शाकाहार, मांसाहार और बलि: गाँधी-शास्त्री की जयंती पर विचार की कसौटी
मोहनदास गाँधी और लालबहादुर शास्त्री दोनों की जयंती है आज..! सुबह से ऑफिस में इतनी व्यस्तता है, जैसे छुट्टी का दिन ही नहीं है। फिर भी लंच टाइम के नाम पर एकाध घंटा इधर-उधर होकर थोड़ी देर काम से फुर्सत पा लेते है।
* यह लेख थोड़ा क्रूर और घिनौना लग सकता है।
मांसाहार-शाकाहार की बहस: सोशल मीडिया की आग
आज का लेखन लंच टाइम में किसी से बात कर रहा था टॉपिक निकल आया मांसाहार-शाकाहार का..! सोसियल मिडिया पर भी इस विषय की खूब बोलबाला दिख जाती है। फिर कुछ मांसाहारी शाकाहारी को कोसते पाएंगे, और शाकाहारी मांसाहारी ओ को। मैं निष्पक्ष रह कर भी अगर सोचता हूँ तो समझता हूँ की अबोल जिव की हत्या तब तक तो गलत ही है जब तक खुद पर न बन आई हो। अब इसमें स्वार्थीपना मत देखना। मुझे लगता है की अपने अस्तित्व की बात आए तब शायद सर्वप्रथम नैतिकता ही त्यागी जाती है।
वीगनिज़्म बनाम पारंपरिक पोषण: क्या दूध भी अपराध है?
मुझे यह बात कभी रास नहीं आती जब वीगन संस्था पेटा अमूल जैसी उत्पादक संस्थान को दूध के विषय और कोसे..! दूध तो मनुष्य की प्रथम खुराक है। हाँ कई जगहों पर दुधारू पशु ओ पर अत्याचार होते है ज्यादा उत्पादन करने के लिए वे गलत है। लेकिन दूध के नाम पर जो वनस्पति से प्राप्त दूध के हमशकल को बेचकर नया धंधा शुरू किया गया वह भी उतना ही गलत है। वही बात हो गई की टॉयलेट पेपर बेचने के लिए पानी से पिछवाड़ा धोना बंद किया जाए। गन्दी बात हो गई, दूध से सीधे ही किधर पहुँच गए।
बलिप्रथा और धार्मिक अनुष्ठान
४-५ दिन पहले हमारी बीसेक लेबर अपने गाँव बिहार को लौटी..! अब दिवाली से इतने पहले जा रहे थे तो मैंने कारण पूछ लिया। पता चला की नवरात्री में उनका कोई त्यौहार होता है, कुछ पूजाविधि करते है और खस्सी चढ़ाते है। अब यह खस्सी मेरे लिए कुछ नया था, तो मैंने थोड़ा विवरण पूछा की होता क्या है यह ? पता चला की बकरे को खस्सी कहते है। अब यह पूछना रह गया की नर होता है की मादा। नर ही होता होगा.. जब चढ़ रहा है तो। थोड़ी देर में समझ आया की किसी देवी के अनुष्ठान या पूजन विधि में बकरे की बलि चढ़ाई जाती है।
युद्धभूमि और रक्त का भय
आज के समय में हमारे तरफ के कुछ लोगो को यह बलि वगैरह अजीब लग सकता है, पर मुझे नहीं लगा क्योंकि मैंने इन विषयो पर कुछ कुछ पढ़ रखा था। बलि, अनुष्ठान, यञवेदी, सबका अपना अलग होता है। अपनी अलग विधियां होती है, अपने अलग रिवाज होते है। कोई तो प्याज का भी परहेज करता है तो कोई मांस का दान भी करता है। पहले तो बलि वगैरह दी जाती थी और सरेआम भी दी जाती थी ताकि रक्त और मांस के प्रति की घृणा या घिन्न का जो भाव हो उसमे कमी हो। आज कई लोगो को मैं देखता हूं की रास्ते पर कोई एक्सीडेंट का चोटिल पड़ा हो तो उसके पास से गुजरते हुए बहता खून देखकर भी वोमिट जैसा करने लगते है, या फिर कोई लड़ रहा हो तो उसे देखता हुआ भी वोमिटिंग करने लगता है।
यह भय है, और इस भय का मिटना बहुत जरुरी है। किसी दिन संकटकाल में यह भय तुम्हे वहीँ अटका देगा। एक समय पर पशुओ की बलि देकर रक्त को इसी लिए बहाया जाता होगा की उससे घृणा का भाव कम हो ताकि जब युद्ध की घडी आए और चारोओर लाशें देखकर भी मन भ्रमित न हो। कभी कल्पना की है ? युद्धभूमि कैसी होगी ? आज की नहीं, आज तो गोलियों के छोटे से हुए छेद इतने भयजनक नहीं दीखते जितने सरकटी, बांहकटी, लाशो पर मंडराते गिद्धों को देखना होता होगा। कहीं किसी की अंतड़िया, कहीं किसी का मांस निकला हुआ, कहीं तलवार के एक ही प्रहार से खुले हुए कपाल से झांकता अंतःकपाल। बीभत्स रस यही है...
लेकिन इन युद्धभूमि की और फिर लोग पलटकर भी नहीं देखते। गुजरात के सौराष्ट्र में एक शहर है, "ध्रोल".. लोग आज भी अगर ध्रोल जा रहे हो तो कहते नहीं की ध्रोल जा रहे है, उसके बदले कहते है "सामेगाम" जा रहा/रही हूँ। युद्धभूमि का भय शायद आज भी अनुभव कर रहे होंगे। आज इस प्रकार की बिभत्स्ता की शायद आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम सामाजिक प्रगति कर रहे है, अद्यतन हो रहे है, जीवनचर्या बदल चुकी है, जीवनका स्तर भी बदला है।
क्या आप जो खा रहे हैं, उसका सामना कर सकते हैं?
तभी तो कई लोग है जो मांस का सेवन कर सकते है लेकिन यदि उसीके सामने जीवहत्या की जाए तो कल्पांत करने लगेगा। फिर जब तुम देख नहीं सकते तो खाओ क्यों ? और यदि खाना ही है तो खुद से बनाओ, बनाओ का तात्पर्य यहाँ है की काटो भी स्वयं, खाल भी स्वयं उतारो, अंतड़िया वगैरह निकालकर साफ़-सूफ भी खुद ही करो, और फिर उसे पकाओ। तब तो कदम पीछे हटने लगेंगे। यह तो बाजार में तैयार कटिंग पीस मिलते है इस लिए आसान है।
इसका अर्थ यह कतई नहीं की मैं मांसाहार का प्रखर विरोधी हूँ। मैं उस रसनापोषी भाव का विरोधी हूँ जो दोगला है। आहार का कारन नहीं होता, आवश्यकता होती है। शारीरिक पोषण के लिए सबकी आवश्यकता होती है, पर उसका अर्थ यह नहीं होता है की सिर्फ एकमात्र उसी चीज से ही शरीर तंदुरस्त रहता हो। पोषण के कई सारे विकल्प है पृथ्वी पर बस करेला कड़वा लगता है। (मुझे तो वाकई लगता है।)
न कट्टर शाकाहारी, न आक्रामक मांसाहारी – अपन ग्रे ही सही
छोडो यार, बहुत घृणास्पद बाते हो गई। तात्पर्य यह था की किसी भी आहार का सेवन करो, लेकिन किसी और को प्रेरित क्यों करना है ? भाई तुम जो खा रहे हो खाते रहो। प्योर वीगन वाले भी मुझे पसंद नहीं, वो में नाम भूल गया किसी वनस्पति का दूध जैसा पदार्थ पीते रहते है। किसी दिन यह लोग मातृत्व के स्तनपान को भी पाप कह देंगे। यह अति ही कही जाएगी, एक्सट्रीम.. फिर मैं खुद ही सोचता हूँ, न ब्लैक अच्छा है, न व्हाइट... अपन ग्रे ही ठीक है।
(दिनांक : ०२/१०/२०२४, १९:३४)
...क्योंकि अंत में आहार हो, या आदत – बंधन में वही फँसता है जिसे 'मूल प्रकृति' का भान नहीं होता, जैसा कि मैंने यहाँ विस्तार से लिखा है 👉 केवल वही बंधन में पड़ते हैं जो अपने स्वभाव को नहीं पहचानते।
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"आपके विचार क्या हैं? क्या आहार केवल पोषण है, या संस्कृति और नैतिकता का प्रतिबिंब? नीचे कमेंट कर बताइए कि आप किस ग्रे ज़ोन में खड़े हैं!"
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