क्या मन को वश में करना ज़रूरी है? | सोशल मीडिया, आकर्षण और आत्ममंथन की दिलायरी || It can also be called laziness in another word..

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सोशल मीडिया की आग और आकर्षण की हलचल

    बताओ प्रियंवदा, यह कोई बात हुई ? मैं जिनसे कुछ मांग रहा हूँ, वो मुझ से ही उलटा मांगने लगे..! वैसे आज मेरा दिन अच्छा है, वास्तव में तो विचित्र है। विचित्र इस लिए कहा कि बादल छाए रहे। कड़ाके के ठण्ड के लिए लगता है तप करना पड़ेगा हिमालय में जाकर। फ़िलहाल मुझे मेरी उलझनों के लिए एक मित्र मिला है, सोसियल मिडिया पर थोड़ा संभालना पड़ता है, और अपन थोड़ा गच्चा खा जाते है, और मुसीबत में मित्र काम न आए तो कौन ही सही? कई बाते हम नियति पर छोड़ देते है, ईश्वर पर। जहाँ शायद हमारी क्षमता का अंत आ जाता है। हमारे प्रयासों की एक अवधि। 


जब ईश्वर के हवाले कर देते हैं अपनी क्षमता

    या जहाँ हम स्वीकार लेते है कि अब नहीं हो पाएगा। बस वह, वहीं हम कह देते है ईश्वर सम्हालेगा। दर्शन करने है तो यात्रा करनी पड़ेगी। यात्रा करनी है तो समय और सामर्थ्य दोनों ही चाहिए। और यदि दोनों ही है तो भावना भी चाहिए। कभी कभी उत्सुकता हो आती है। कहीं दूर बैठे किसी मित्र से मुलाकात की। लेकिन फिर वो फ़िल्मी सिन की माफिक मैंने भी समय और संजोग पर छोड़ रखा है। और अक्सर हम अपनी क्षमता को इसी पर छोड़ देते है, समय, संजोग, नियति, या ईश्वर... 



    कभी कभी कोई टकरा जाता है। दिमाग के तार हिलाने वाला। न कोई लेन-देन, न कोई जान पहचान, फिर भी मैं तेरा मेहमान। हम आदर करते है। हम सत्कार करते है। पर वही बात हो जाए की जिसे कंधे पर बिठाया वो अपने ही कान में पी-पी करे.. होता है, सोसियल मिडिया के ज़माने में होता है। कोई कहीं से प्रकट होता है, अपने आप को सायको कहकर आपको बार बार मेसेज करता है। बेमतलब की बाते बताता है। जिसका न सर है, न पैर। आप पीछा छुड़ाते हो। बिना वजह आप सोचमे पड़ते हो। कि क्या था यह? क्यों था यह? 


    लेकिन दुनिया बेमतलब को पानी न पूछे। लेकिन आपको जिज्ञासा होती है, यह जानने की, कि उसने ऐसा किया क्यों? तब मानिये की आपको पंचायत करने में बड़ा मजा आता है। और यदि यह अनुच्छेद आपने गौर से पढ़ा है तो आपको भी पंचायत में रसास्वाद तो है ही। अरे अरे मजाक कर रहा हूँ। लेकिन यह बात तो तय है कि सोसियल मिडिया की धरती पर भी खूब अंगारे है, फूँक फूँक कर कदम रखना चाहिए।


मन का नियंत्रण या आत्म-स्वीकृति?

    भाव बहा दिए हो एक साथ पन्ने पर तो फिर खालीपन आना भी व्याजबी है। कई दिनों से कुछ पढ़ा भी तो नहीं है। होती होगी लोगो की नियत दिनचर्या, या नियंत्रण पा लेते होंगे अपने मन पर, या मन मार सकते होंगे.. यहाँ तो पढ़ना हो या आकर्षण, मन यदि वश में रहा तो वह तो मन की व्याख्या के साथ ही अन्याय है। मन जिसने वश कर लिया वह तो परब्रह्म ही है फिर.. और मैंने मन को नियंत्रण में लाने के जहमत कभी उठायी ही नहीं। 


आकर्षण की अव्यक्तता में जीवन

    भले ही कई सारे आकर्षण हो जाए, मोह हो जाए.. मेरा आकर्षण है, व्यक्त कहाँ किया है? यदि व्यक्त करूँ तो दूसरी-तीसरी संभावनाए उत्पन्न होती है। अव्यक्त आकर्षण को पालते रहना, पोषते रहना गलत कहाँ है? अपने मन तक सिमित है। व्यक्त हो जाए कभी तब भी विकटता ही है। क्योंकि संघर्ष छिपा है वहां। आकर्षण का क्या है, देखने से हो जाए, सुनने से हो जाए, बात करने से हो जाए..


    प्रियंवदा, मन को क्यों वश में करूँ? मेरा ऐसे ही सही जा रहा है। पीड़ा, दुःख से मैं गभराता नहीं। सुख को सम्हाल नहीं सकता। फिर क्यों बेमतलब मन को वश करने के संघर्ष में उतरना। इसे दूसरे शब्द में आलस भी कह सकते है।


|| अस्तु ||


जब मन को बाँधना ऊबाए वहीं पल छोड़े जहाँ मौन ही उत्तर हो —
‘आज मैं इसी क्षण व्यग्र होना चाहता हूँ…’ — यही वह शांति पाने का प्रयास है

प्रिय पाठक,
यदि कभी आपको भी लगा हो कि मन को बाँधना, बस और उलझा देना है —
तो यह दिलायरी का पन्ना आपके लिए है।

पढ़िए, सोचिए और बांटिए — इस आत्ममंथन को किसी ऐसे के साथ, जो खुद से जूझ रहा हो...

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