जब स्वप्न आँखों में ही छूट जाते हैं
कुछ स्वप्नों पर शायद हमारा अधिकार नहीं होता प्रियंवदा..! या शायद वे स्वप्न जो असंभव हो उनसे कैसे मुँह मोड़ा जाए? समझ नहीं आता। कुछ बाते मैं यहाँ लिखकर शेर नहीं करता किसी के साथ। पता नहीं, मुझे खुद को ही अजीब सी लगती है। जो पन्ना मुझे स्वयं को अच्छा न लगे, उसे इंस्टा पर स्टोरी में नहीं डालता। ऐसा लगता है, जैसे खुद के ही शब्द खुद से छिपाना चाहता हूँ। वे स्वप्न अनदेखे ही छोड़ना चाहता हूँ। पर नहीं हो पाता। मन ऐसा ही है। कहीं न कहीं उसे लगना ही पसंद है। कोई साथ में है, उसकी परवाह नहीं। जो साथ न हो उसी को प्राप्त करना चाहता है। मायावी है।
“यह क्या हो रहा है मेरे साथ?”
तंगी चल रही है। आसपास जो भी घटित हो रहा है उससे घुलमिल नहीं पा रहा। ऐसा ही कुछ कठोरत्व में चाहता था। पथ्थर सा। फिर कोई अनेको ठोकरे मारता रहे। मैं सह सकता हूँ। क्यों? कौन प्रतिरोध में ऊर्जा व्यर्थ करे भला। आंतरिक द्वंद्व में हारना तय है। प्रियंवदा, कल किसी ने क्या खूब सही बात भेजी थी, जीवन के चार पड़ाव होते है। बचपन, युवानी, यह क्या हो रहा है मेरे साथ, और मृत्यु। मैं दो पड़ाव पार कर चूका हूँ, बचपन बीत गया, युवानी बीती ही मानी जाए, क्योंकि अभी वही दौर चल रहा है जिसे मैं कह सकता हूँ कि यह क्या हो रहा है मेरे साथ।
जिम्मेदारियों का बोझ और झुके हुए कंधे
जो छोटे है, उनसे घुला-मिला नहीं जा सकता, जो बड़े है, वे तो है ही, उनसे तो आदर के नाम ही दूरी बनी होती है। नौकरी-धंधे में दौड़ते हुए इतने व्यस्त है कि सच में कुछ पता ही नहीं चल रहा। जैसे रोबोट जैसी जिंदगी हो चली है। सुबह उठो, ऑफिस के लिए निकलो, दिनभर काम करो, शाम को घर लौटो, पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाओ, और सो जाओ। अगली सुबह फिर से वही। एक समय आता है, पता चलने लगता है, जीवन कितना भारी है। वे जो किताबी शब्द है ना की जिम्मेदारी में बहुत बोझ है, सत्य है, परमसत्य। उम्र जैसे जैसे बढ़ती जाती है, पुरुषो के कंधे झुकते दीखते है। खुद के शौख पुरे करने के लिए सोचना पड़े अगर, तब लगता है। यह सब शाब्दिक रमतो से ऊपर उठ जाना चाहिए।
क्या कोई प्रेरणा भी है यहाँ?
लेकिन पुरुषार्थ न हो फिर क्या जीवन? प्रत्येक पल में चुनौती नहीं तो क्या जीवन? यह परीक्षाएं ही तो मजबूत बनाती है। अनुभव सिखाती है। एक अच्छी बात सुनी थी, किस्से हर रोज बनने चाहिए, वरना अगली पीढ़ी को सुनाने के लिए अपने पास है क्या? बात तो सच है। हम अपने बड़ो के कारनामे सुनते है। हमे भी तो सुनाने पड़ेंगे। यही प्रथा है। यही रिवाज है। वैसे भी जीवन में एकाध काम तो ऐसा हो जिससे नाम बने, अच्छी श्रेणी या बुरी, वो बाद की बात है। शायद यह पन्ना भी कहीं शेयर नहीं किया जाएगा। इसमें प्रेरणा कुछ भी नहीं। बस निराशा है।
|| अस्तु ||
क्योंकि आँखें कभी-कभी वह भी कह देती हैं, जो शब्द नहीं कह पाते।)
क्या आपने भी कभी कोई ऐसा पन्ना लिखा है, जो किसी को नहीं दिखाया?
कोई ऐसा स्वप्न जो आपने किसी से कहा ही नहीं?
अगर हाँ, तो ये शब्द आपके लिए हैं…
और अगर आप चाहें तो एक “🕯️” छोड़ सकते हैं — उन अनकहे ख्वाबों के नाम।