"गयढा गाडा वाळे और नवरात्रि का करंट: अनुभव बनाम उत्साह की दिलायरी" || There is a famous saying in Gujarati, "Gaidha Gada Wale"

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उत्साह और अनुभव की टक्कर: एक नवरात्रि की रोशनी में दिलायरी

    गुजराती में एक प्रख्यात कहावत है, "गयढा गाडा वाळे" गयढा मतलब वृद्ध/अनुभवी, गाड़ा / गाडु मतलब बैलगाड़ी... पहले जब बैलगाड़ियां चलती थी तो कोई उत्साहित युवक किसी कच्ची सड़क पर कीचड़ में बैलगाड़ी फंसा दिए करते। फिर वह निकल नहीं पाती तब अनुभवी वृद्ध ही उसे निकाल पाते। तब से कहावत बन गई। की युवक का उत्साह कहीं फंस जाए तब वृद्ध का अनुभव उसे वहां से सकुशल निकाल लाता है।



पिछली नवरात्रि का करंट और इस बार की सावधानी

    कल रात्रि को हमारे नवरात्री ग्राऊंड में सारी तैयारियां हो चुकी थी, साउंड सिस्टम चेक कर ली थी, लाइटनिंग डेकोरेशन लगा दिया था, अब बारी थी बड़े हैलोजेन लाइट्स लगाने की ताकि ग्राउंड में उजियारा रहे। लगभग यह काम मैं ही करता हूँ। और भाग्यवश बच भी जाता हूँ। पिछली नवरात्रि को चबूतरे पर बड़ी हैलोजेन लाइट लगानी थी, मैंने चबूतरे पर चढ़ कर हैलोजेन चबूतरे की रेलिंग के साथ बाँध कर वायर कनेक्शन कर दिया। निचे उतरा तब गजा आया सर खुजाते हुए, "हैलोजेन किसने लगाई ?" तो मैंने कहा, "मैंने ! और किसने ?" तब उसने बताया की जिसमे मैंने वायर कनेक्शन दिया वह बिजली के खंबे से डायरेक्ट आता हुआ लाइव वायर था। 


लाइट्स की सीरीज़ और जीवन के बायपास की सीख

    क्या बचा था मैं ? आश्चर्य ही था..! कल रात को फिर से वही गलती दोहरा दी, लेकिन अबकी बार पिछली कहानी याद थी तो टेस्टर लेकर चढ़ा था। पहले मैन वायर पर टेस्टर लगाकर देखा, करंट आ रहा था। निचे कमरे में इस बार इस मैन वायर की एक स्विच दे रखी है तो निचे से स्विच बंद करवाई, फिर वायर काट दिया, टेस्टर लगा कर देखा, करंट नहीं आ रहा था। तो मैं वायर छिलने ही जा रहा था की एक अनुभवी ने कहा एक बार फिर से मेरी तसल्ली के लिए टेस्टर लगाओ तो... वायर में फिर से धीरजपूर्वक टेस्टर लगाया, करंट तो चालु ही था। मैंने जो त्वरा से वायर को जमीन पर फेंका है, इतनी जल्दी तो मैंने शायद कुछ भी नहीं किया होगा। अब समझ में आया की निचे वाली स्विच इसकी तो नहीं है। और वैसे भी खंबे से डायरेक्ट आते वायर में तो करंट होगा ही। खंबे से आते तारो का कोई भरोसा नहीं होता है। इस बार भी मैं बच गया। फिर इस बड़े हैलोजेन का नए वायर से नया कनेक्शन ही कर दिया, करंट से कौन पंगा ले भाई..!!


    तो तात्पर्य यही था की, युवानी के उत्साह को सही दिशा में वृद्ध का अनुभव ही मोड़ सकता है। अब सारा मैदान रंगबिरंगी ज़ीरो बल्ब्स से रौशन था। लाइट्स का उजियारा भी बहुत खूब था। बल्ब्स वाली एक सीरीज़ में आधे बल्ब नहीं जल रहे थे। लाइट्स से पंगे लेने में पता नहीं मुझे क्या मजा आता है। उस सीरीज़ में समझ आया की बांधते समय थोड़ा ज्यादा खींचा गया होगा इसी कारण से आधी सीरीज़ बंद हो गई, फिर से सीढ़ी टेबल लगा कर ऊपर चढ़ा, अब बंधी हुई सीरीज़ में काम हो नहीं सकता और पूरी सीरीज़ को वापस निचे उतारने मे मेहनत और समय दोनों ज्यादा लगते तो सिर्फ उस वाले होल्डर को बायपास करके आगे का कनेक्शन किया, यही बात जीवन की सीरीज़ में भी तो लागू होती है, कोई कार्यसाधना में कहीं कोई रुकावट लंबी खींची जाए तो उसे उसी समय बायपास कर आगे बढ़ जाना चाहिए। लेकिन ना ! 


आर्थिक तंगी, सहनशीलता और मध्यमवर्गीय मैनेजमेंट

    हम जानबूझकर वहीं अटके रहते है, और वह अटकना धीरे धीरे रास आने लगता है। उस ठहराव में अगर आनंद की अनुभूति हो, फिर तो समझो की लक्ष्य के आगे धुंध छा चुकी है। और उस ठहराव को ही तुम अपना लक्ष्य बना लेते हो। कई बार तंगी का समय आता है.. आर्थिक तंगी..! सबको आती है, चाहे धनिक हो, तवंगर, या मध्यमवर्गी...  फर्क इतना सा है की धनवान के पास उस तंगी को बायपास करने के और संसाधन है, गरीब के पास धैर्य और सहनशीलता। मध्यमवर्गीय बेचारा चिल्लाता रहता है, हाय तंगी, हाय तंगी.. हकीकत में बस मैनेजमेंट करना आना चाहिए..! और एक होनी चाहिए बोजा सहन करने की क्षमता.. ...वरना यह तंगी धीरे-धीरे खुद को दया का पात्र समझने की आदत में बदल जाती है — और वहीं से शुरू होती है आत्म-त्याग की मानसिकता, जैसे कि मैंने इस लेख में लिखा है Self-deprivation arises from victim mentality , फिर मजाल है तंगी की परेशान करने की ? लेकिन ज्यादातर हम लोग बहुत सी जगहों में अपने हाथ फंसा लेते है। फिर तंगी को ना निगल पाएंगे, न उगल पाएंगे।


क्या होता है भाग्य? क्या कर्मफल है?

    अच्छा जैसे कल भी भाग्यवश बच गया तो यह भाग्य वगेरह सच में होता होगा क्या ? क्या सारे घटनाक्रम पहले से निश्चित है ? या ऐसा भी तो हो सकता है की जिसे भय का पता न हो वह साहस करने में झिझकता नहीं। पिछली नवरात्री को मुझे पता ही नहीं था की वह चालु वायर है, लकड़ी के पाट पर चप्पल पहने हुए नए पकड़ से वायरिंग की, संयोगवश मेरा हाथ वायर को छुआ ही नहीं था। सबसे बड़ी बात की पता ही नहीं था की वायर चालु है तो डर का नामोनिशान न था। 


भय के बिना साहस, या अज्ञान का आत्मविश्वास?

    कल जब फिर से वही काम दोहराया तो सबसे पहले यही संभावना याद आई की वायर चालू भी हो सकता है। तो स्वाभाविक शॉक का डर भी लगा, इस लिए उपाय आजमाए, टेस्टर से चेक करने की योजना बनी, फिर जब विश्वास बैठा की हाँ, करंट नहीं है, तब भी डबलचेक करना चाहिए था, मैंने वहां गलती की। लेकिन पास ही खड़े अनुभवी को और भी संभावनाए ध्यान थी। अब इसे भाग्य कहा जाए या कर्मफल ? मैं नहीं जानता। और न ही शायद जान पाउँगा, क्योंकि इस विषय में जब भी उतरा हूँ, तराजू मध्यस्थी ही बनाए रखता है।


    चलो बाकी कुछ और बात सूझेगी तो फिर यही मिलेंगे, किसी नए पन्ने पर.. 

    (दिनांक : ०३/१०/२०२४, १९:२५)

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"क्या आपने कभी ऐसा अनुभव किया है जहाँ बच जाना भी एक सीख बन गया हो? अपने 'उजाले और झटकों' की कहानी नीचे कमेंट में लिखिए।"


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