देखो ऐसा है, ठण्ड का अनुभव करने के लिए सुबह जल्दी जागना चाहिए, या फिर देर रात को थोड़ी देर घर से बाहर टहलना चाहिए। मैं इतने दिनों से भ्रम में था कि अपने यहाँ ठण्ड है ही नहीं। लेकिन कैसे पता चलेगा? सुबह नौ बजे के बार घर से निकलो और रात नौ बजे घर लौट जाओ तो? क्योंकि दिनभर तो धुप रहती है इस लिए अनुभव होती ही नहीं। लेकिन आज जब सुबह साढ़े सात बजे बस डिपो जाना पड़ा तो पता चला की मोटरसायकल चलाते हुए हाथ तो ठंडी की मार से दर्द करते है। थोड़ी देर ही सही लेकिन धुंध तो अपने यहाँ भी होती है। सब समय का खेल है प्रियंवदा..! जैसे तुम दूर हो, मेरे ही कारण। वैसे ही ठण्ड दूर है, मेरे ही कारण। क्योंकि मैं देरी से अनुभवता हूँ। धीरा हूँ। समय बीतने पर अनुभवता हूँ एक खोट। जैसे तुम्हारी।
कुछ अनुभूतियाँ शब्दों में नहीं उतर सकती। कुछ दुःख कभी भी व्यक्त नहीं हो पाते, कागज़ पर.. कतई नहीं। आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है। जैसे कोई बोझ है सर पर। लेकिन खाली भी हूँ, मन से, ह्रदय से। काश मैं होता वहां, तुम्हारी गोद में सर रखकर खाली हो पाता, जैसे गंगा नहाए को मिली स्वच्छता.. निर्मलता। किसे दोष दूँ? इस संध्या के समय ईश्वर को? अपनी नियति को? या कभी लिए निर्णयों को..! क्या कहूं अब, कैसे कहूं? मैं नहीं मानता प्रेम में। लेकिन एक खिंचाव अनुभवता हूँ उसे प्रेम नहीं कह सकता। प्रियंवदा, यह असमंजस है। मैं क्या कर रहा हूँ, किसी से बात कर रहा हूँ, या कुछ काम कर रहा हूँ, पर वहां मैं नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ तुम्हारा वरदहस्त अपने मस्तक पर, उस मस्तक पर जो अभी विस्फोट होना चाहता है। समस्त पीड़ाओं से, आत्मलोचना से, भटकावों से, पथविहीनता से, नियमितता से, कोमलता से जिससे चाहो मुझे दण्डित करो.. मैं भोग लूंगा, कितनी ही पीड़ा हो, कष्ट हो, अनहद हो, बेहद हो.. शायद मैं स्थिर हूँ अभी। जो भी लिख रहा हूँ, पढ़ नहीं रहा हूँ, सोच नहीं रहा हूँ..
कोई सलाह मश्वरा काम करेगा या नहीं, नहीं जानता। किसी भी हद को आजमाने से चूकना नहीं चाहता। लेकिन बंधनो को तोड़ नहीं सकता.. कमजोर हूँ मैं। कायर ही क्यों न कहूं? स्वच्छंदता ही सिख लेता कम से कम.. सारे दोष पूर्णतः स्वयं को दे पाता। अभी भी दे रहा हूँ, लेकिन इस बोध के साथ कि नियति भी उतनी ही कसूरवार है, जितनी मेरी हिम्मत। पश्चाताप भी नहीं है यह। वह तो तब होता है जब भूल को समझी हो। यह तो आततायिता बरती है, स्वयं पर। भले ही ओवरथिंकिंग कही जाए, या आत्महीनता, या स्वीकारभाव.. जानता हूँ, सब विरोधाभाषी है, पर अभी मैं शायद उतना होश में नहीं। मैं यहाँ लिख जरूर रहा हूँ। पर साथ ही तुम्हारे हृदय में स्पंदना भी जगा रहा हूँ प्रियंवदा। कोई ऐसी शक्ति जरूर है, जो हमे जोड़कर रखती है। मैं यहाँ तुम्हे याद कर रहा हूँ, इस आशा में, इस विश्वास में, कि वहां तुम्हे भी मेरा स्मरण होगा। शायद में किसी घाट पर पड़ा पथ्थर हो जाऊं जिसे कुछ भी अनुभूति नहीं होती, लेकिन नदी उसे अपने आलिंगन में सदैव रखती है। नदी अपनी लहरे उठाकर उसे अपने पास ले लेती है, अपने शरण में, अपने भीतर.. डूबा देती है। सदा के लिए... अनंत..
आज चाहता हूँ, इसी क्षण मेरा ध्यानभंग हो जाए..! मैंने अभी अनुभूति की है। पलके कई देर में झपकती है। आँखे घूर रही है, इन शब्दों को.. इन शब्दों के भीतर बसा है कुछ ऐसा, जो स्पष्ट नहीं है। व्यक्त नहीं है। है भी शायद। मैं स्वयं नहीं जानता। नशे में हूँ शायद, लेकिन कुछ भी पीया नहीं है मैंने। खो चुका हूँ। वहीँ, तुम्हारे पास, लेकिन अनुभवहीन हूँ। आज कोई भी प्रश्न नहीं उठ रहे भीतर.. स्थिरता बनी है। जैसे तुम्हारे पास होने की। जैसे वृक्ष से गिरे सूखे पत्तो को पवन उड़ा ले जाए, क्या तुम एक फूंक नहीं मार सकते? बस पास आकर अपने उच्छ्वास की ऊष्मा से सिंचित कर दो मुझे..
तुम्हारे स्मरण का आदी हूँ प्रियंवदा..!
Nice blog. aapki priyamvada apko zarur milegi❤️ ho sakta hai uske haath bhi bandhe hon...har kisi k jeevan mei us se upar koi na kai insaan ya halaat zarur hote hain jo gati ko thoda dheema kar dete hain. ho sakta hai vo bhi apne se upar wale kisi ki ijaazat k intezaar mei ho🥹😔
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