरे में लड़के अलग कमरों में। एक दृष्टिकोण से सही भी है, और नहीं भी। यदि शिक्षक/शिक्षिका ही इस विषय पर शर्म अनुभव करे तब तो हो गया।
खेर, धीरे धीरे इस विषय को अध्यापको के अलावा मातापिता पर भी डाला गया की आप अपनी संतान को इस विषय पर जागरूक करे। लेकिन सीधे संबंध के कारण मातपिता को शिक्षकों से ज्यादा झिझक हुई। फिर मित्रो ने आपस में इस विषय को डिसकस करना चाहा लेकिन वे सभी उतना ही समझ पाए थे जितना सिलेबस-किताबो में लिखा शिक्षकों ने 'पढ़ा' था, समझाया नहीं। अब वह किशोर अपने प्रश्नो को लेकर जाए तो किस के पास ? फिर आते है कुछ उम्र में बड़े युवक जो अक्सर इस बात को स्किप करने की कोशिश में इसे मौज-मजा का नाम देकर दूसरे विषयो पर बात लाकर भविष्य की दूसरी उम्मीदों में मन को लगा देते और समयानुसार प्रजनन या उसके लाभालाभ से वह अनजान ही रहता। जब इस प्रक्रिया को लोग कहीं भी किसी भी समय पर बस शारीरिक संतोष के नाम पर करते है तो सोचता हूँ की इसे विकार की संज्ञा ऐसे ही नहीं दी गई होगी।
पर इस विकार का कारन है इस विकार पर जागरूकता नहीं है। हमने स्वयं ही इस विकार को जन्माया है, यदि यह विकार होता तो बिलकुल नजदीकी विपरीत लिंग के विषय में यह विकार क्यों नहीं जन्मता ? पारिवारिक सम्बन्धो में यह विकार नहीं उत्पन्न होता, पर किसी अन्य को देखकर यह भूख जागृत हो उठती है ? ऐसा क्यों ? क्योंकि समझ की कमी है शायद। सांस्कृतिक रीती अनुसार विवाह का प्रयोजन इस भूख के व्यास को मर्यादित रखने के लिए ही हुआ होगा ? दो लोग आपसी मत बनाकर इस भूख का जीवनभर निवारण करते रहे और सामाजिक दूषण का स्वरुप न बने इसी कारण से विवाह के वचनो का निर्माण हुआ।
अच्छा, एक बात और विचारणीय है। नासमझी यहाँ तक आ चुकी है की इस भूख के निवारण हेतु न तो स्थान, न समय, न संयोग देखा जा रहा है। बात करे की इस भूख की संतुष्टि और उसे सीमाबद्ध तथा नियंत्रित कैसे करे तो इस विषय पर इंटरनेट पर ढेरो सामग्री और लेख है। सबसे महत्वपूर्ण यही है की अपने मन को नियंत्रित किया जाए, नैतिकता बाँधी जाए की हर किसी पर न फिसले। लेकिन नहीं, सौंदर्य, सुगंध, वस्त्राभूषणों पर जैसे मोहित होता है वैसे ही विपरीत लिंग पर हो ही जाता है। आज के समय में तो स्वाभाविक है, जब रील्स देखते देखते कोई रील आ जाए मादकता से भरपूर, तब बस स्वयं पर नियंत्रण होना चाहिए की मन चलित न हो..! यह शारीरिक भूख वाकई स्वाभाविक है, लेकिन इसको तृप्त करने के लिए स्वर्ण की तरह तप्त कर कुंदन की चाहना हो तभी इसे स्वाभाविक मानी जाए।
गरबा बनाम रास: लय, पूजा और परंपरा
गरबा और डांडिया में फर्क जानते हो ? सामान्य सा फर्क है, लय और ताल एक जैसे होने के कारण कैसेट के ज़माने में मिक्सिंग कर दिया गया। ऐसा माना जाता है की गरबा शब्द गर्भ का अपभ्रंश है। जैसे मिट्टी के छोटे से घड़े को रंग-रोगन कर सुंदर किया जाता है, तथा उसमे धान रखकर दिप प्रकटाया जाता है। अब मिट्टी के घड़े को मनुष्य देह मान लो, दीपक को आत्मा / चेतना, जिसे भक्तिपूर्वक प्रज्वलित की जा रही है। गरबे पर छोटे छोटे छेदो से अंदर प्रज्वलित अग्नि की रश्मि बाहर आकर सृष्टि में नवचेतना का संचार कर रही हो।
शारदीय नवरात्रि गुजरात का मुख्य त्यौहार है। एक मैदान में केंद्र में माताजी की स्थापना की जाती है, घटस्थापन (गरबा) होता है, आरती-पूजा के पश्चात उसकी वर्तुलाकार प्रदक्षिणा करते हुए भक्तिनृत्य किया जाता है। गरबा वह हुआ जिसमे माताजी के स्तवन, प्रशस्ति के गीत हो। हम क्षत्रियो की शक्तिपूजा की परम्परा रही है, तो अष्टमी को हवन होता है, नवमी को उत्थापन और दशहरा को शस्त्रपूजन। राजशाही काल में तो दशहरा के दिन बेवजह ही सही लेकिन छोटा सा युद्ध भी कर लेते थे।
अब समय बदल गया हे तो युद्धरीती भी बदली है, तलवारे, भाले, ढाल, यह अब दीवारों पर सुशोभन तथा एक इतिहास की वारिस स्वरुप टंगी रहती है, फिर भी उसे दशहरा के दिन बाहर निकाला जाता है। सालभर से बंद तलवार म्यान से बाहर आने को लालायित दिखती है। कुमकुम तिलक, पुष्पार्पण, और चावल के दाने चढ़ाकर पुनः एकबार उसे म्यान में बंद कर दी जाती है। इसी बिच दशहरा के पावन पर्व पर तलवार से रास खेला जाता है और युद्ध प्रसंग का निरूपण करते हुए तलवार को घुमाया जाता है।
रास, डांडिया और उसकी विविध परंपराएं
गरबा वह हुआ जिसमे आद्यशक्ति माँ का स्तवन प्रशस्ति तथा माँ के प्रति समर्पण के गीत होते है। बगैर किसी साधन के सिर्फ हाथ की तालियों से खेला जाता है। एक होता रास, जो डांडिया से खेला जाता है, बांस की छोटी डंडी। रास की परम्परा कृष्ण के समय से चली आ रही है। रास में भी भक्तिगीत होते है पर साथ साथ प्रणय तथा विरह गीत भी। रास में फिर बहुत सी अलग अलग चाल है, लकड़ी की डंडी, ढाल-तलवार, अग्निका घड़ा सर पर लिए हुए, सर पर सात-सात मटके लेकर।
कोई कोई अंगारो पर खेलते है, कहीं पर बिना किसी वाद्ययंत्र के सिर्फ गाते हुए खेलते है। सारांश यह है की गरबा अलग है, रास अलग है, और डांडिया (बांस की डंडी) तो एक साधन है जिससे रास खेला जाता है। गरबा में भी प्रकार है, एक ताली, तीन ताली, हींच-टिटोड़ो, हुडो और भी कई सारे। रास में मुख्यत्वे कृष्ण परम्परा का 'डांडिया रास', शौर्य को दर्शाने के लिए 'तलवार रास' है, सर पर मटके लेकर खेलती महिलाए वह 'मटुकडी रास'। वाद्य यंत्रो में ढोल, शहनाई, नगाड़ा, और झांझ का ही उपयोग होता था, पर टेक्नोलॉजी और आधुनिकता में गिटार तक बजता है...
चलो आज तो कुछ ज्यादा ही लिख दिया...
(दिनांक : ०५/१०/२०२४, १५:३८)
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