तारीख है तीन, महीना जनवरी, साल २०२५ और अभी बज रहे है रात्रि के दस। मौसम तो ऐसा है कि मानो गर्मियां आ गई। गजब ही व्यस्ततापूर्ण दिवस था। सुबह ऑफिस पहुंचा लगभग साढ़े नौ। लगभग पौने दस को तो सरदार भी आ गया था, और फिर जमा-उधार चला शाम के सात तक। दोपहर तो कब चढ़ी, कब उतरी, कब शाम ढली, कब अंधेरा हुआ, कुछ भी पता नही। घर पहुंचा, खाना पीना हुआ, और अभी चौक में बैठा क्या लिखूं यह सोच रहा हूँ। वैसे काम ज्यादा हो तो बिल्कुल ही पता नही चलता दिन कैसे गुजरा, और कैसा गुजरा। क्योंकि और तो कुछ सोचा ही नही, और कुछ सूझा ही नही। सवेरे इंस्टा पर ब्लॉगपोस्ट की लिंक स्टोरी पर तो चढ़ाई, लेकिन दोपहर होते होते ख्याल आया कि कुछ तो कमी खल रही है। प्रशंसा की। हाँ, क्या करे.. कैसा भी लिखा हो, एक सराहना तो निश्चित ही थी, वही गायब हो गई।
बचपन मे एक जौक सुना था, कि एक बार क्या हुआ कि एक बूढ़ा पहली बार मुम्बई पहुंचा। गांव का आदमी, अलबेली नगरी से बिल्कुल ही अनजान.. अच्छी होटल में रूम लिया। दो दिन अच्छे से घुमा, लेकिन एक भारी समस्या में फंस गया। दो दिन से खाना-पीना तो अच्छे से हो रहा था होटल में, लेकिन वो अंग्रेजी टॉयलेट देखकर बूढ़ा सर खुजाए, पहली बार ऐसा खड़ा टॉयलेट सीट देखा था तो सोचता कि भाई होटल वाले जाने से सीधे-सीधे मना कर देते, सीट को खड़ा करने की क्या जरूरत थी..? लेकिन दो दिन खाए बगैर तो चल सकता है लेकिन जाए बिना कैसे चले? तो गांव का आदमी, सरल आदमी, होटल में न्यूज़पेपर तो आते ही है, टॉयलेट रूम में पेपर बिछा कर वैश्विक कार्यक्रम निपटा लिया, और पेपर बांधकर एक प्लास्टिक की थैली में बाथरूम में ही लटका दिया। उसी दिन पुलिस को बातमी मिली उस एरिया में एक किलो चरस-गांजे की खेप हो रही है। होटल में भी रेड पड़ी, पुलिस ने रूम खटखटाया, बूढ़े ने दरवाजा खोला, चेकिंग हुई, अब पुलिसवालों को यहां तक सूचना थी कि माल काली थैली में है और बूढ़े के टॉयलेटमें काली थैली तो मिली। फिर तो किसी ने आव देखा न ताव, बूढ़े को उठाया। पुलिस्टेशन ले जाया गया। माल तौला गया, आठसो ग्राम हुआ। बूढ़े को खूब मार पड़ी। मारते मारते पुलिसवाले बोलते जाते, "किलो से कम है क्यों है बता?" बूढ़े ने खूब बिनती की तो पुलिसवालों ने उसे गांव भेज दिया, माल बांटकर मामला रफादफा करने की सोचकर। बूढ़ा गांव पहुंचने के बाद बड़े दिनों बाद घर से बाहर चौक में आकर बैठा। गांव वाले भी खुश थे कि कोई मुम्बई से लौटकर आया है। बड़ी बात हुआ करती थी मुम्बई जाना। तो एक और बूढ़े ने पूछ लिया कि 'भाई, मुम्बई गया था, कैसा रहा..?" बूढ़े ने सिर्फ उतना ही जवाब दिया कि "भाई किलो कर सको तो हो जाओ, आठसो ग्राम में मारते बहुत है..!"
यही हाल है, सब अपने दृष्टिकोण से एक कल्पना बांध लेते है, और उसे सच मान लेते है। असल सत्य तक जाने की जहमत कौन उठाये? एक बात और भी तो है। सत्य बलिदान भी तो मांगता है। जैसे कुछ पाने के लिए कुछ खोना टाइप.. जैसे कोई तैयारी के लिए सोसियल मीडिया वगेरह त्याग देना। लगातार एक ही मेहनत में वहां तक लगे रहना जब तक सन्तोषकारक परिणाम न मिले। लेकिन एक दृढ़संकल्प लेना भी तो कितना मुश्किल है। संकल्प लेने भर से संकल्प तोड़ने वाले विचार जागृत हो उठते है। जितनी कसकर मुट्ठी बांधते है, उतनी ही जल्दी वह खुलने को आतुर हो चलती है। एक तो बड़ी समस्या यह भी है कि कुछ लोग सत्य बोलते ही नही कदापि। ऊपर से पता न हो, जानते न हो तब भी कह देते है कि, "हाँ हो जाएगा।" यह अति आशावादी अक्सर मौके पर ही पानी मे बैठ जाते है। नुकसान उनपर निर्भर है उसका होता है। जैसे किसी को कहा है कि टिकट्स दिला दे। उसने हामी भी भरी। लेकिन जब उपयोग की बात आई तब वह खबर देगा कि काम तो हुआ ही नही। मेरे घर पर टाइल्स लगाने का काम शुरू था तब मैं एक टाइल्स की दुकान वाले के वहां ऑर्डर देने गया। अनायास ही वह पहचान वाला भी निकला। तो एक आशा भी बंधी की कमसे कम क्वालिटी की तो अब फिक्र नही। फिर मैंने कुछ एडवांस देना चाहा तो अगले ने मना किया, बोला आपके घर पर टाइल्स पहुंच जाए तब दे देना। अब एक दिन बिता, पूछा तो जानने को मिला लेबर और टेम्पो नही है। दूसरे दिन दोपहर बाद भी टाइल्स नही पहुंची तो मैं ही दुकान पर पहुंचा और 60% कीमत चुकाई, शाम को आठ बजे टेम्पो भी माल भरकर आ गया घर पर। कुछ बाते जो फॉर्मेलिटी के नाम पर भी हुई हो उसे माननी नही चाहिए यह तब जानने को मिला। अब भले ही अगले को सच मे टेम्पो तथा लेबर न मिले हो पर मैंने तो यह समझ ही लिया कि बाद में भी पैसा देना है और अभी भी देना ही है, तो अभी ही चूकते करना चाहिए। कमसे कम टेम्पो लेट होने पर दुकान वाले को झाड़ तो सकते हो कि 'इतनी देर कैसे लगी? पैसे नही दिए थे क्या?'.. वास्तव में कुछ बाते होती है इशारों में समझने की। कुछ होशियार होते है, तुरंत समझ जाते है। जैसे ऑफिस पर कई बार पार्टियों को पेमेंट के लिए कहना होता है तो अगला फोन उठाते ही बोल देता है कि आधे घण्टे में ट्रांसफर कर रहा हूँ। और कुछ को तो पंद्रह मिनिट तक दूसरी-तीसरी बाते करने के बाद धीरे से कहना पड़ता है कि 'वो गाड़ी गई थी उसे तीन महीने हो गए, कुछ ऑर्डर हो तो बताना जी। अरे हाँ, कुछ फंड भी करा देना।' और तब अगला प्रत्युत्तर में कहता है, 'फंड्स तो चलो अगले वीक करा देता हूँ, लेकिन यह ऑर्डर है, तीन दिन में तैयार करवा दो।' अब उसे कौन समजाए की तूने पहला पेमेंट भी पूरा किया है नही, दूसरी उधारी अभी से मांग रहा है।
लेकिन दुनिया मे उधारी से बड़ा कोई धंधा नही.. सब रोटेशन घुमाते रहते है। वो बात बिल्कुल सच है, उधार मांगने वाला रोए एक बार, और देने वाला रोए बार बार..! मेरे भी कुछ जगह अटके पड़े है.. लेकिन मजाल है अगला एक बार भी जिक्र कर सामने से...
ठीक है प्रियंवदा। आज यही पढ़कर राजी रहना। आज मुझे भी उधारी का टॉपिक कुछ मिला नही है।
मुंबई वाला किस्सा जबरदस्त लगा 😂
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