आ गया तुम्हारे नाम फेकमबाजी करने प्रियंवदा..! बड़ा सही है। मैं तुम्हारे नाम बहुत कुछ लिख देता हूँ। बहुत सी वे बाते जो मुझे पसंद है, जो नहीं भी है वो भी तुम्हे तो बता ही देता हूँ। कई बार ऐसा होता है कि कुछ कुछ को सम्पूर्ण मान लेते है। फिर जितना जानने पहचानने लगते है तो मत-मतांतर का भेद समझ आने लगता है। कुछ संयोग होते है, कुछ धारणाएँ, कुछ नियति। कभी कुछ कहना होता है, कभी कुछ सुनना.. यही परम्परा है। याद रखना चाहिए वः तो याद रहता नहीं है मुझे। जो नहीं रखना होता है, नहीं रखना चाहिए, वो पतीले में गर्म होते मक्के के दानो की तरह उछल उछल कर सामने आता है।
आकर्षण के विषय में तो चलते फिरते तुम्हे बताता रहता हूँ प्रियंवदा..! लेकिन आकर्षण के आगे एक शब्द जोड़ दो तो हर कोई उससे थोड़ी परहेजी बना ले.. परहेजी मतलब गुप्तता बरतने लगे। क्योंकि यहां जज होने का खतरा है। लोग आपके प्रति एक मनसा बांध ले। वो है 'देहाकर्षण'.. यह वो वाला मामला है कि होता सबको है बस छिपाना चाहते है। खुल के कह नहीं सकते, पीटने के भी चांस है, और बेइज्जती के अलग से। अब यह लिख रहा हूँ तो यह मत समझना की सर्दियों के प्रभाव में ऐसी बाते कर रहा हूँ। सर्दियाँ अपने यहाँ उतनी ही है जितनी सहारा में बारिश। ऐसा है, बाह्य सौंदर्य सदा से प्राथिमक चरण बनकर बैठा है, और वहीँ रहेगा। उसका स्थान कभी कोई नहीं ले सकता। वो कथानक है न, कि कृष्ण ने कुब्जा को रूपसौंदर्य दिया था, तो आज भी तो सब सौंदर्य के ही तो चाहक है, उस समय भी रहे थे। कड़वी है लेकिन हकीकत यही है कि एक पुरुष प्रथम तो बाह्य सौंदर्य से ही प्रभावित होता है। स्वाभाव और व्यवहार उसके बाद के चरण है। अच्छा, सुंदरता को रूपक भी बड़े सुन्दर ही मिलते है, जैसे की अनारके दाने जैसे दांत, हिरन जैसी आँखे, गुलाबकी पंखुड़ियों से होंठ, बेल-लता से बाल.. वगैरह, वगरैह.. अब जरा मन में ही कल्पना की जाए तो लाल दांत, और पाशविक आँखे, हरे बाल वाली किसे ही पसंद आए..? लेकिन रूपक ऐसा ही दिया जाता है तो है। सीधी बात है, शारीरिक सौष्ठव पर प्रथम आकर्षण बनता है। पसंदगी की बात आए तब तो कोई हाड़पिंजर सा दुबला हो तो भी पसंद नहीं करते और अनाज की बोरी सा ढुलमुल हो तब भी मुंह बना लेते है। एक बात और भी तो है, पुरुष स्वयं कोयले की खदान से निकला हो, लेकिन स्त्री उसे अप्सरा ही चाहिए। अरे हमारे प्रसिद्द साहित्यकार शाहबुद्दीनजी की एक बात याद आ गई.. जब किसी ने उनसे पूछ लिया कि, 'लड़कियों को इतने व्रत करने पड़ते है और लड़को के लिए कोई भी व्रत-उपवास का विधान क्यों नहीं है?' तब उन्होंने बड़ा सरल और मार्मिक जवाब दिया था कि 'व्रत वगैरह उन्हें करना पड़ता है, जिन्हे कुछ अच्छा चाहिए हो, हमारे देश की स्त्रियाँ सुशिल सुगुणा है, इस लिए पुरुष को कोई व्रत उपवास करने की जरूरत है नहीं। लेकिन सामने ऐसा नहीं है, इस लिए स्त्रियों को व्रत वगैरह रखने पड़ते है, सोमवार को उपवास करना पड़ता है कि महादेव की दया से कोई अच्छा पुरुष निकल आए।' बात उन्होंने मजाकिये अंदाज में की थी लेकिन वास्तविकता से भरपूर ही है। स्त्री सगुणा सुशिल होती है, पुरुष का कोई पता नहीं जैसे कूपन स्क्रेच किया और नसीब में बेवड़ा निकल आया..
खेर, इस देहाकर्षण को हर कोई वासना में खपाने की कोशिश में लगे रहते है। क्योंकि देहाकर्षण को विकार दृष्टिपूर्ण कहा जाता है। अब कोई सुंदर स्त्री हो, तो हर कोई मात्र उसे शारीरिक सुख की कामना से ही देखता हो ऐसा ही होता है क्या? देहाकर्षण वह हुआ कि बाह्य शारीरिक सौष्ठवता से प्रभावित होना.. वैसे भी एक दृष्टिकोण से देखे तो देहाकर्षण का उद्देश्य तो शारीरिक सुख ही दीखता है लेकिन क्या वही एकमात्र है? कई सारे दर्शन वगैरह एक बात यही कहते है कि आत्मा को पहचान लिया तो देहाकर्षण छूट जाएगा? देहाकर्षण क्या मात्र यही है कि देह को मात्र उपभोग की वस्तु समझना? वैसे हमारे यहाँ की परम्परा, विरासत ने ऊर्ध्वगति के लिए ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ माना है। यदि वैराग्य ही सर्वस्व है फिर तो जीवन के चार पड़ाव - धर्म, अर्थ, काम मोक्ष कैसे पुरे हो? ब्रह्मचर्य सबके लिए नहीं है, फिर तो पृथ्वी की गति ही रूक गई समझो। ऐसा ही कोई निर्धारण हो तो वह पूरा हो। ब्रह्मचर्य मोक्ष प्रदाता है, तो मोक्ष को जीवन के अंतिम पड़ाव रखा गया है। जब यह संसार भोग लो, कोई इच्छा अधूरी न रह जाए तब मोक्ष है। फिर देहाकर्षण गलत कैसे? फिर भी गलत है। क्योंकि यह समझ नहीं बना पाए की देहाकर्षण पर लगाम होनी जरुरी है, वरना वह विकराल रूप लेता है, और शोषण करने तक परिवर्तित हो जाता है। यह बोध हो तो देहाकर्षण कैसे गलत हुआ? देहाकर्षण यदि वासना है तो यह वासना उतपत्ति का साधन है। उत्पत्ति ही न हो तो फिर तो शून्य ही है..
प्रियंवदा, हमे शब्दों के अर्थ, व्याख्या, परिभाषा सब कुछ ही तो जानना चाहिए। परिणाम सोचने चाहिए। इस लेखन के भी.. मैं हंमेशा फिर से पढता हूँ, कि मैंने क्या लिखा है। कितना उचित है अनुचित वह मैं सोचता हूँ, लेकिन मैं पाठक को बाध्य नहीं कर सकता की उसे मेरे लेखन से प्रभावित होना है। लेकिन उसे टिप्पणी करनी अनिवार्य है। तभी तो मुझे भी बोध होगा कि मेरे सोचने की सीमाएं कहा तक है? या क्या मुझसे छूट गया है। है मेरे पास एक नित्यपाठी.. जो मुझसे कहता है, समझाता है, मुझे मेरी सीमाओं से प्रत्यक्ष करवाता है। लेकिन फिर भी मुझे, शायद हम सभी को उस एक कि कमी तो अवश्य ही खलती है जो हाजिर नहीं है। या हम सोचते है, जो पास है वह तो पढता नहीं और तारीफे, दाद या आलोचना बहुत दूर दूर से आती है। हुआ होगा तुम्हारे साथ भी कभी ऐसा प्रियंवदा? या फिर तुम्हे भी रस नहीं इन बेफिज़ूल से शब्दों में..? इस वैचारिक चक्रव्यूह में?