शठे शाठ्यम समाचरेत्... || The wicked must be treated wickedly...

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यूँ तो निष्क्रिय अजगर की भांति पड़ा ही रहता हूँ, लेकिन रविवार की संघ शाखा में कुछ नियमितता रखता हूं। शाम पांच से छह। वहां कुछ बौद्धिक चर्चाएं होती है, कुछ खेल वगेरह और अनुशाशन। वहां जब बौद्धिक बाते हो रही थी, और समाज चरित्र के प्रति संपादकीय लेख का वांचन हो रहा था तब लेखक ने मानव समाज के अनुलक्ष में जो भी बातें कही उसमें 'शठे शाठ्यम समाचरेत्' वाक्य आया। विदुर नीति का यह वाक्य है। सीधा अर्थ है कि 'दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए'। थोड़ा और सामान्य करे तो 'जैसे को तैसा'। कितनी सरल बात है ना। लेकिन व्यवहारिकता में आजमाने में बहुत सोच विचार करना पड़ता है। परिणामो की गणना करनी पड़ती है। अपने पक्ष में कितने श्रेष्ठतम परिणाम आ सकते है यह सोचना पड़ता है। ऐसे ही सुबह उठकर किसी को चांटे नही जड़ सकते। अगला ज्यादा ताकतवर हुआ तो घूंसा मार देगा। संबंधों में हम कितने ही समाधान करने की कोशिश करे, कुछ ऐसे संबंध होते है जो बस बने रहते है बिना किसी ठोस कारण के। जैसे दुष्ट को दुष्ट मिला। या स्नेही को स्नेही। सनकी को सनकी। कभी कभी उल्टा भी होता है, स्नेही को दुष्ट भी टकरा जाते है। क्योंकि कुछ संबंध टूटते नही। अगर तोड़ भी देते है तो अपना ह्रदय ही स्वीकार नही पाता। या यूं कहें कि उसे छोड़ना नही चाहता। अब न् छोड़ पाने के पीछे दो भावनाए सक्रिय हो जाती है उसमे एक प्रतिशोध बहुत खतरनाख है। लाइलाज। क्योंकि उनमें वह शठे शाठ्यम समाचरेत् की भावना आ जाती है, प्रतिशोध मति को अंध बना देता है, और उसे शठ ही मालूम पड़ता है। उदाहरण के तौर पर आज के बांग्लादेशी देख लो। कभी वे अखंड भारत का भाग हुआ करते थे, उनकी मति पर धार्मिक प्रतिशोध की अंधता छाई है, और वहां मंदिरो पर आक्रमण कर रहे है। कितनी मूढ़ता पर उतर आए है। ऐक्यता का भाव तभी निर्माण होता है जब परस्पर सौहार्द हो, समह्र्द हो। और वह समहृदता का जलाशय सूखता बड़ा जल्दी है। लेकिन इसी भारत भूमि के राजनीतिज्ञ विदुर की शठे शाठ्यम समाचरेत् की नीति हम शायद इस लिए उपयोग में नही ले रहे है कि अभी उपयुक्त समय न आया हो। या फिर शिशुपाल की एक सौ एकवे अपशब्द की इन्तेजारी हो.. नही हम सहिष्णु है। अति सहिष्णु।



प्रियंवदा, यह विचारमाला चल ही रही थी कि तभी उस बौद्धिक वांचन में एक और शब्द ने आकर्षित किया, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' - अर्थात सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान माना जाए। उन कट्टरो के भीतर भी तो एक आत्मा है ही.. भले ही दूषित हो चुकी हो पर अपने ग्रंथो अनुसार आत्मा तो है। हमारी सहिष्णुता के पीछे कार्यरत यही विचार है, आत्मवत सर्वभूतेषु.. हम चींटी से लेकर हाथी तक समान मानते है, किसी दैवीय शक्ति से संचारित जीव। आत्मा। इस पृथ्वी पर सबको समान अधिकार है। समान जीवन है, समान क्षुधा है, समान आवश्यकता, और समान मृत्यु। बस पद्धति का भेद है। तरीका अलग है। इन तरीकों में ऊंचनीच बसी है। ऊंचनीच का भेद अनंत है। पहाड़ और खाई साथ मे होते है लेकिन एक से नही होते। एक होना चाहे तो पहाड़ का नुकसान ज्यादा है, उसे नाश होना होगा। खाई के समकक्ष होने के लिए स्वयं का विनाश पहाड़ के लिए उचित भी नही है, शोभनीय भी नही। वहां यह भेद बना रहना भी चाहिए। समय समय पर पहाड़ अपने पत्थरो को खाई को सौंपता है। जैसे खाई को अपने समकक्ष लाने की चेष्टा हो। लेकिन खाई, उस पथ्थर को अपने भीतर बहते किसी जलप्रवाह में डालकर रज बना देती है और उनके उठने का प्रयास नही करती। शायद पहाड़ को नीचे लाने में लगी रहती है। अब पहाड़ से ऊंचा कौन है, और खाई सी क्षुधातुर कौन है यह पाठक स्वयं अनुमानित करे।


प्रियंवदा ! नाम मे क्या रखा है कहने वाले ने भी अपने विचार के नीचे अपना नाम जरूर लिखा है। सोचता हूँ, नाम वास्तव में इतने असरकारक होते है क्या? धनजी नाम का व्यक्ति पाई पाई का मोहताज भी हो सकता है। अब सारे प्रताप के प्रताप, राणा जैसे थोड़े होते है? फिर सोचता हूँ कि नही, स्वयं का प्रथम परिचय तो नाम ही है। अगर खुद को अपना नाम चयनित करना हो तो अपने लक्षणों सा ही क्यों न हो? मेरी इच्छा है कि मेरे विचारो की कोई सीमा न हो तो मैं अनंत हूँ। मेरी इच्छा है कि मेरा ह्रदय मजबूत हो, कठोर हो, साहसी हो तो मैं दिलावर हूँ। अपने मन की मानता हूं, मैं मनमौजी हूँ। नाम से फर्क तो पड़ता है। लेकिन नाम एक ऐसी वस्तु है, जो है तो हमारी, लेकिन हम से ज्यादा दूसरे ही उसका उपयोग करते है। और हमे आपत्ति भी नही.. अजीब है न.. वरना सम्भव है कि हमारी वस्तु को कोई भी छू भी ले.. 


ठीक है प्रियंवदा.. एक और ज्ञान की बात रख लो.. विश्वासघात के साथ अकेलापन सौगात में आता है। विश्वासघात जिसपर आघात बनकर गिरा है, उसके वहां अकेलापन मेहमान बनकर आता है.. और पालथी मारकर बैठता है।


|| अस्तु ||


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