दिलायरी : ११/०१/२०२५ || Dilaayari : 11/01/2025

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आज तो वही, सवा नौ को ऑफिस, शनिवार था। भारी भरखम शनिवार.. लेकिन आज वजन कुछ कम रहा। सुबह ऑफिस पहुंचा, चौकीदार ने रिपोर्ट दी, 'बस कल की कोटा वाली खड़ी है.' टोपी बहादुर ने चाय चढ़ा दी। वैसे यही नित्यक्रम है। गेट से दाखिल होते ही, मोटरसायकल लगाते ही पहले चौकीदार बताता है, और ऑफिस में दाखिल होते ही चूल्हे पर चाय.. कुछ भी कहो, इस टोपी बहादुर को एक ही बार समजाया था कि मुझे कैसी चाय पसंद है, चीनी कम, पत्ती ज्यादा, दूध पर्याप्त, थोड़ी काली लेकिन एकदम कड़क। और बिल्कुल मोक्षदायिनी चाय का कप टेबल पर होता है। आजकल मोबाइल गेम का भी थोड़ा चस्का लगा है। पौने दस को अचानक याद आया कि ब्लॉगपोस्ट तो पब्लिश की नही.. ओपन कर के देखा तो दिलायरी तो शिड्यूल्ड थी वह हो चुकी थी। दूसरी ड्राफ्ट में पड़ी थी उसे भी पोस्ट कर दी। स्नेही को भेज दी। कुछ देर बाद प्रतिभाव भी आया। कुछ और लोग भी पढ़ते है शायद, पर टिप्पणी या कुछ प्रतिभाव नही आता तो समझ नही आता। लेकिन यह स्नेही तो काबिल-ए-दाद है.. यहां से प्रतिभाव न आए तो अब जी घबराने लगता है। खेर, फिर हमारी कईं देर तक बहु-विषयो पर बहस हुई.. कुछ मैंने सुनाई, कुछ सुनी.. दो बजे गए और पेट ने पुकारा तब मैंने हार मानते हुए फिर किसी दिन इसी विषय को घसीटेंगे कहकर अल्पविराम लिया.. और गरीब की बेली दाबेली का नाश्ता करने चला गया।



मुझे लगता है, मैं दाबेली खाने में अब महारथ हांसिल कर चुका हूं, गिनती की तीन जगह है जहां का स्वाद मेरी जिह्वा खूब पसंद करती है। सवा तीन के बाद तो साप्ताहिक हिसाबो में उलझ गया, लगभग सात बजे ध्यान भंग हुआ। सरदार जा चुका था। मैं स्नेही के साथ हुई चर्चा का निचोड़ लिखने बैठा। लगभग सवा आठ तक लिखकर ड्राफ्ट ही छोड़ दिया। याद आया। रोकड़ कौन मिलाएगा? फिर उसमे तो क्या सर खुजाया है? होते होंगे लोगो के हेयर लॉस.. मेरे तो मैंने खुद ने नोचे है..! एक हफ्ता ऐसा नही जाता जब एक रुपये की भी गलती ना मिले। हर हफ्ते रोकड़ घटती है.. आज तो हद ही हो गई, पिछले हफ्ते के क्लोजिंग और इस हफ्ते के ओपनिंग में ही लगभग सत्रह हजार का फर्क। कैसे हो सकता है? असंभव। बहुत याद किया पिछले रविवार को। पर यादाश्त भी कर्ण की विद्या है। जो होगी, देखी जाएगी सोचकर घर आया। खा-पीकर आग सेंकने पहुंचा।


कुछ देर से yq पर कुछ पढ़ रहा था। किसी और सोसायटी से पवन के साथ हनुमानचालीसा के स्वर सुनाई दे रहे है। आज राममंदिर प्राणप्रतिष्ठा की प्रथम वर्षगांठ है।, मैं सोच रहा हूँ। हम जिस जगह से होते है हमे वहीं का संगीत अच्छा लगता है। यह हनुमान चालीसा जिस लय-ताल में गाई जा रही है, मुझे अच्छी नही लग रही है। ऐसा ही ओड़िया भजनों में होता है। जगन्नाथ के मंदिर से उठते भजन के स्वर मुझे अरुचिकर हो पड़ते है। न ही ताल पसंद आता है, न ही संगीत। कारण उतना ही कि अपने यहाँ के भजनों, गीतों के ताल-लय-संगीत अलग तरह का है।


ठीक है। अभी ग्यारह बजने को है। और किसी ने लेख भेजा है। वह पढ़ना है। और उसके पश्चात साबरमती रिपोर्ट भी देखनी है।


शुभरात्रि।

(११/०१/२०२५, १०:५९)


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